यात्रा वृतान्त: प्रो.सच्चिदानद जोशी

पत्रकारिता एवं जनसंचार शिक्षा के क्षेत्र में अपने प्रदीर्घ अनुभव के साथ विभिन्न शैक्षणिक संस्थाओं में कार्य। कलात्मक क्षेत्रों में अभिरुचि के कारण रंगमंच, टेलीविजन तथा साहित्य के क्षेत्र में सक्रियता। पत्रकारिता एवं संचार के साथ-साथ संप्रेषण कौशल, व्यक्तित्व विकास, लैंगिक समानता, सामाजिक सरोकार और समरसता, चिंतन और लेखन के मूल विषय। देश के विभिन्न प्रतिष्ठानों में अलग-अलग विषयों पर व्याख्यान। कविता, कहानी, व्यंग्य, नाटक, टेलीविजन धारावाहिक, यात्रा-वृत्तांत, निबंध, कला समीक्षा इन सभी विधाओं में लेखन। एक कविता-संग्रह ‘मध्यांतर’ बहुत चर्चित हुआ। पत्रकारिता के इतिहास पर दो पुस्तकों का प्रकाशन। प्रभात प्रकाशन से प्रकाशित पुस्तक ‘सच्चिदानंद जोशी की लोकप्रिय कहानियाँ’ को भी अच्छा प्रतिसाद मिला। बत्तीसवें वर्ष में विश्वविद्यालय के कुलसचिव और बयालीसवें वर्ष में विश्वविद्यालय के कुलपति होने का गौरव। देश के दो पत्रकारिता एवं जनसंचार विश्वविद्यालयों की स्थापना से जुड़े होने का श्रेय। भारतीय शिक्षण मंडल के राष्ट्रीय अध्यक्ष।
सच्चिदानन्द जोशी वर्तमान समय में एक संस्था के सदृश्य भारतीय ज्ञान और कला परम्परा को संजोने और आगे ले जाने में निरन्तर लगे हुए हैं, आपका व्यक्तित्व जितना सौम्य और आकर्षक है उतनी सधी हुई भाषा के साधक के रूप में भी आप जाने जाते हैं. भाषा के माध्यम से अपने अनुभवों और यात्राओं की जीवन्त कर देने अद्भुत क्षमता आपको और भी विशिष्ट बनाती है.  

थाईलैंड में टुकड़ा टुकड़ा भारत :
बैंकॉक प्रवास का अंतिम दिन था और वहां की भारतीय राजदूत सुचित्रा दुरई जी के साथ दोपहर के भोजन के बाद सीधे एयरपोर्ट निकालना था । सुबह का समय खाली था। मेरे साथी प्रो अमरजीव बोले " आप आराम करें । मैं एक दो जगह होकर आता हूं। " मुझे लगा आराम तो हो चुका है , बेहतर होगा कि इनके साथ जाकर कुछ नया देख ही लूं।
" आपको आपत्ति न हो तो मैं आपके साथ चलूं?"
" आपत्ति क्यों होगी बल्कि मुझे तो खुशी होगी। इस बहाने आपको थाईलैंड में भारत की कुछ झलक दिखा देंगे। " अमरजीव जी बोले।
निर्धारित समय पर धानुका जी अपनी कार और ड्राइवर के साथ आ गए और हम थाईलैंड में छुपे भारत को देखने निकले। धानुका जी पिछले 35–40 साल से बैंकॉक में हैं और यहां स्थाई है। वे एक बड़े प्रतिष्ठान में वरिष्ठतम पद पर हैं।इनके दोनो बेटे भी अपने परिवार के साथ यही रहते हैं। हमारे प्रवास में पहले दिन रात का भोजन उन्ही के यहां था। पूरा परिवार एकत्रित था और हमने अत्यंत सुस्वादु भोजन के साथ ढेर सारी गप्पों का आनंद भी लिया । एक और मित्र अमित वाईकर भी वहां आ गए तो मजा दुगुना हो गया।अमित जी एक मल्टीनेशनल में बड़े पद पर हैं। लेकिन इन दोनो से मिलकर नही लगा कि इतने बड़े लोगो से मिल रहे हैं। इनकी आत्मीयता और इनके अंदर बसी भारतीयता की सोंधी महक से अभिभूत होकर हमने उस रात विदा ली थी।
जब हम कार में बैठे तो धानुका जी ने बताया कि वे हमे थाईलैंड भारत सांस्कृतिक आश्रम ले जा रहे हैं। नाम सुनकर आश्चर्य हुआ। बैंकॉक के अत्यंत संभ्रांत इलाके में महल के पास यह स्थान है। इसकी स्थापना 1942 में हुई थी और यहां गुरुदेव आए थे। इसी स्थान पर नेताजी का आगमन भी हुआ था। धानुका जी वह रेस्त्रां भी दिखाया जहां नेताजी अक्सर आते थे और लोगो से मिलते थे।
पुरानी इमारत को गिरा कर अब वहां एक बहुत अच्छी इमारत बन गई है जिसमे चिंतन , बैठक कक्ष के साथ साथ कुछ कक्षाएं भी है जहां थाई हिंदी संभाषण और भारत के बारे में प्रारंभिक ज्ञान की कक्षाएं भी होती हैं। इसे थाईलैंड में रहने वाले भारतीयों ने कुछ बड़े व्यवसाइयो के सहयोग से बनाया है। इसका कार्य व्यापार भी परस्पर सहयोग से ही चलता है।यह आश्रम थाईलैंड में बसे भारतीय के लिए मिलने और विमर्श का स्थान है। साथ ही यह थाईलैंड में आने वाले विद्यार्थियों और शोधार्थियों को भी सहायता उपलब्ध कराता है। बात बात में अमरजीव जी ने यह भी बताया कि उन्होंने भी यहां अच्छा खासा समय बिताया है जब वे शोधार्थी थे। " लेकिन तब यह इस तरह नही बना था। पुराना और काफी भुतहा सा था। " अमरजीव जी ने स्पष्ट किया। पीछे एक थाई शैली में बनी पुरानी इमारत आज भी है जो इस बात की गवाही देती है कि पहले यह कैसा रहा होगा ।" आप आए तो सारे भूत भाग गए । " धानुका जी ने चुटकी ली और हम सब , यानि वहां उपस्थित थाई परिचारिका भी खिलखिलाकर कर हंस दिए।
धानुका जी से विदा लेकर जब हम बैंकॉक शहर की सीमा के बाहर निकल आए तो कल्पना नहीं थी कि भारत से जुड़ी किसी विशाल वास्तु को देखना होगा। लेकिन जब हमारी गाड़ी शिल्पकोरों यूनिवर्सिटी के एक परिसर में जाकर खड़ी हुई तो मैं उस पांच मंजिला इमारत को देखकर दंग रह गया। यह संस्कृत स्टडीज सेंटर की इमारत थी जो अपने पूरे वैभव के साथ हमे आमंत्रित कर रही थी। कोरोना के बाद से कक्षाएं शुरू ना होने के कारण वहां विद्यार्थी नही थे लेकिन उस पूरी इमारत को देखा जा सकता था। यहां एक दो प्राध्यापको से भेट हुई। डा सोमबत मंगामी सुकरी जी से भेट हुई। इसे भारत सरकार की सहायता 2006 में बनाना प्रारंभ किया गया। यहां विश्विद्यालय का आर्कियोलॉजी विभाग भी कार्यरत है। यहां की विशेषता यहां का भव्य पुस्तकालय है जहां आपको संस्कृत और संस्कृति से संबंधित ढेर सारी पुस्तके मिलेंगी। यहां का पुस्तकालय देख कर लगा कि इतनी समृद्ध लाइब्रेरी तो हमारे कई संस्थानों में नही होती। सन 2022 में इसके संस्थापक निदेशक श्री चैरापात प्रपंद्रिया को पद्मश्री से भी अलंकृत किया गया है। भारत के बाहर संस्कृत के लिए स्थापित यह संभवतः सबसे बड़ा केंद्र है। पर्याप्त आर्थिक संसाधन n होने के बावजूद यह केंद्र अपने कार्यों को अंजाम दे रहा है। उचित सहायता मिलने पर तो यह केंद्र बहुत विस्तार पा सकता है। उसकी कल्पना करने वालो और उसे मूर्त रूप देने वालो को बारंबार प्रणाम करने की इच्छा होती है।
महिदोल विश्वविद्यालय थाईलैंड का सबसे अच्छा विश्वविद्यालय माना जाता है। यह शिक्षा का एक प्रमुख अंतरराष्ट्रीय केंद्र है। इतना खूबसूरत परिसर कम ही देखने को मिलता है। अमरजीव जी ने बताया कि यह जमीन वृक्ष रहित थी। यहां एक लाख से अधिक पेड़ लगाए गए हैं। आश्चर्य है कि वे जीवित रखे गए हैं। इसके लिए पेड़ को तीन तरफ लकड़ियों से सहारा दिया गया। अब वे सभी पेड़ बड़े हो गए हैं और पूरा परिसर हराभरा दिखाई देता है। हमारे यहां हम एक लाख पेड़ लगाते तो हैं लेकिन हर बार पर्यावरण दिवस पर उसी जगह पर पेड़ लगाते रहते हैं।
इसी विश्वविद्यालय के रिसर्च इंस्टीट्यूट फॉर लैंग्वेज एंड कल्चर साउथ एशिया में स्थित है सेंटर फॉर भारत स्टडीज। एक छोटा सा केंद्र लेकिन काम बहुत बड़ा। 2010 में स्थापित इस केंद्र से स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम भी चलते हैं और भारत से संबंधित प्रकाशन भी होते हैं। यहां हिंदी तथा अन्य भारतीय भाषाओं के साहित्य को थाई भाषा में अनुवादित करने का काम भी होता है। यहां की निदेशक सोफना स्टीचंपा अपने पूरे समर्पण के साथ इस केंद्र की गतिविधियों को चला रही है और नए आयाम खोज रही है। उनकी जीवटता और समर्पण देख कर मन में उनके प्रति श्रद्धा का भाव उमड़ आया। एक दो लोगो के सहारे इतने बड़े विश्वविद्यालय में वे अपनी पहचान और अपना सार्थक अस्तित्व बनाए हुए हैं। उन्होंने अपनी युवा सहकर्मी फान से मुझे पूरा परिसर दिखाने को कहा। फान ने बहुत उत्साह से मुझे घुमाया।गर्मी बहुत थी तो मुझे प्यास लगी। फान उतरी और पास स्टोर से पानी की बोतल ले आई। मुझे आश्चर्य हुआ और अच्छा भी लगा जब मैने देखा कि वह दो बोतलें लाई है एक मेरे लिए और एक हमारे वहां चालक के लिए। बात छोटी है लेकिन संस्कारों की पैठ बताती है। बात बात में फान ने बताया कि वह भारत आना चाहती है और भारत में के हिंदी या संस्कृत सीखना चाहती है। जब मैने पूछा क्यों तो तो उसका उत्तर चौकाने वाला था। वह 26 वर्षीय थाई युवती बोली " कोरोना ने मेरे जीवन में बहुत खलबली मचा दी है। मन अस्थिर है और आगे का रास्ता नहीं सूझता । मुझे लगता है कि मेरी इस अस्थिरता का सही समाधान मुझे भारतीय साहित्य और शास्त्र में ही मिलेगा । और उसे पढ़ने के लिए भारतीय भाषा पढ़ना जानना जरूरी है। "
मैं निरुत्तर होकर बस उसे देख रहा था। ऐसा उत्तर हम कितने भारतीय बच्चो से सुन पाते हैं ???

करी और मसाज से अलग थाई देश :
कुछ दिन पहले थाईलैंड के प्रवास पर जाना हुआ। प्रयोजन था थाईलैंड के तीसरे सबसे बड़े और प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय महाचोल्लानकोन विश्वविद्यालय के साथ चांगमई में स्थित लाना पांडुलिपियों के डिजिटाइजेशन का अनुबंध। यह विश्वविद्यालय सत्तर वर्ष पुराना है और आज यहां लगभग दस हजार बौद्ध भिक्षु शिक्षा प्राप्त करते हैं। उनके अलावा अन्य विद्यार्थी भी यहां हैं जिनकी संख्या ढाई हजार के आसपास होगी।
थाईलैंड का नाम सुनते ही जो छवि हमारे दिलो दिमाग में उभरती है वह दरअसल थाईलैंड है ही नहीं।थाई करी ,थाई मसाज और थाई समुद्र तट के इतर भी थाईलैंड है जो शायद ज्यादा मोहक और अपना सा है। थाई संस्कृति और वहां के जीवन को जानने के लिए सैलानी का चश्मा उतार कर शोधक या विद्यार्थी का चश्मा पहनना ज्यादा बेहतर होगा। थाईलैंड के बारे में धारणा इतनी गलत बन गई है (जिसका बहुत सारा श्रेय हमारे भाई बंदों का ही है ) कि किसी को भी बताओ कि मैं थाईलैंड जा रहा हूं तो स्वाभाविक प्रतिक्रिया होती है " वाह गुरु तुम्हारे तो मजे हैं " या फिर " जाओ भाई ऐश करो " ।
माना कि थाईलैंड एक बेहतर और अधिकांश की जेब के लिए मुफीद पर्यटक स्थल है लेकिन एक देश और एक परंपरा के रूप में जानना ज्यादा प्रेरक और रोचक है। तीन साल पहले जब हम पहली बार वहां गए थे तो हमने अयोध्या सहित अन्य स्थानों के कुछ मंदिर देखे थे । तब चांगमाईं जाना नही हो पाया था।
लाना पांडुलिपिया सात सौ साल पुरानी हैं जिनमे लाना डायनेस्टी का और उसके भारत के साथ संबंध का लंबा इतिहास है। अब लाना लिपि पढ़ने वाले लोग ही बहुत कम रह गए हैं। लाना क्षेत्र उत्तरी थाईलैंड का हिस्सा है जहां 1200 साल लाना शासन रहा है। चांगमाई यहां की राजधानी रही है जो बैंकॉक से साढ़े तीन सौ किलोमीटर दूर हैं। कुछ समय पूरे थाईलैंड पर इनका शासन था और राजधानी भी अयोध्या के स्थान पर चंगमई ही थी।
चंगमाई उत्तरी थाईलैंड का पर्वतीय क्षेत्र है जिसकी अधिकतम ऊंचाई साढ़े पांच हजार फीट है। चांगमई की एक और विशेषता ये हैं कि यह भगवान बुद्ध के रिलिक्स दो हिस्सो में आए हैं। एक हिस्सा महा चोला लॉनकोन विश्वविद्यालय के चांगमाइ कैंपस में है और दूसरा वाट डोई सुथेप के नाम से प्रसिद्ध है। कहा जाता है कि तत्कालीन राजा ने एक सफेद हाथी पर रिलिक रख कर उसे चलने की प्रार्थना की ताकि वह हाथी रिलीक्स के लिए सुरक्षित स्थान ढूंढ सके। वह हाथी साढ़े तीन हजार फीट ऊपर इस पर्वत पर आया और उसने वहां प्राण त्याग दिए । वे रिलिक्स इसी पर्वत पर सुरक्षित हैं। वही उस हाथी की भी प्रतिमा लगाई गई है। प्रति वर्ष हजारों श्रद्धालु इनके दर्शन करने यहां आते हैं।
चांगमाई में ही कुछ बौद्ध मठों में ये पांडुलिपियां सात सौ वर्षो से सुरक्षित रखी है। कुछ लकड़ी के बक्से भी लगभग उसी समय के हैं। इन पांडुलिपियों को दुश्मनों और कीड़ों विशेषकर दीमक से बचाने के लिए इन्हे पानी के बीच में कमरा बना कर उनमे रखा जाता था। अपनी परंपरा और संस्कृति को बचा कर रखने की यह जद्दोजहद अनुकरणीय है।
विश्वविद्यालय का मुख्य परिसर बैंकॉक से चालीस किलोमीटर दूर वॉट सुन डॉक नामक स्थान पर है। जिस दिन हम अनुबंध के लिए जाना था उस दिन एक बहुत रोचक घटना हुई। घटना छोटी है लेकिन उसके कई आयाम हैं।
हम पहले दिन बैंकॉक पहुंचे और नियमानुसार क्वारेन टीन में रहे। दूसरे दिन हमे विश्वविद्यालय जाना था। तय यह था कि चंगमाइ से जो गाड़ी रात में विश्वविद्यालय आएगी वही सुबह हमे बैंकॉक से लेगी। रात को गाड़ी खराब हो गई तो वहां के प्रभारी भिक्षु जो वाइस रेक्टर थे का हमारे साथी प्रो अमरजीव लोचन जी को रात ही फोन आया कि आप सुबह आने के टैक्सी की व्यवस्था कर लें ,हम आपको टैक्सी का भुगतान करेंगे। लोचन जी रात में मशक्कत करते रहे लेकिन उन्हें कोई टैक्सी नही मिली। एक तो रविवार ऊपर से कोरोना से अभी शहर जागा नही था। हार कर लोचन जी ने अपने मित्र अशोक जी को फोन किया जो बैंकॉक में नौकरी करते हैं। उनके पास भी कार नही थी। लेकिन उन्होंने अपने एक स्थानीय व्यवसाई मित्र राज वासनिक को राजी किया कि वे अपनी कार से हमे ले चलें। यह सारा घटना क्रम हुआ जिसमे अमरजीव जी को सोने में बारह बज गए। मुझे तो इस पूरी घटना का पता तब चला जब सुबह मेरा परिचय राज वासनिक जी से कराया गया। अशोक जी से तो मेरा परिचय पहले से था।
हम रास्ते में बात करते रहे जिसमे मालूम पड़ा कि मूलतः भारतीय राज अब थाई नागरिक है और उन्होंने थाई लड़की से विवाह किया है। उन्होंने प्रारंभ में छोटा व्यवसाय किया था साबुन एक्सपोर्ट करने का लेकिन अब उनका बहुत अच्छा व्यवसाय है। उन्होंने कई सौ करोड़ का व्यवसाय कहा शायद तीन सौ या चार सौ करोड़।
लेकिन अपने बड़प्पन का जरा भी इजहार किए बिना वे हमारे साथ थे ।
जब हमारा कार्यक्रम समाप्त हुआ तो कार्यक्रम के प्रभारी भिक्षु आए और उन्होंने राज जी को चुपचाप एक लिफाफा दिया। राज जी हक्का बक्का रह गए। उन्होंने तो क्या हमने भी इस बात की अपेक्षा नहीं की थी। राज जी ने उसे लौटना चाहा तो श्री थारा डोल जो सेवा निवृत थाई विदेश सेवा अधिकारी थे ने राज जी को थाई भाषा में समझाया इसे ले लो ये भगवान का आशीर्वाद है। थारा डोल भारत में 15 वर्ष तक दूतावास में थे और भारत से प्रेम की खातिर वे विशेष रूप से हमसे मिलने आए थे। उनकी बात राज जी की समझ में आई और उन्होंने वह लिफाफा रख लिया।
हम आश्चर्य में थे कि भिक्षु जी ने याद रखा था कि हमे लाने ले जाने की व्यवस्था उन्हे करनी है ।इसलिए बावजूद इस कष्ट के कि वे स्वयं तमाम तकलीफे उठा कर सुबह पहुंचे थे वे हमारी चिंता में थे। वे जानते थे कि राज जी स्वयं की कार से हमे लाएं है फिर भी वे अपना कर्तव्य पूरा करना चाहते थे।
मुझे राज जी का भाव देखकर भी अच्छा लगा कि करोड़पति होते हुए भी उन्होंने भिक्षु जी की इच्छा का मान रखा और उस लिफाफे को माथे पर लगा कर जेब में रखा।
परस्पर समर्पण और श्रद्धा का ऐसा अनूठा उदाहरण देख हम सब की आंखे द्रवित थी।
थाईलैंड के लोगो का यह परस्पर भाव ही है जो अजनबी को भी बांध लेता है। इसलिए कहते हैं कि जो यहां ज्यादा दिन रह जाता है यहीं का होकर रह जाता है।
(साभार :जोशी जी फेसबुक के वाल से )

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