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Showing posts with the label जीवन

मेरी संवेदना

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कुछ कहा करो  कुछ सुना करो  कहने सुनने से  दु:ख कम हो जाते हैं कभी-कभी किसी को  सिर्फ सुन लेना  हो सकता है कोई  मुरझाया शख्स  मुस्कुरा दे और  कभी-कभी कह देने मात्र से  मन हल्का महसूस करता है।  इसलिए कुछ कहना और सुनना जरुरी है  और हाँ!  बहुत आसान है  कहना-सुनना कहने-सुनने से ही  बनतीं हैं बातें और चलती है दुनिया।  (अमरेन्द्र) याद है मुझे अब भी  वो सर्दियों की बरिश  चाय की चुस्कियां तेरे नर्म हाथों की आलू के पराठे,  और गर्मियों की लू  वो रिक्शे की सवारी  वो तेरी जुल्फों का लहराकर  मेरे मन को बहकाना  वो तेरी खुशबू का  मेरे सांसों में उतरना ।  याद है मुझे अब भी ,  वो आखिरी बार मिलना  चाय से शुरू हुई मोहब्बत का  स्वीटकार्न सूप पर खत्म होना।  ना जाने कितनी  याद होंगी तुम्हें- उन लम्हों की बातें और बहुत सी बातें।  वो एक कहानी - जो अधूरी खत्म हो कर भी  एहसासों जिन्दा है। (अमरेन्द्र) कुछ एहसास लिखने हैं मुझे लेकिन जब भी लिखना चाहा-  अक्सर शब्द उस एहसास को  लिखने से मुकर गए ।  और वो एहसास लिखे ही नहीं  जा सके - और ना ही कहे जा सके।  क्या ऐसे एहसास  रह जायेंगे हमारे भीतर / और उन एहसासो

ओशो

सुना है मैंने कि अकबर यमुना के दर्शन के लिए आया था। यमुना के तट पर जो आदमी उसे दर्शन कराने ले गया था,वह उस तट का बड़ा पुजारी, पुरोहित था। निश्चित ही, गांव के लोगों में सभी को प्रतिस्पर्धा थी कि कौन अकबर को यमुना के तीर्थ का दर्शन कराए। जो भी कराएगा, न मालूम अकबर कितना पुरस्कार उसे देगा! जो आदमी चुना गया, वहधन्यभागी था। और सारे लोगर् ईष्या से भर गए थे। भारी भीड़ इकट्ठी हो गई थी। अकबर जब दर्शन कर चुका और सारी बात समझ चुका, तो उसने सड़क पर पड़ी हुई एक फूटी कौड़ी उठा कर पुरस्कार दिया उस ब्राह्मण को, जिसने यह सब दर्शन कराया था। उस ब्राह्मण ने सिर से लगाया, मुट्ठी बंद कर ली। कोई देख नहीं पाया। अकबर ने जाना कि फूटी कौड़ी है और उस ब्राह्मण ने जाना कि फूटी कौड़ी है। उसने मुट्ठी बंद कर ली, सिर झुका कर नमस्कार किया, धन्यवाद दिया, आशीर्वाद दिया। सारे गांव में मुसीबत हो गई कि पता नहीं, अकबर क्या भेंट कर गया है। जरूर कोई बहुत बड़ी चीज भेंट कर गया है। और जो भी उस ब्राह्मण से पूछने लगा, उसने कहा कि अकबर ऐसी चीज भेंट कर गया है कि जन्मों-जन्मों तक मेरे घर के लोग खर्च करें, तो भी खर्च न कर पाएंगे। फूटी कौड़ी को ख

युद्ध और हम

तुमने पूछा था, तो कहती हूँ, हाँ मैं गई थी, कोलोन में जहाँ मेरे माता-पिता रहते थे..... वे तब भी जीवित थे.... लेकिन हमारा घर, वह कहीं नहीं था.... पडोस के सारे मकान लड़ाई में ढह गए थे..... और तब मुझे पहली बार पता चला कि जिन स्थानों हम रहते हैं, अगर वे न रहें.... तो उनमें रहनेवाले प्राणी, वह तुम्हारे माँ- बाप ही क्यों न हों.....बेगाने हो जाते हैं...जैसे उनकी पहचान भी ईंटों के मलबे में दब जाती हो...." कैसे दीखते होंगे वे शहर,  जिन्हें युद्ध के सनकी तानाशाहों ने  अपने सनक में बर्बाद कर दिया  कुछ बम- बारुद की गंध  उजड़े मकान  इन्सानियत के मलबे में  कराहती मानवता  और चारो ओर बिखरी  हुई होंगी  निशानी - कुछ बचपन की, कुछ यौवन की  और हसरतों के धुएं में  सुलगता हुआ शहर  जहाँ कभी  स्कूलों और अस्पतालों में  जीवन सजता था। 

लोकप्रिय बनाम गंभीर साहित्य

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आजकल लोकप्रिय कवि और रचनाकारों की बहुत बात हो रही है। और उन्हें विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रमों में ध्यान देने को लेकर तरह-तरह के वाद विवाद नित्य प्रति सामने आ रहे हैं। आज के समय में विवाद करना एक संस्कृति बन गई है कहीं भी कोई निर्णय लिया जाए उसके विरोध में कई लोग खड़े हो जाते हैं और अपने अनुभव और संचित ज्ञान के सहारे उसे गए  गलत ठहराने लगते हैं। ऐसा कितना तर्कसंगत है हमें यह सोचना होगा की पाठ्यक्रमों के बाहर इतना कुछ लिखा और पढ़ा जा रहा है। पाठ्यक्रम में शामिल किए गए पाठ पढ़कर एक विद्यार्थी  कुछ सीखता है  और उसे व्यवहारिक जीवन में उपयोग कर यह जान पाता है कि कैसे हम साहित्य सर्जन करें और लोकप्रिय हो जाएं । यह तो हमें समझना होगा की आज की शिक्षा लोगों को रोजगार के लिए दी जा रही है, या शिक्षा का यह उद्देश्य है कि लोग उस शिक्षा के माध्यम से अपनी रोजी-रोटी चला सकें । ऐसी में यदि ऐसी में यही विद्यार्थी लोकप्रिय साहित्य पढ़कर कुछ ऐसा लिखने की ओर उन्मुख होता है कि वह भी ऐसे साहित्य का सृजन करें जो लोकप्रिय हो और उसे अपनी रोजी-रोटी चलाने के लिए साहित्य सृजन के अलावा और कोई कार्य न कर

ययावरी

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आज फिर से गब्बर शान्त और उदास बैठा अपने उन दिनों के स्मृतियों के जंगल में खोया हुआ था। ना जाने आज क्यूँ आज वह इतना बेचैन था उस जंगल में खो जाने के लिए। अचानक से बगल में रखे मोबाइल की ध्वनि से उसकी तन्द्रा टूटी और उसने देखा और फिर मन में जम आये उस जंगल में खो गया। आज उसके चारो ओर सुख-सुबिधाओं का अम्बार लगा हुआ है लेकिन जो सुख उस परम अभाव उस जंगल में उसे मिलता था वह आंखों से बहुत दूर निकल गया है या कहें कि समाज की प्रतिबद्धता और रुढियों ने छीन लिया था। आज भी वह स्वयं को विखेरना चाह रहा है। अचानक से छत पर चल रहे फैन ने मानो यह संदेश दिया, बिना भावनाओं के चलना हमारी नियति है। तभी फिर स्मार्ट फोन बज उठा और मशीनों सा इंसान उदास और भारी मन से चल दिया। चलना ही यायावरी नियति। (यायावर)

कुछ किस्से, जो आए मेरे हिस्से

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दुनियादारी अब और नहीं, इसी दुनिया की भीड़ में इंसान अकेला और नितांत अकेला होता जा रहा है। इस दुनिया की भीड़ से एकान्त का कलरव बहुत ही प्रीति कर है। जहां एक ओर स्मृतियों का जंगल उगा हुआ है और दूसरी ओर उस जंगल के में निनाद करते हुए झरने और नदी सा प्रवाह। ऐसा प्रवाह जिसे भविष्य और भवितव्य की चिंता और वर्तमान की परवाह नहीं , और सामाजिक नीति नीति के निर्वहन का बंधन नहीं। एक ऐसा एकान्त जिसमें मन को रवाना आसान तो नहीं ,लेकिन अगर मन रम गया तो दुनिया और दुनियादारी कहां इसकी भी फिक्र नहीं। चलो कोशिश करते हैं मन को उसी दुनिया में रमाने की जहां बेपरवाही और बेपरवाही हो, रमण और एकान्त का रमण ही प्रधान हो। चलो अब किसी और शहर चलते हैं , बहुत हो गए दोस्त और दुश्मन इस शहर में  कुछ नए दोस्त , दुश्मन बनाते हैं  चलो अब किसी और शहर में बसते हैं  कुछ सलीके नए होंगे  कुछ तरीके नए होंगे  कुछ ख्वाब नए होंगे  कुछ अंदाज नए होंगे । ये पुराने अंदाज बदलते हैं चलो अब नए शहर में रहते हैं। मां - तेरी बहुतेरि बातें जेहन में उभर आतीं हैं आज भी यही महसूस होता है। बचपना गया ही नहीं अक्सर तेरी बातें अनसुना कर देता था

Break- Up

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Break Up (I have switched off my feelings. You should also do so) अमन बाबू अब तक अपने आप एकांत के लिए साध चुके थे।रुचि के छोडने के बाद  उस भावदशा और मनोदशा में एक अर्से तक रहे । फिर धीरे-धीरे एकांत और मौन उनके चरित्र में रच गया था। अब वो जरूरी होने पर ही संवाद करते थे। संवेदना के नाम पर कुछ यादें ही थीं जो उनके समग्र बजूद को झकझोरने के पर्याप्त थीं। इसके अलावा सब कुछ पहले से ठीकठाक था। यादों और बातों का विचित्र संयोग है।ये दोनों ही आपके बजूद को स्याह कर देतीं हैं। आज अमन बाबू फिर से स्याह और व्यथित मन के साथ अपने बिखरे हुए और ना समेटे जा सकने वाले बजूद को फिर निहार रहे हैं।आखिर रुचि के जाने के उस बन्द भाव जगत को किसी के दस्तक पर खोले ही क्यूँ? सामने यादें बिखरी हुईं पडीं थी - लिपस्टिक लगी  डिस्पोजल गिलास  और ऐसी ही पलास्टिक की गिलास, आंसू से भिगे और फिलहाल सुखे टिस्सू पेपर और ना जाने कितनी चीजें। बिखरी चीजें तो सिमट जायेंगी मगर .........................। का जाने अब खलिहर अमन बाबू का क्या होगा ?बातें बकवास और पागलोंवाली करता है अब ये अमनवा। Feelings thi Relation nahi.

भाषा और व्यक्तित्व

     भाषा का संसार अपने आप में बहुत ही व्यापक और विस्तृत है । भाषा अपने व्यक्तित्व में बहुआयामी एवं वैविध्यपूर्ण है । भाषा के होने की सबसे बड़ी सार्थकता उसके चेतन होने में है । भाषा अपने स्वरूप में चर है, जो निरंतर समय और समाज के अनुरूप प्रवाहित होती रहती है । आज के तकनीकी और प्रचंड भौतिकता के दौर में भाषा बहुरूपी होती जा रही है ,क्योंकि भाषा एक साथ कई स्तरों पर सक्रिय रहती है । भाषा की यही सक्रियता उसे समय की यात्रा में आगे जाने में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह करती है । समाज, संस्कृति, राजनीति और अर्थतंत्र के मोर्चों पर भाषा का नियोजन एक महत्वपूर्ण भाषा कार्य है । इन सभी आयामों के बीच सामंजस्य स्थापित करते हुए हिंदी भाषा निरंतर वैश्विक स्तर पर अपनी पहचान बनाये हुए है । हिंदी भाषा की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि यह भाषा लोक जगत के अनुभवों का सामंजस्य ई-जगत के बड़ी आसानी से कर रही है । हिंदी वर्तमान में तेजी से विकसित हो रही है ,इसके पीछे सबसे बड़ा कारण हिंदी की उदारता है । भाषिक अधिग्रहण के कारण आज हिंदी में दुनिया भर की भाषाओँ के शब्द अटे पड़े हैं । भाषिक उदारता और निरंतर परिवर्तन की प्रकृ