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असाध्य वीणा कविता की काव्यगत विशेषता.

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 असाध्य वीणा कविता का मूल पाठ असाध्य वीणा कथ्य एवं नामकरण अभिव्यक्ति पक्षः भाषा असाध्य वीणा:कथ्य एवं नामकरण - अज्ञेय द्वारा रचित यह कविता आंगन के पार द्वार काव्य संग्रह में संकलित है असाध्य वीणा की रचना उतराखण्ड के गिरि प्रान्त में जून 1961 के दौरान हुईथी। यह अज्ञेय की पहली लम्बी कविता है, जो जापानी कथा पर आधारित है। इसके मूल में रहस्यवाद और अहं के विसर्जन का कथ्य निहित है।  नामकरण- प्रस्तुत कविता का शीर्षक असाथ्य वीणा है जो स्वयं में कविता को सम्पूर्ण विषयवस्तु का आभास करने में समर्थ  है। कविता के आरम्भ में जब प्रियबंद केशकम्बकी राजा के यहॉं आते हैं, तो राजा इनको आसर देते हैं और राज के संकेत से उनके गण बीणा को लाते हैं और राजा उस बीणा के संबंध में प्रियबंद को बताते है कि बज्रकीर्ति ने इसे किरीटी तरू से अपने पूरे जीवन इसे गढ़ा था। बीणा पूरी होते ही उनकी जीवन लीला समाप्त हो गई। आगे राजा स्पष्ट करते हैं कि इसीवीणा को बजाने में उनकी जाने माने कलाकार भी सफर हूए। इसीलिए इस बीणा को असाध्य बीणा कहा जाने लगा। मेरे हार गये सब जाने माने कलावन्त सबकी विद्या हो गयी अकारथ, दर्प चूर कोई ज्ञानी गुणी

कबीर के काव्य में लोक दर्शन :डॉ0 अमरेन्द्र कुमार श्रीवास्तव

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भारतीय परम्परा में भक्ति की विविध धाराओं का अजस्र प्रवाह अनादि काल से देखने को मिल रहा है। अनेकानेक सांस्कृतिक एवं भौतिक आक्रमणों के बाद भी भारतीय सनातन परम्परा और आध्यात्मिक जीवन संस्कृति का मूल हमारे समाज में आज भी विद्यमान है। सामाजिक विकास एवं चिन्तन की एक निर्धारित प्रक्रिया है। समय के साथ समाज अपने विकास के क्रम में भौतिकता और आध्यात्मिकता की यात्रा तय करता हुआ निरन्तर विकसित होता रहा है। समाज कभी घोर भौतिकता में आकण्ठ डूबता है तो कभी आध्यात्मिक जीवन दर्शन की ओर उन्मुख होता है। आध्यात्मिकता भारतीय परम्परा एवं चेतना का मूल स्वर रहा है। भौतिकता और आध्यात्मिकता के आकर्षण एवं प्रतिकर्षण में हमारा समाज, संस्कृति और सभ्यता विकसित होती चलती है। यदि हम मानव सभ्यता के इतिहास पर दृष्टिपात करें तो हमें यह देखने को मिलता है कि समाज का विकास भौतिकता और आध्यात्मिक के अर्न्तद्वन्द्व से ही गतिमान होता जा रहा है। यदि हम दुनिया की सभी सभ्यताओं पर दृष्टिपात करें तो यह देखने को मिलता है कि वर्तमान समय में जितनी भी सभ्यताएँ अस्तित्व में हैं, उनमें सर्वाधिक प्राचीन भारतीय सभ्यता है। भारतीय सभ्यता के स

मुक्तिबोध की काव्य भाषा एवं परिचय

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मुक्तिबोध :संक्षिप्त परिचय   जन्म : 13 नवंबर 1917, श्योपुर, ग्वालियर (मध्य प्रदेश) भाषा : हिंदी विधाएँ : कहानी, कविता, निबंध, आलोचना, इतिहास कविता संग्रह : चाँद का मुँह टेढ़ा है, भूरी भूरी खाक धूल कहानी संग्रह : काठ का सपना, विपात्र, सतह से उठता आदमी आलोचना : कामायनी : एक पुनर्विचार, नई कविता का आत्मसंघर्ष, नए साहित्य का सौंदर्यशास्त्र, समीक्षा की समस्याएँ, एक साहित्यिक की डायरी इतिहास : भारत : इतिहास और संस्कृति रचनावली : मुक्तिबोध रचनावली (छह खंड) निधन 11 सितंबर 1964, दिल्ली मुख्य कृतियाँ https://www.batenaurbaten.com/2022/05/blog-post_11.html    (मुक्तिबोध की काव्यगत विशेषताओं के लिए देखें ) मुक्तिबोध की काव्य भाषा – मुक्तिबोध की काव्य भाषा उनके कथ्य के अनुरूप ही अपने ढंग की है । इसमें कवि के अनुभूत को संप्रेष्य बनाने की अद्भूत शक्ति है ,और वह जीवन के तथ्यों को उजागर करने में सक्षम है ।अभियक्ति   के समस्त खतरे उठाकर उन्होंने पारंपरिक भाषा शैली के मठों और दुर्गों को तोड़कर अपने अरुण कमल वाले उद्देश्य को भाषिक स्तर पर ही सफलता से प्राप्त किया है । उनकी भाषा में जो वैचित्र्य दिखलाई देत