रैदास का काव्य सृजन :संवेदना और दृष्टि( डॉ0 नरेन्द्र कुमार ,असिस्टेंट प्रोफेसर, हिन्दी विभाग, दीनदयाल उपाध्याय गोरखपुर विश्वविद्यालय, गोरखपुर)
‘‘जाके कुटुंब सब ढोर ढोवंत फिरहिं अजहुँ बानारसी आसपासा। आचार सहित बिप्र करहिं डंडउति तिन तनै रविदास दासानुदासा।।’’ रामानन्द के शिष्य परम्परा में रैदास का विशिष्ट महत्व है। निगुर्ण संत काव्य परम्परा को अपनी विशिष्ट भंगिमा से एक नया अर्थ दिया और संत काव्यधारा का मनुष्यतावादी चेतना से सम्पन्न किया, उन्होंने स्वयं लिखा है कि - नामदेव कबीर तिलोचन सधना सेन तरै। कह रविदास, सुनहु रे संतहु! हरि जिउ तें सबहि सरै।। (चित्र :गूगल से साभार ) संत रैदास का प्रादुर्भाव ऐसे समय में हुआ जब भारतीय समाज का मध्यकाल सामाजिक और धार्मिक दृष्टिकोण से काफी उथल-पुथल के दौर से गुजर रहा था। इस्लामिक शासकों की क्रूरता और धार्मिक कट्टरता से हिन्दू त्रस्त था तो दूसरी तरफ हिन्दू धर्म बिखराव की स्थिति में था। वर्णवादी व्यवस्था की मार से हिन्दू समाज के निचले वर्ण के लोग त्रस्त थे। वे मानवीय स्तर से नीचे गिरा दिये गये थे। ऐसे समय में कई क्रातिकारी संत कवियों का अभ्युदय हुआ जिन्होंने समानतामूलक पदों की रचना कर समाज रूपी माला के बिखरे मोतियों को एकता की डोर में पिरोने का काम किया। वैसे संत जिन्होंने अपने सामाजिक क्रांतिकारी