कविताई
चुप रहता हूँ, जब भाव मन में समाते नहीं। रुक जाता हूँ, जब पांव ठहरते नहीं। हंस लेता हूँ जब आंसू रुकते नहीं। गुनगुना लेता हूँ, जब भीड़ में तन्हा होता हूँ। खुश होता हूँ, जब कोई विकार मन में होता नहीं। चुप रहने दो। अकेले ही फासला खत्म कर लूंगा। खुद से। (अमरेन्द्र) चलो गजल की दुकान खरीदते हैं कुछ साथ गुजारे हुए सुबह और शाम खरीदते हैं चलो अब बस भी करो कुछ बिखरे हुए ख्वाब और कुछ बिछुडे हुए दोस्तों के एहसास खरीदते हैं। बिक सी गयी है दुनिया और एहसास। चलो अब अच्छा खरीददार बनते हैं। (अमरेंद्र)