सम्राज्ञी का नैवेद्य-दान :अज्ञेय
अज्ञेय का व्यक्तित्व एवं कृतित्व हिन्दी साहित्य की अमूल्य निधि है। हे महाबुद्ध! मैं मंदिर में आयी हूँ रीते हाथ: फूल मैं ला न सकी। औरों का संग्रह तेरे योग्य न होता। जो मुझे सुनाती जीवन के विह्वल सुख-क्षण का गीत- खोलती रूप-जगत् के द्वार जहाँ तेरी करुणा बुनती रहती है भव के सपनों, क्षण के आनंदों के रह: सूत्र अविराम- उस भोली मुग्धा को कँपती डाली से विलगा न सकी। जो कली खिलेगी जहाँ, खिली, जो फूल जहाँ है, जो भी सुख जिस भी डाली पर हुआ पल्लवित, पुलकित, मैं उसे वहीं पर अक्षत, अनाघ्रात, अस्पृष्ट, अनाविल, हे महाबुद्ध! अर्पित करती हूँ तुझे। वहीं-वहीं प्रत्येक भरे प्याला जीवन का, वहीं-वहीं नैवेद्य चढ़ा अपने सुंदर आनंद-निमिष का, तेरा हो, हे विगतागत के, वर्तमान के, पद्मकोश! हे महाबुद्ध!