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मैं वह धनु हूँ

मैं वह धनु हूँ,  जिसे साधने में प्रत्यंचा टूट गई है। कथाकार ,कवि एवं गम्भीर चिन्तक अज्ञेय मेरे भाव जगत के बहुत निकट हैं। कारण तो मेरे अन्तर्यामी ही जानते होंगे। फिर भी बहुत कुछ हमारे जीवन का हमारे प्रारब्ध और ना जाने कितने जन्मों का संचित कर्म होता है, शायद मेरी इस बात से कम लोग ही इतेफाक रखते हों ,लेकिन मैं व्यक्तिगत रुप से यही मानता हूँ। हम अपने जीवन काल में बहुत से लोगों से मिलते जुलते हैं,लेकिन कुछ लोगों हम पहली दूसरी मुलाकात में ही जान जाते हैं कि इस व्यक्ति के साथ हमारी अच्छी निभेगी। ऐसी ही हमारी अज्ञेय जी के रचना संसार के साथ निभ रहा है। ना जाने क्यूँ अज्ञेय मुझे कुछ ज्यादा ही खींचते हैं अपनी ओर ।  स्खलित हुआ है बाण , यद्यपि ध्वनि, दिगदिगन्त में फूट गयी है-- मैं वह धनु हूँ की ये पंक्ति हमें जीवन में सब कुछ समय पर छोड देने की सूझ देता है। प्रत्यंचा का टूटना और बाण का स्खलित होना और फिर ध्वनि का  दिगदिगन्त में गूंजायमान होना अपने आप में अलग ध्वन्यार्थ प्रस्तुत करता है । जिसे कवि आगे की पंक्तियों में हमारे सम्मुख रखता है - प्रलय-स्वर है वह, या है बस मेरी लज्जाजनक पराजय, या कि सफलता

साम्राज्ञी का नैवेद्य दान:अज्ञेय

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यह कविता जापानी लोक में प्रचलित एक कथा को आधार बना कर लिखी गयी है।बुद्ध हो जाना अपने आप में विशिष्ट है, बुद्ध से प्रेरित होकर इस कविता की जो भाव भूमि अज्ञेय ने तैयार की है वह अनुकरणीय है। ऐसी पूजा जिसमें फूल को क्षति पहुंचाए अपने प्रभु को अर्पित करने का भाव देखने को मिलता है रानी बुद्ध के मंदिर में खाली हाथ आती है और कहती है की हम उस कली को डाली से अलग ना कर सके, और उसे वहीं पर बिना क्षति पहुंचाए वहीं से आप को समर्पित करती हूँ। कविता की पंक्तियां इस प्रकार हैं हे महाबुद्ध!  मैं मंदिर में आई हूँ  रीते हाथ :  फूल मैं ला न सकी।  औरों का संग्रह  तेरे योग्य न होता।  जो मुझे सुनाती  जीवन के विह्वल सुख-क्षण का गीत—  खोलता रूप-जगत् के द्वार जहाँ  तेरी करुणा  बुनती रहती है  भव के सपनों, क्षण के आनंदों के  रह:सूत्र अविराम—  उस भोली मुग्धा को  कँपती  डाली से विलगा न सकी।  जो कली खिलेगी जहाँ, खिली,  जो फूल जहाँ है,  जो भी सुख  जिस भी डाली पर  हुआ पल्लवित, पुलकित,  मैं उसे वहीं पर  अक्षत, अनाघ्रात, अस्पृष्ट, अनाविल,  हे महाबुद्ध!  अर्पित करती हूँ तुझे।  वहीं-वहीं प्रत्येक भरे प्याला जीवन का,  वहीं-

असाध्य वीणा :अज्ञेय

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अज्ञेय हिन्दी प्रयोगवादी काव्य परम्परा के प्रवर्तक कवि के रूप में सर्व-स्वीकृत हैं । 1943 में आपने तार सप्तक का प्रकाशन कर हिन्दी साहित्य में एक नए तरह की संवेदना और शिल्प का विकास किया । प्रयोगवाद और प्रयोग के सन्दर्भ में अज्ञेय ने स्पष्टीकरण भी दिया लेकिन यह नाम चल पड़ा और चल पड़ने के कारण प्रयोगवाद काव्य परम्परा आज भी अपने प्रयोगों के लिए जानी एवं मानी जाती है ।अज्ञेय सिर्फ कवि या संपादक ही नहीं वरन एक बहुआयामी व्यक्ति हैं । आप कवि, आलोचक, उपन्यासकार ,संपादक होने के साथ-साथ एक क्रांतिकारी भी हैं । आपने स्वतंत्रता आन्दोलन में सक्रिय सहभागिता भी की और देश को पराधीनता से मुक्ति के निरंतर संघर्षरत रहे । मुक्ति आपके व्यक्तित्व का अभिन्न अंग है । मुक्ति आपके व्यक्तित्व और कृतित्व का अभिन्न हिस्सा है ,कविता को आपने नए प्रतिमानों से समृद्ध करने के लिए जो उद्यम किया वह विशिष्ट है । इसी मुक्ति का स्वर आपकी रचनाओं में देखने को बराबर देखने को मिलता है । हरी घास पर क्षण भर कविता में उन्मुक्त और स्व से आच्छादित भाव को प्रस्तुत किया है । व्यक्ति की स्वतंत्रता की आकांक्षा अच्छी कुंठा रहित इकाई ,मैं व

अज्ञेय की काव्यगत विशेषताएँ

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सन् 1932 में ब्रिटेन में माइकेल राबर्टस ने न्यू सिगनेचर्स नामक एक काव्य संग्रह प्रकाशित किया था। इसमें आडेन, एम्पसन, जान लेहमन, स्पेन्डर आदि की रचनांए संग्रहीत थीं। इन कवियों ने परम्परागत काव्य पद्धतियों को अधूरा समझकर नई दिशाओं की खोज की; पुराने के प्रति असन्तोष तथा नए के अन्वेषण में सभी संलग्न थे। अज्ञेय द्वारा प्रकाशित तार सप्तक 1943  की भूमिका में न्यू सिग्नेचर्स की प्रतिध्वनि सुनाई पड़ती है। 1947 में अज्ञेय द्वारा प्रकाशित ‘प्रतीक’ पत्र इस काव्यान्दोलन को पुष्ट करता है। https://youtu.be/u-AAd-8Ud1M प्रयोगवाद शब्द का  प्रयोग सर्वप्रथम आचार्य नन्द दुलारे बाजपेयी ने अपने निबन्ध प्रयोगवादी रचनाएं में किया। इस निबन्ध में मुख्यतः तार सप्तक की समीक्षा की गई है, जिसमें उन्होने लिखा है कि पिछले कुछ समय से हिन्दी काव्य क्षेत्र में कुछ रचनाएं हो रही है, जिन्हें किसी सुलभ शब्द के अभाव में प्रयोगवादी रचना कहा जा सकता है। दूसरा सप्तक की भूमिका में अज्ञेय ने बाजपेयी का उत्तर देते हुए तार सप्तक की रचनाओं को प्रयोगवादी कहना स्वीकार नहीं किया है। प्रयोग का कोईवाद नहीं हैं। अतः हमें प्रयोगवादी कहना उ

‘रोज़’ कहानी में व्याप्त संवेदनात्मक दृष्टि : श्रीमती कुसुम पाण्डेय (स्वतंत्र लेखिका)

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  मनोवैज्ञानिक कहानी के पुरोधा सच्चिदानंद हीरानंद वात्सायन “ अज्ञेय “ जैनेंद्र की पीढ़ी के रचनाकार हैं। इनका जन्म सन 1911 में जिला गोरखपुर के कसया नामक स्थान पर हुआ था। यह बहुमुखी प्रतिभा संपन्न कवि , उपन्यासकार , कहानीकार एवं आलोचक जी ने विभिन्न समाचार पत्रों का संपादन किया था जिसमें दिनमान , प्रतीक (1947) एवरी मैंस (1972) क्रांतिकारी आंदोलन से भी इनका गहरा जुड़ाव था। सन 1930 में गिरफ्तारी के दौरान यह 4 वर्ष तक कैद एवं 2 वर्ष तक नजरबंद भी रहे। अज्ञेय ने लगभग 67 कहानियां लिखी। जिनमें 23 कहानियों को विशेष प्रसिध्दि भी प्राप्त हुई अपनी सफल कहानियों के माध्यम से लेखक कुछ नए दिशा संकेत भी दिए हैं। अज्ञेय की कहानी कला में बौद्धिकता एवं मनोभावों का गहरा पुट विद्यमान है , मनोवैज्ञानिकता सुगम संगीत ना होकर शास्त्रीय संगीत का है। अज्ञेय की कहानियों का विषय भले ही बासी हो गया हो किंतु उसकी उपयोगिता आज भी बनी हुई है। अज्ञेय ने अपनी साहित्यिक यात्रा कहानी ले