भारतीय नागरिक के रूप में हमारा दायित्व
स्वाधीनता के लगभग पचहतर वर्ष होने को हैं ,इतने वर्षों के बाद भी आजादी के मायने और अपेक्षाओं को हम समाज के अंतिम व्यक्ति तक पहुचाने में असमर्थ हैं । शिक्षा ,स्वास्थ ,सुरक्षा और न्याय जैसी व्यवस्था सबको कितनी सर्वसुलभ है, यह प्रश्नों के घेरे में है ।इस स्थिति के लिए हम प्रायः शासन सत्ता और व्यवस्थाओं को दोष देकर अपने दायित्व की इतिश्री कर लेते हैं । किसी भी राष्ट्र के निरंतर उत्थान में वहां के नागरिकों का राष्ट्रिय चरित्र होना एक मूलभूत आवश्यकता है ।आज हमारे देश में राष्ट्रिय और सामाजिक चरित्र का ना होना एक बड़ा कारण है , जिसके कारण समाज का अंतिम व्यक्ति मौलिक सुविधाओं से दूर है । क्या ,हम केवल व्यवस्थापिका और उससे जुड़े लोगों को दोष देकर मुक्त हो सकते हैं ? क्या हम कार्यपालिका और न्यायपालिका की कार्यप्रणाली को प्रश्नांकित करके मुक्त हो जायेंगे ?- नहीं । समस्या हमारे राष्ट्रिय चरित्र की है । जिसके कारण भ्रष्टाचार फल-फूल रहा है । अपवादों को छोड़ दें तो लगभग हर व्यक्ति उस हद तक भ्रष्ट है , जिस हद तक वह भ्रष्ट हो सकता है । क्या नागरिक ? क्या नेता ?क्या ब्यूरोक्रेट या व्यस्था से जुड़े अन्य लोग