Posts

Showing posts with the label कविता

तेरे बूते का नही: प्रीति श्रीवास्तव

Image
तेरे बूते का नही तू इश्क समझे मेरे दिल में है मैं तो इश्क करूंगी तुमसे  तेरे बूते का नही तू खुशबू पहचाने मेरे दिल मे है बयार से पहचान लूं तूझे तेरे बूते का नही तू नजर मिलाए मेरे दिल में हैं मै अर्थी तक निहारूंगी तूझे तेरे बूते का नही तू याद भी रखे मुझे मेरे दिल में है जन्मों तक पुकारूंगी तूझे तेरे बूते का नही मैं कहीं भी रहूं तूझमे मेरे दिल में है बस तू ही तू रहे मुझमे # बस यूं ही प्रीति  (फोटो फेसबुक गैलरी) अकेले हो या अकेलापन पसंद है तुम्हे भीड़ ना सही  हमें तो साथ लेलो ना बोलेंगे  ना टोकेंगे बस साथ चलेंगे मत कहना  नही डरता मैं रास्तों से अरे रास्ते डरतें हैं  अकेले चलने वालों से माना कि अंधेरों से डरते नही तुम पर जुगनुओं को राह दिखाने तो दो कदमों के नीचे  ना आ जाए कोई  बस इतना साथ निभाने तो दो इक ही राह के मुसाफिर फिर क्यों चले अकेले डर रहे हो तुम  पास साथी ना कोई आवे कहीं हिल ना जाएँ होठ तेरे खुल ना जाए कोई भेद दिल का चुप रह लेना ना मेरे साथी बस साथ मुझको लेले सब हाल मुझे पता है तु बोलना ना मुख से मैं मौन ही सुनुगी तुम मौन ही सुनाना बस साथ मुझको लेले बस साथ मुझको लेले।

साम्राज्ञी का नैवेद्य दान:अज्ञेय

Image
यह कविता जापानी लोक में प्रचलित एक कथा को आधार बना कर लिखी गयी है।बुद्ध हो जाना अपने आप में विशिष्ट है, बुद्ध से प्रेरित होकर इस कविता की जो भाव भूमि अज्ञेय ने तैयार की है वह अनुकरणीय है। ऐसी पूजा जिसमें फूल को क्षति पहुंचाए अपने प्रभु को अर्पित करने का भाव देखने को मिलता है रानी बुद्ध के मंदिर में खाली हाथ आती है और कहती है की हम उस कली को डाली से अलग ना कर सके, और उसे वहीं पर बिना क्षति पहुंचाए वहीं से आप को समर्पित करती हूँ। कविता की पंक्तियां इस प्रकार हैं हे महाबुद्ध!  मैं मंदिर में आई हूँ  रीते हाथ :  फूल मैं ला न सकी।  औरों का संग्रह  तेरे योग्य न होता।  जो मुझे सुनाती  जीवन के विह्वल सुख-क्षण का गीत—  खोलता रूप-जगत् के द्वार जहाँ  तेरी करुणा  बुनती रहती है  भव के सपनों, क्षण के आनंदों के  रह:सूत्र अविराम—  उस भोली मुग्धा को  कँपती  डाली से विलगा न सकी।  जो कली खिलेगी जहाँ, खिली,  जो फूल जहाँ है,  जो भी सुख  जिस भी डाली पर  हुआ पल्लवित, पुलकित,  मैं उसे वहीं पर  अक्षत, अनाघ्रात, अस्पृष्ट, अनाविल,  हे महाबुद्ध!  अर्पित करती हूँ तुझे।  वहीं-वहीं प्रत्येक भरे प्याला जीवन का,  वहीं-

हरी घास पर क्षण भर : उन्मुक्त मन और प्रेम की जीवन्तता का आख्यान

  अज्ञेय हिन्दी प्रयोगवादी काव्य परम्परा के प्रवर्तक कवि के रूप में सर्व-स्वीकृत हैं । 1943 में आपने तार सप्तक का प्रकाशन कर हिन्दी साहित्य में एक नए तरह की संवेदना और शिल्प का विकास किया । प्रयोगवाद और प्रयोग के सन्दर्भ में अज्ञेय ने स्पष्टीकरण भी दिया लेकिन यह नाम चल पड़ा और चल पड़ने के कारण प्रयोगवाद काव्य परम्परा आज भी अपने प्रयोगों के लिए जानी एवं मानी जाती है ।अज्ञेय सिर्फ कवि या संपादक ही नहीं वरन एक बहुआयामी व्यक्ति हैं । आप कवि, आलोचक, उपन्यासकार ,संपादक होने के साथ-साथ एक क्रांतिकारी भी हैं । आपने स्वतंत्रता आन्दोलन में सक्रिय सहभागिता भी की और देश को पराधीनता से मुक्ति के निरंतर संघर्षरत रहे । मुक्ति आपके व्यक्तित्व का अभिन्न अंग है । मुक्ति आपके व्यक्तित्व और कृतित्व का अभिन्न हिस्सा है ,कविता को आपने नए प्रतिमानों से समृद्ध करने के लिए जो उद्यम किया वह विशिष्ट है । इसी मुक्ति का स्वर आपकी रचनाओं में देखने को बराबर देखने को मिलता है । हरी घास पर क्षण भर कविता में उन्मुक्त और स्व से आच्छादित भाव को प्रस्तुत किया है । व्यक्ति की स्वतंत्रता की आकांक्षा अच्छी कुंठा रहित इकाई ,