सूरदास का वात्सल्य मनोभाव
सूरदास हिन्दी के एक ऐसे कवि के रुप में ख्यतिलब्ध हैं जिन्होंने वात्सल्य एवं श्रृंगार का बहुत ही सूक्ष्म एवं व्यापक चित्रण किया है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल का मानना है कि वो वात्सल्य और श्रृंगार का कोना कोना झांक आये हैं। यह सच भी है। गोकुल में रहते हुए कृष्ण ने जो भी बाल लीला की है उसे सूरदास ने बहुत ही सूक्ष्म एवं यथार्थ पूर्ण रुप में प्रस्तुत किया है। घुटुरुन चलत का पद हो या यशोदा हरि को पालने झुलावें पद इन सब जो अंकन है उसमें अवगाहन करके हमारा मन आह्लादित हो उठता है। मातृ ह्दय की ममता हो या बाल मन का हठ और तर्क दोनों बेजोड अंकन सूरदास के सूरसागर में देखा जा सकता है। वास्तव में सूरसागर सागर से कम नहीं है। वात्सल्य मनोभाव एक ऐसा मनोभाव है जिससे रुबरु होते हुए हम सब कुछ भूलकर एक बच्चे के ह्दय से तादात्म्य स्थापित कर लेते हैं। जसोदा हरि पालनैं झुलावै। हलरावै, दुलराइ मल्हावै, जोइ-जोइ कछु गावै॥ मेरे लाल कौं आउ निंदरिया, काहैं न आनि सुवावै। तू काहैं नहिं बेगहिं आवै, तोकौं कान्ह बुलावै॥ कबहुँ पलक हरि मूँदि लेत हैं, कबहुँ अधर फरकावै। सोवत जानि मौन ह्वै कै रहि, करि-करि सैन बतावै॥ इहिं अंतर