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Showing posts from 2023

आदणीय सच्चिदानन्द जोशी जी के फेसबुक से सभार।

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आदत के गुलाम: रोज की तरह आज भी जब मैं अपनी साइकिल लेकर कॉलोनी की सड़क का चक्कर लगाने निकला तो मन में खयाल आया  कि क्यों न आज सीधी तरफ से चक्कर लगाया जाए। सीधा यानी क्लॉक वाइस। रोज मैं साइकिल से कॉलोनी की घुमाव दार सड़क के तीन चार चक्कर लगाता हूं। घर से निकलते ही बाईं तरफ को साइकिल मोड़ लेता हूं और फिर बाईं ओर से ही चक्कर लगा लेता हूं यानी एंटी क्लॉक वाइस।मेरा ये बताने का उद्देश्य कतई नहीं कि आप मुझे फिटनेस फ्रीक समझें। फिर भी अगर आप ऐसा समझ लेंगे तो मैं तो ऐसा चाहता ही हूं। आज जब साइकिल दाहिनी ओर मोडी और सड़क पर घूमने लगा तो ऐसा लगने लगा मानो किसी दूसरी जगह आ गया हूं। कॉलोनी वही , रास्ता वही , साइकिल भी वही आने जाने वाले भी ज्यादातर वही और साइकिल चलाने वाला मैं भी वही। लेकिन ऐसा लगा कि किसी नई जगह पर आ गया हूं।। जहां मुझे रोज ढलान मिलती थी वहां चढ़ाई आ गई। जहां चढ़ाई थी वहां साइकिल सरपट दौड़ने लगी। जहां गड्ढे थे वहां सड़क चिकनी थी और जहां सड़क ठीक ठाक थी वहां गड्ढे हो रहे थे। ये भी समझ में आया कि  बाई ओर से घूमने में सभी मोड़ आसान थे और अब हर बार मोड़ने के पहले दो तीन बार पीछे देखना पड

स्वेच्छा

 ♥ *समर्पण का अर्थ है*  ♥ स्वेच्छा से, अपनी मर्जी से, तुम पर कोई दबाव न था, कोई जोर न था, कोई कह नहीं रहा था, कोई तुम्हे किसी तरह से मजबूर नहीं कर रहा था, तुम्हारा प्रेम था, प्रेम में तुम झुके, तो समर्पण, प्रेम में ही समर्पण हो सकता है। और जहाँ प्रेम है, अगर समर्पण न हो तो समझ लेना प्रेम नहीं है। आमतौर से लोग यह कोशिश करते हैं कि प्रेम के नाम पर समर्पण करवाते हैं। तुम्हें मुझसे प्रेम है, करो समर्पण! अगर प्रेम है तो समर्पण होगा ही, करवाने की जरूरत नहीं पडेगी।  बाप कहता है कि मैं तुम्हारा बाप हूँ तुम बेटे हो, मुझे प्रेम करते हो? तो करो समर्पण। पति कहता है पत्नी से कि सुनो, तुम मुझे प्रेम करती हो? तो करो समर्पण। प्रेम है तो समर्पण हो ही गया, करवाने की कोई जरूरत नहीं है। जो समर्पण करवाना पड़े, वह समर्पण ही नही अधिपत्य है। जो हो जाए सरलता से, जो हो जाए सहजता से! वही समर्पण है। प्रेम तभी घटता है जब समर्पण घटे, प्रेम और समर्पण एक दूसरे के पूरक है। प्रेम के बिना कैसा समर्पण! और समर्पण न हो तो कैसा प्रेम.........😍 🌹 _*ओशो*_  🌹 ❣❣❣❣❣❣❣❣❣❣❣

समर्पण:ओशो

सुना है मैंने कि अकबर यमुना के दर्शन के लिए आया था। यमुना के तट पर जो आदमी उसे दर्शन कराने ले गया था,वह उस तट का बड़ा पुजारी, पुरोहित था। निश्चित ही, गांव के लोगों में सभी को प्रतिस्पर्धा थी कि कौन अकबर को यमुना के तीर्थ का दर्शन कराए। जो भी कराएगा, न मालूम अकबर कितना पुरस्कार उसे देगा! जो आदमी चुना गया, वहधन्यभागी था। और सारे लोगर् ईष्या से भर गए थे। भारी भीड़ इकट्ठी हो गई थी। अकबर जब दर्शन कर चुका और सारी बात समझ चुका, तो उसने सड़क पर पड़ी हुई एक फूटी कौड़ी उठा कर पुरस्कार दिया उस ब्राह्मण को, जिसने यह सब दर्शन कराया था। उस ब्राह्मण ने सिर से लगाया, मुट्ठी बंद कर ली। कोई देख नहीं पाया। अकबर ने जाना कि फूटी कौड़ी है और उस ब्राह्मण ने जाना कि फूटी कौड़ी है। उसने मुट्ठी बंद कर ली, सिर झुका कर नमस्कार किया, धन्यवाद दिया, आशीर्वाद दिया। सारे गांव में मुसीबत हो गई कि पता नहीं, अकबर क्या भेंट कर गया है। जरूर कोई बहुत बड़ी चीज भेंट कर गया है। और जो भी उस ब्राह्मण से पूछने लगा, उसने कहा कि अकबर ऐसी चीज भेंट कर गया है कि जन्मों-जन्मों तक मेरे घर के लोग खर्च करें, तो भी खर्च न कर पाएंगे। फूटी कौड़ी को ख

ओशो

सुना है मैंने कि अकबर यमुना के दर्शन के लिए आया था। यमुना के तट पर जो आदमी उसे दर्शन कराने ले गया था,वह उस तट का बड़ा पुजारी, पुरोहित था। निश्चित ही, गांव के लोगों में सभी को प्रतिस्पर्धा थी कि कौन अकबर को यमुना के तीर्थ का दर्शन कराए। जो भी कराएगा, न मालूम अकबर कितना पुरस्कार उसे देगा! जो आदमी चुना गया, वहधन्यभागी था। और सारे लोगर् ईष्या से भर गए थे। भारी भीड़ इकट्ठी हो गई थी। अकबर जब दर्शन कर चुका और सारी बात समझ चुका, तो उसने सड़क पर पड़ी हुई एक फूटी कौड़ी उठा कर पुरस्कार दिया उस ब्राह्मण को, जिसने यह सब दर्शन कराया था। उस ब्राह्मण ने सिर से लगाया, मुट्ठी बंद कर ली। कोई देख नहीं पाया। अकबर ने जाना कि फूटी कौड़ी है और उस ब्राह्मण ने जाना कि फूटी कौड़ी है। उसने मुट्ठी बंद कर ली, सिर झुका कर नमस्कार किया, धन्यवाद दिया, आशीर्वाद दिया। सारे गांव में मुसीबत हो गई कि पता नहीं, अकबर क्या भेंट कर गया है। जरूर कोई बहुत बड़ी चीज भेंट कर गया है। और जो भी उस ब्राह्मण से पूछने लगा, उसने कहा कि अकबर ऐसी चीज भेंट कर गया है कि जन्मों-जन्मों तक मेरे घर के लोग खर्च करें, तो भी खर्च न कर पाएंगे। फूटी कौड़ी को ख

ओशो वचन

एक राजा एक रथ से गुजरता था—जंगल का रास्ता, शिकार से लौटता था। राह पर उसने एक गरीब आदमी को, एक भिखारी को एक बड़ी पोटली—बूढ़ा आदमी और बड़ा बोझ लिए हुए चलते देखा। उसे दया आ गयी। उसने रथ रुकवाया और कहा भिखारी को कि तू बैठ जा, कहां तुझे उतरना है हम उतार देंगे। भिखारी बैठ तो गया, डरता, सकुचाता—रथ, राजा! अपनी आंखों पर भरोसा नहीं आता! कहीं छू न जाए राजा को! कहीं रथ पर ज्यादा बोझ न पड़ जाए! ऐसा संकुचित, घबड़ाया, बेचैन—सच में तो डरा हुआ बैठ गया, क्योंकि इनकार कैसे करे? मन तो यह था कि कह दूं कि नहीं—नहीं, मैं और रथ पर! मुझ जैसे गंदे आदमी को, चीथड़े जैसे कपड़े, इस रथ पर बैठाके, शोभा नहीं देती। लेकिन राजा की बात इनकार भी कैसे करो? बुरा न मान जाए, अपमान न हो जाए। तो बैठ तो गया, बड़े डरे—डरे मन से, और पोटली सिर से न उतारी। राजा ने कहा—मेरे भाई! पोटली तेरे सिर पर भारी है इसीलिए तो तुझे मैंने रथ में बिठाया, तू पोटली सिर से नीचे क्यों नहीं उतारना? उसने कहा—आप भी क्या कहते हैं? मैं ही बैठा हूं यही क्या कम है, और पोटली का वजन भी रथ पर डालूं! मुझे बैठा लिया, यही कम सौभाग्य मेरा! नहीं—नहीं, यह मुझसे न हो सकेगा; पोट

शपथपत्र

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प्रमाणित करते हुये घोषणा करता/करती हूँ कि आवेदन पत्र में दिये गये विवरण / तथ्य मेरी व्यक्तिगत जानकारी एवं विश्वास में शुद्ध एवं सत्य हैं। मैने उसमें कुछ भी छुपाया नहीं है। मैं मिथ्या विवरणों / तथ्यों को देने के परिणामों से भली-भाँति अवगत हूँ । यदि आवेदन पत्र में दिये गये कोई विवरण / तथ्य मिथ्या पाये जाते हैं, तो मैं, मेरे विरूद्ध भा0द0वि0, 1960 की धारा-199 व 200 एवं प्रभावी किसी अन्य विधि के अंतर्गत अभियोजन एवं दण्ड के लिये, स्वयं उत्तरदायी होऊँगा / होऊँगी। मैं यह भी घोषणा करता/करती हूँ कि यदि मेरे द्वारा की गई दस्तावेजों का स्व-प्रमाणीकरण या घोषणा गलत पायी जाती है या मेरे द्वारा गलत दस्तावेजो का स्व प्रमाणीकरण किया जाता गया है, तो मेरे द्वारा प्राप्त की गयी सभी प्रकार की सुविधायें तत्काल वापस ले ली जाऐं।

ओशो वचन

 आज्ञा का पालन ?   जिस आदमी ने हिरोशिमा पर ऐटम बम गिराया और एक ऐटम बम के द्वारा एक लाख आदमी दस मिनिट के भीतर राख हो गए, वह वापिस लौट कर सो गया। जब सुबह उससे पत्रकारों ने पूछा कि तुम रात सो सके? उसने कहा, क्यों? खूब गहरी नींद सोया! आज्ञा पूरी कर दी, बात खत्म हो गई। इससे मेरा लेना—देना ही क्या है कि कितने लोग मरे कि नहीं मरे? यह तो जिन्होंने पॉलिसी बनाई, वे जानें; मेरा क्या? मुझे तो कहा गया कि जाओ, बम गिरा दो फलां जगह—मैंने गिरा दिया। काम पूरा हो गया, मैं निश्चित भाव से आ कर सो गया। एक लाख आदमी मर जाएं तुम्हारे हाथ से गिराए बम से, और तुम्हें रात नींद आ जाए— थोड़ा सोचो, मतलब क्या हुआ? एक लाख आदमी! राख हो गए! इनमें से तुम किसी को जानते नहीं, किसी ने तुम्हारा कुछ कभी बिगाड़ा नहीं, तुमसे किसी का कोई झगड़ा नहीं। इनमें छोटे बच्चे थे जो अभी दूध पीते थे, जिन्होंने किसी का कुछ बिगाड़ना भी चाहा हो तो बिगाड़ नहीं सकते थे। इनमें गर्भ में पड़े हुए बच्चे थे, मां के गर्भ में थे, अभी पैदा भी न हुए थे—उन्होंने तो कैसे किसी का क्या बिगाड़ा होगा! एक छोटी बच्ची अपना होमवर्क करने सीढ़ियां चढ़ कर ऊपर जा रही थी, वह वही

कविताई

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चुप रहता हूँ, जब भाव मन में समाते नहीं। रुक जाता हूँ, जब पांव ठहरते नहीं। हंस लेता हूँ जब आंसू रुकते नहीं। गुनगुना लेता हूँ, जब भीड़ में तन्हा होता हूँ। खुश होता हूँ, जब कोई विकार मन में होता नहीं। चुप रहने दो। अकेले ही फासला खत्म कर लूंगा। खुद से। (अमरेन्द्र) चलो गजल की दुकान खरीदते हैं कुछ साथ गुजारे हुए सुबह और शाम खरीदते हैं चलो अब बस भी करो  कुछ बिखरे हुए ख्वाब और  कुछ बिछुडे हुए दोस्तों के  एहसास खरीदते हैं। बिक सी गयी है दुनिया और एहसास। चलो अब अच्छा खरीददार  बनते हैं। (अमरेंद्र)

प्रवचन

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🌞🌞🌞🌹🌹🌞🌞🌞 एक संत था,  बहुत वृद्ध और बहुत प्रसिद्ध। दूर—दूर से लोग जिज्ञासा लेकर आते, लेकिन वह सदा चुप ही रहता। हा, कभी—कभी अपने डंडे से वह रेत पर जरूर कुछ लिख देता था। कोई बहुत पूछता, कोई बहुत ही जिज्ञासा उठाता, तो लिख देता—संतोषी सुखी; भागो मत, जागो; सोच मत, खो; मिट और पा, इस तरह के छोटे —छोटे वचन। जिज्ञासुओं को इससे तृप्ति न होती, और प्यास बढ जाती। वे शास्त्रीय निर्वचन चाहते थे। वे विस्तारपूर्ण उत्तर चाहते थे। और उनकी समझ में न आता था कि यह परम संत बुद्धत्व को उपलब्ध होकर भी उनके प्रश्नों का उत्तर सीधे —सीधे क्यों नहीं देता। यह भी क्या बात है कि रेत पर डंडे से उलटबासिया लिखना! हम पूछते हैं, सीधा—सीधा समझा दो। वे चाहते थे कि जैसे और महात्मा जप —तप, यज्ञ —याश, मंत्र —तंत्र, विधि —विधान देते थे, वह भी दे। लेकिन वह मुस्काता, चुप रहता, ज्यादा से ज्यादा फिर कोई उसे खोदता—बिदीरता तो वह फिर लिख देता—संतोषी सदा सुखी, भागो मत, जागो, बस उसके बंधे —बंधाये शब्द थे। बड़े —बड़े पंडित आए और थक गये और हार गये और उदास होकर चले गये, कोई उसे बोलने को राजी न कर सका। कोई उसे ज्यादा विस्ता

प्रवचन

🌞🌞🌞🌹🌹🌞🌞🌞 *मनोवैज्ञानिक कहते हैं, दो तरह के लोग होते हैं। एक तो वे लोग, सुबह जिनकी चेतना बहुत प्रखर होती है और सांझ होते-होते धूमिल हो जाती है। दूसरे वे लोग, सुबह जिनकी चेतना धूमिल होती है और सांझ होते-होते प्रखर हो जाती है।*  इनमें बड़ा फासला होगा। इनमें ताल-मेल बिठाना मुश्किल होता है। जिस व्यक्ति की चेतना सजग होती है, वह जल्दी उठ आएगा। ब्रह्ममुहूर्त में उठ आएगा। जितना जल्दी सुबह उठेगा, उतना दिन-भर ताजा रहेगा! उसके जीवन की सबसे गहन घड़ी सुबह ही होनेवाली है। सूरज को उगते देखेगा, पक्षियों के गीत सुनेगा, वृक्षों की हरियाली देखेगा। प्रभात बाहर ही नहीं होता, उसके भीतर भी होता है। और वह इतना जाग्रत होता है सुबह कि वह उस घड़ी को चूक नहीं सकता। ऐसे ही लोगों ने ब्रह्ममुहूर्त में उठने की बात कही होगी। लेकिन कुछ लोग हैं, जिनको अगर तुम सुबह जल्दी उठा लो, तुमने उनका दिनभर मार दिया, दिन-भर खराब कर दिया। फिर वे दिन-भर उदास और खिन्न मन रहेंगे। उखड़े-उखड़े, टूटे-टूटे, बिखरे-बिखरे, खंड-खंड। दिन-भर उन्हें लगेगा कि कुछ चूक गए, कहीं कुछ कमी रह गयी! सांझ होते-होते ऐसे लोग प्रखर होते हैं चैतन्य में। ऐसे ह

निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल (डॉ बसुन्धरा उपाध्याय,सहायक प्राध्यापक, हिंदी विभाग, लक्ष्मण सिंह महर परिसर पिथौरागढ़ उत्तराखंड)

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भारतवर्ष बहुभाषी देश है।भाषा की दृष्टि से भारत बहुत समृद्ध देश माना जाता है।भाषा किसी भी राष्ट्र और समाज की आवाज नहीं होती बल्कि यह तो उस देश की संस्कृति को जीवित रखती है।यहाँ हिंदी के अलावा और तमाम भाषाएं हैं।कोई भी भाषा स्वतंत्र होकर आगे बढ़ ही नहीं सकती।हिंदी का मूल संस्कृत है। कोई भी भाषा जब विस्तार कर लेती है और उस विस्तार करने के सहयोग के क्रम  में अपने साथ अपनी सहयोगी बोलियों (कटुम्ब) को भी साथ लेकर चलती है। आज के समय में किसी भी भाषा के लिये साहित्य आवश्यक नहीँ है। अगर उस भाषा को जीवित रखना है तो उस भाषा को रोजगार परख बनाइये। नहीं तो वह धीरे धीरे सिमट जाएगी। किसी भाषा को हम कई कारणों से सीखते हैं-सबसे बड़ा कारण है कि जीविकोपार्जन का। अतः हिंदी में भी रोजगार के अवसर हों। आज हिंदी भाषा को वैश्विक रूप प्राप्त हो गया है। सरकार पहल भी कर रही है।हिंदी में आज कई तरह के रोजगार मिल रहे हैं।जहाँ पहले कभी अंग्रेजी में ही कार्य होते थे आज वहाँ हिंदी में भी कार्य किये जाते हैं।सरकारी दफ्तरों में  हिंदी में कामकाज करना अब अनिवार्य कर दिया गया है।आदेश, नियम ,अधिसूचना, प्रतिवेदन,प्रे

युद्ध और हम

तुमने पूछा था, तो कहती हूँ, हाँ मैं गई थी, कोलोन में जहाँ मेरे माता-पिता रहते थे..... वे तब भी जीवित थे.... लेकिन हमारा घर, वह कहीं नहीं था.... पडोस के सारे मकान लड़ाई में ढह गए थे..... और तब मुझे पहली बार पता चला कि जिन स्थानों हम रहते हैं, अगर वे न रहें.... तो उनमें रहनेवाले प्राणी, वह तुम्हारे माँ- बाप ही क्यों न हों.....बेगाने हो जाते हैं...जैसे उनकी पहचान भी ईंटों के मलबे में दब जाती हो...." कैसे दीखते होंगे वे शहर,  जिन्हें युद्ध के सनकी तानाशाहों ने  अपने सनक में बर्बाद कर दिया  कुछ बम- बारुद की गंध  उजड़े मकान  इन्सानियत के मलबे में  कराहती मानवता  और चारो ओर बिखरी  हुई होंगी  निशानी - कुछ बचपन की, कुछ यौवन की  और हसरतों के धुएं में  सुलगता हुआ शहर  जहाँ कभी  स्कूलों और अस्पतालों में  जीवन सजता था। 

मैं वह धनु हूँ

मैं वह धनु हूँ,  जिसे साधने में प्रत्यंचा टूट गई है। कथाकार ,कवि एवं गम्भीर चिन्तक अज्ञेय मेरे भाव जगत के बहुत निकट हैं। कारण तो मेरे अन्तर्यामी ही जानते होंगे। फिर भी बहुत कुछ हमारे जीवन का हमारे प्रारब्ध और ना जाने कितने जन्मों का संचित कर्म होता है, शायद मेरी इस बात से कम लोग ही इतेफाक रखते हों ,लेकिन मैं व्यक्तिगत रुप से यही मानता हूँ। हम अपने जीवन काल में बहुत से लोगों से मिलते जुलते हैं,लेकिन कुछ लोगों हम पहली दूसरी मुलाकात में ही जान जाते हैं कि इस व्यक्ति के साथ हमारी अच्छी निभेगी। ऐसी ही हमारी अज्ञेय जी के रचना संसार के साथ निभ रहा है। ना जाने क्यूँ अज्ञेय मुझे कुछ ज्यादा ही खींचते हैं अपनी ओर ।  स्खलित हुआ है बाण , यद्यपि ध्वनि, दिगदिगन्त में फूट गयी है-- मैं वह धनु हूँ की ये पंक्ति हमें जीवन में सब कुछ समय पर छोड देने की सूझ देता है। प्रत्यंचा का टूटना और बाण का स्खलित होना और फिर ध्वनि का  दिगदिगन्त में गूंजायमान होना अपने आप में अलग ध्वन्यार्थ प्रस्तुत करता है । जिसे कवि आगे की पंक्तियों में हमारे सम्मुख रखता है - प्रलय-स्वर है वह, या है बस मेरी लज्जाजनक पराजय, या कि सफलता

रिक्त स्थानों को भरें

 बचपन में प्रायः परीक्षाओं रिक्त स्थानों की पूर्ति कीजिये जैसे प्रश्न आते थे और हम अक्सर उस रिक्त स्थान को भर लेते थे, लेकिन अब वही रिक्त स्थान खाली ही रह जा रहे हैं, और हम इस खालीपन से भरते जा रहे हैं। अपना शहर छूटा,संगी - साथी छूटे,प्रेम छूटा, माँ-बाप छूटे और बहुत कुछ छूटा । और हम खाली होते चले गये। अब तो खालीपन ही भर गया है। जीवन में कभी-कभी हम ऐसे मोड़ पर पहुंच जाते हैं इस जहां से लौटना मुश्किल कि नहीं नामुमकिन होता है ऐसे समय का खालीपन हम किसी भी हाल में भर सकने में सक्षम नहीं होती हैं और यह खालीपन  धीरे हमारे जीवन में इस कदर भर जाता है किउसमें किसी और की गुंजाइश बचती ही नहीं, यह हमारे मानव जीवन की सबसे बड़ी विडंबना है कि हम हमेशा से अपने मनपसंद जगह को अपने मनपसंद लोगों को और अपनी मनपसंद आबोहवा को छोड़कर नई मंजिल तलाशते हैं .और उस मंजिल में जो जीत सकता भर आती है वह बड़ी ही पीड़ादायक होती है जिसे हम सिर्फ महसूस कर सकते हैं किसी के समक्ष अभिव्यक्त नहीं कर सकते। 

सहजता और सम्पूर्णता के संत: रैदास( डॉ.अमरेन्द्र कुमार श्रीवास्तव)

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भारतीय समाज में आध्यामिकता और भक्ति की चेतना का प्रवाह अनादि काल से चला आ रहा है । भारतीय  समाज का शायद ही कोई ऐसा वर्ग या समुदाय जिसमें आध्यात्म और भक्ति की चेतना देखने को ना मिलती हो । विश्व की प्राचीनतम संस्कृतियों में प्रमुख और जीवन्त भारतीय संस्कृति प्रारम्भ से दो अवधारणाओं का अस्तित्व निरंतर बना रहा है । एक भौतिकवादी है जो जड़ पदार्थ से सृष्टि की उत्पत्ति मानती है और दूसरी धारा यह मानती है कि ज्ञान या चेतना पहले पैदा हुआ । इसका मूल वेदों में देखने को मिलता है । हमारे देश की संस्कृति में आध्यात्मिकता का विशेष प्रभाव देखने को मिलता है । भारत में यह चेतना अनादि काल से समाज को पुनर्नावित करने की दिशा में प्रयास करती रही है । इसी पुनर्नवन की परम्परा में भारत के सभी वर्गों के लोगों ने अपने-अपने ढंग से समाज के जागरण में अपनी-अपनी महती भूमिका का निर्वहन किया है । भारतीय समाज की ऐसी संचरना है कि समाज के सभी वर्गों के लोगों ने अपने-अपने ढंग से अपनी-अपनी मान्यताओं को जाना एवं माना है । हमारे यहाँ जितने मत-मतान्तर देखने को मिलते हैं , उतने शायद ही दुनिया के किसी भू-भाग पर देखने को मिलते हों ।

काव्य दोष

    काव्य में दोष की अवधारणा अत्यन्त प्राचीन है। काव्य का दोष रहित होना आवश्य माना गया है। आचार्य मम्मट' ने काव्य की परिभाषा करते हुए 'तददोषो' पहले  ही कहा है .काव्य-दोषों के सम्बन्ध में 'वामन' ने बहुत स्पष्ट कहा है कि जिन तत्वों से काव्य-सौन्दर्य की हानि होती है, उन्हें दोष समझना चाहिए। आचार्य 'मम्मट' के अनुसार जिससे मुख्य अर्थ अपकर्ष हो, उसे दोष कहते है। मुख्य अर्थ है- 'रस' .इसलिए जिससे रस का अपकर्ष हो,वही दोष है। हिन्दी में चिन्तामणि ,कुलपति मिश्र, सूरति मिश्र, श्रीपति, सोमनाथ, भिखारीक आदि आचार्यों ने काव्य-दोषों पर विचार किया है। इनमें अधिकांश का आधार 'मम्मट' का 'काव्य-प्रकाश' है। आचार्य मम्मट ने दोषों के मुख्य रूप से तीन भेद किये हैं - 1. शब्द दोष  2. अर्थ दोष  3. रस दोष       1. शब्द दोष - शब्द दोष के अंतर्गत शब्दांश ,शब्द और वाक्य तीनों की गणना की जाती है .     श्रुति- कटुत्व दोष :- जहाँ सुनने में कठोर लगने वाले शब्दों का अधिक प्रयोग किया जाता है ,वहाँ श्रुति-कटुत्व दोष माना जाता है .       उदहारण -' पर क्या न विषयोत्कृष्टत

पुल पार करने से :नरेश सक्सेना

  पुल पार करने से पुल पार होता है नदी पार नहीं होती नदी पार नहीं होती नदी में धँसे बिना नदी में धँसे बिना पुल का अर्थ भी समझ में नहीं आता नदी में धँसे बिना पुल पार करने से पुल पार नहीं होता सिर्फ़ लोहा-लंगड़ पार होता है कुछ भी नहीं होता पार नदी में धँसे बिना न पुल पार होता है न नदी पार होती है। (नरेश सक्सेना)

वर्तनी विचार

हिन्दी लिखने वाले अक़्सर  *'ई' और 'यी' में,*   *'ए' और 'ये' में*  और  *'एँ' और 'यें'* में जाने-अनजाने गड़बड़ करते हैं...। कहाँ क्या इस्तेमाल होगा❓इसका ठीक-ठीक ज्ञान होना चाहिए...। 🔸 *जिन शब्दों के अन्त में 'ई' आता है वे संज्ञाएँ होती हैं क्रियाएँ नहीं...*  जैसे: मिठाई, मलाई, सिंचाई, ढिठाई, बुनाई, सिलाई, कढ़ाई, निराई, गुणाई, लुगाई, लगाई-बुझाई...। 🔹इसलिए 'तुमने मुझे पिक्चर दिखाई' में 'दिखाई' ग़लत है...  इसकी जगह 'दिखायी' का प्रयोग किया जाना चाहिए...।  इसी तरह कई लोग 'नयी' को 'नई' लिखते हैं...।  'नई' ग़लत है , सही शब्द 'नयी' है...  मूल शब्द 'नया' है , उससे 'नयी' बनेगा...। क्या तुमने क्वेश्चन-पेपर से आंसरशीट मिलायी...? ( 'मिलाई' ग़लत है...।) आज उसने मेरी मम्मी से मिलने की इच्छा जतायी...। ( 'जताई' ग़लत है...।)  उसने बर्थडे-गिफ़्ट के रूप में नयी साड़ी पायी...। ('पाई' ग़लत है)  *अब आइए 'ए' और 'ये' के प्रयोग पर...।*  बच्चों ने

Tragedy (Aristotle)त्रासदी (अरस्तू)

  Tragedy (Aristotle)   त्रासदी ( अरस्तू ) - पश्चात्य साहित्य चिन्तन काव्य के अनुकरण का सिद्धांत अपने आरंभिक समय से ही मान्य रहा है ,पाश्चात्य साहित्य में प्लेटो और अरस्तू दोनों ने अनुकरण पर विचार करते हुए काव्य को अनुकरण माना है । अरस्तू के अनुसार कविता एक अनुकरणात्मक कला है । अरस्तू ने काव्य पर विचार करते हुए लिखा है कि- काव्य में दो प्रकार के कार्य-व्यापर का अनुकरण होता है, सदाचारियों के अच्छे कार्य-कलापों का तथा दुराचारियों के दुष्कृत्यों का । सदाचारियों के कार्य व्यापारों के अनुकरण से महाकाव्य का जन्म हुआ और दुराचारियों के कार्य-व्यापारों के अनुकरण से व्यंग्य काव्य का । गंभीर स्वाभाव के काव्यकार सदाचारियों के कार्यों का अनुकरण करने में तथा देवी-देवताओं के स्तोत्रों के निर्माण में संलग्न हुए । तुच्छ कोटि के रचनाकारों ने व्यंग्य रचनाओं की । इन्हीं दो प्रकार की काव्य-रचानाओं के रूपांतर और विकास का प्रतिफल है – त्रासदी (Tragedy)   और कामादी ( Comedy) । अरस्तू ने महाकाव्य और त्रासदी में त्रासदी को महाकाव्य से श्रेष्ठ माना है, क्योंकि त्रासदी अपनी सघनता ,संक्षिप्तता,सुसंबन

वर्तनी विचार (शुद्ध -अशुद्ध )

  अशुद्ध    —    शुद्ध अतिथी – अतिथि अतिश्योक्ति – अतिशयोक्ति अमावश्या – अमावस्या अनुगृह – अनुग्रह अन्तर्ध्यान – अन्तर्धान अन्ताक्षरी – अन्त्याक्षरी अनूजा – अनुजा अन्धेरा – अँधेरा अनेकोँ – अनेक अनाधिकार – अनधिकार अधिशाषी – अधिशासी अन्तरगत – अन्तर्गत अलोकित – अलौकिक अगम – अगम्य अहार – आहार अजीविका – आजीविका अहिल्या – अहल्या अपरान्ह – अपराह्न अत्याधिक – अत्यधिक अभिशापित – अभिशप्त अंतेष्टि – अंत्येष्टि अकस्मात – अकस्मात् अर्थात – अर्थात् अनूपम – अनुपम अंतर्रात्मा – अंतरात्मा अन्विती – अन्विति अध्यावसाय – अध्यवसाय आभ्यंतर – अभ्यंतर अन्वीष्ट – अन्विष्ट आखर – अक्षर आवाहन – आह्वान आयू – आयु आदेस – आदेश अभ्यारण्य – अभयारण्य अनुग्रहीत – अनुगृहीत अहोरात्रि – अहोरात्र अक्षुण्य – अक्षुण्ण अनुसूया – अनुसूर्या अक्षोहिणी – अक्षौहिणी अँकुर – अंकुर आहूति – आहुति आधीन – अधीन आशिर्वाद – आशीर्वाद आद्र – आर्द्र आरोग – आरोग्य आक्रषक – आकर्षक इष्ठ – इष्ट इर्ष्या – ईर्ष्या इस्कूल – स्कूल इतिहासिक – ऐतिहासिक इक्षा – ईक्षा इप्सित – ईप्सित इकठ्ठा – इकट्ठा इन्