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निराला के 'काव्य' में प्रगतिशील चेतना & मुक्त छंद

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निराला के 'काव्य' में प्रगतिशील चेतना  निराला  छायावादी कवि के साथ-साथ प्रगतिशील चेतना के कवि भी रहे हैं।उनकी कविताओं यह प्रगतिशील दृष्टि स्पष्ट दिखाई देती है।  छायावाद कालीन कविताओं से ही उनकी  प्रगति चेतना  आकर लेने लगती है ।  निराला की  सम्पूर्ण प्रगतिशील रचनाओं पर दृष्कटिपात करें तो स्पष्ट लगता है कि उनकी कविताओं में कहीं तो समाजिक ,आर्थिक बोध अंकित है और कहीं शोषित, भिक्षुओं और असहायों का करुणाजनक चित्र है। ऐसी कविताओं में "वह तोड़ती पत्थर" "भिक्षुक" "विधवा", "सेवा प्रारम्भ", "कुत्ता भौंकने लगा" आदि को लिया जा सकता है। 'निराला' ने अपनी प्रगतिशील चेतना के बल पर पारम्परिक रूढ़ियों और पुरातनपंथियों का विरोध भी किया है। "मित्र के प्रति" और "सरोज स्मृति मे प्रगतिशील चेतना को देखा जा सकता है। "दान" कविता  में 'निराला' ने धर्म में व्याप्त ढोंग पर तीखे प्रहार करते हुए अपनी प्रगतिशील चेतना को वाणी दी है। 'निराला' की कतिपय कविताएँ ऐसी भी हैं जिनमें यथार्थपरक दृष्टि खुलकर सामने आयी है।