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मेरी संवेदना

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कुछ कहा करो  कुछ सुना करो  कहने सुनने से  दु:ख कम हो जाते हैं कभी-कभी किसी को  सिर्फ सुन लेना  हो सकता है कोई  मुरझाया शख्स  मुस्कुरा दे और  कभी-कभी कह देने मात्र से  मन हल्का महसूस करता है।  इसलिए कुछ कहना और सुनना जरुरी है  और हाँ!  बहुत आसान है  कहना-सुनना कहने-सुनने से ही  बनतीं हैं बातें और चलती है दुनिया।  (अमरेन्द्र) याद है मुझे अब भी  वो सर्दियों की बरिश  चाय की चुस्कियां तेरे नर्म हाथों की आलू के पराठे,  और गर्मियों की लू  वो रिक्शे की सवारी  वो तेरी जुल्फों का लहराकर  मेरे मन को बहकाना  वो तेरी खुशबू का  मेरे सांसों में उतरना ।  याद है मुझे अब भी ,  वो आखिरी बार मिलना  चाय से शुरू हुई मोहब्बत का  स्वीटकार्न सूप पर खत्म होना।  ना जाने कितनी  याद होंगी तुम्हें- उन लम्हों की बातें और बहुत सी बातें।  वो एक कहानी - जो अधूरी खत्म हो कर भी  एहसासों जिन्दा है। (अमरेन्द्र) कुछ एहसास लिखने हैं मुझे लेकिन जब भी लिखना चाहा-  अक्सर शब्द उस एहसास को  लिखने से मुकर गए ।  और वो एहसास लिखे ही नहीं  जा सके - और ना ही कहे जा सके।  क्या ऐसे एहसास  रह जायेंगे हमारे भीतर / और उन एहसासो

लोक परम्परा की गहन संवेदना का आख्यानः रसप्रिया

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हिन्दी कथा साहित्य और हिन्दी समाज में अत्यंत घनिष्ठ संबंध देखने को मिलाता है। फणीश्वर नाथ रेणु हिन्दी साहित्य के एक ऐसे कथाकार हैं, जिन्होंने अपने कथा साहित्य के माध्यम से हिन्दी साहित्य जगत को लोक के राग-रंग से विधिवत परिचित कराया और लोक जीवन की विविध छटाओं को साहित्य के कैनवास पर जीवंत किया। इस दृष्टि से मैला आंचल आपकी और हिन्दी साहित्य की एक महनीय उपलब्धि है। रेणु ने हिन्दी कथा साहित्य को एक नये लोक से ना सिर्फ परिचित कराया वरन जीवन के समस्त राग-विराग-रंग और बदरंग को हमारे समक्ष रखा भी ।आपके उपन्यास मैला आँचल के अतिरिक्त आपकी कहानियों में भी लोक परम्परा की अपूर्व छटा देखने को मिलती है। रसप्रिया आपकी लोक रस ,आस और विश्वास से सराबोर कहानी है, जिसमें लोक परम्परा में लुप्त हो गीतों की गहन चिंता के साथ-साथ लोक विश्वास का अंकन अत्यंत जीवंत रूप में देखने को मिलता है । लोक परम्परा के प्रति गहरी चिंता का भाव रसप्रिया कहानी में  मिरदंगिया के माध्यम से  रेणु ने प्रस्तुत किया है। भाव और भाषा की दृष्टि से यह कहानी अपने आप में विशिष्ट है।  हिन्दी साहित्य के इतिहास पर दृष्टिपात करें तो यह देखने को

आधा गाँव की भाषा एवं संवेदना

आधा गाँव की कथा को अपने पूरे मित्र को समर्पित करना अपने आप में अधिक व्यंजनापूर्ण है । इस उपन्यास की कथा को कहने के लिए उपन्यासकार ने एक नये तरह की भाषा को हमारे समक्ष प्रस्तुत किया है , इसके साथ-साथ कथा शिल्प के स्तर पर नयापन लाने का कार्य किया है । कथा भाषा और कथा शिल्प को किसी निश्चित ढाँचे में बांधकर नहीं देखा जा सकता है ।कथा भाषा और सामाजिक सरोकारों को रेखांकित करते हुए प्रो. केशरी कुमार ने लिखा है कि - "भाषा यथार्थ का सबसे महत्वपूर्ण रचनात्मक पहलू है ।भाषा नहीं तो यथार्थ नहीं ,भाषा के द्वारा ही हम यथार्थ को जानते मानते पहचानते हैं ।भाषा यथार्थ को एक नाम देती है और इस नाम से ही वह पहचाना जाता है । जिसके पास वस्तु है ,पर नाम नहीं है । भाषा की उपेक्षा यथार्थ की उपेक्षा है ।यथार्थ समाज-जीवन का द्वार है, तो भाषा उससे भीतर बाहर करने का रास्ता है । एक के बिना दूसरे का अर्थ नहीं ।"  कथा भाषा और सामाजिक यथार्थ का अन्योन्याश्रित संबंध है । कथा भाषा की दृष्टि अंचल के यथार्थ को अभिव्यक्त करने वाले उपन्यासों में नए प्रयोग देखने को मिलते हैं ।आधा गाँव में भी नए भाषिक एवं सांस्कृतिक प्