‘पत्नी’कहानी : एक मनोवैज्ञानिक अध्ययन -रूपेश कुमार -मण्डी (175006) मो. न.-9805391761

 



जैनेन्द्र हिन्दी कथा साहित्य के महान लेखकों में से एक है। जिन्होंने प्रेमचंदोत्तर काल में स्त्री मनोवैज्ञानिकता पर आधारित कहानियों को आधार दिया। जैनेन्द्र अपनी कहानियों में स्त्री मनोयोग का एक मिश्रण प्रस्तुत करते हैं जिन्हें मानसिक कुंठाओं का सामना करना पड़ता है। वे समाज में होते हुए भी समाज से भिन्न कर दी गई है। वास्तविकता का जो मर्म जैनेन्द्र ने अपनी कहानियों में दिया है उसकी तुलना करना थोडा़ असहज प्रतीत होता है। जैनेन्द्र की आंखों ने स्वतंत्र और अस्वतंत्र भारत की तस्वीरें देखी थी। इन तस्वीरों में जैनेन्द्र की जाने कितनी औरतों की आह को अपनी कलम में ढाल कर, उनकी वेदनओं को काले अंतरिक्ष से धरती पर उतारा है। जैनेन्द्र का जन्म 2 जनवरी 1905 को जनपद अलीगढ़ के कौडियागंज नामक स्थान पर हुआ। जैनेन्द्र के बचपन का नाम आनंदी लाल रखा गया था। जिसे 1911 में जैनेन्द्र में परिवर्तित कर दिया गया। जैनेन्द्र के बचपन का नाम आनंदी लाल रखा गया था। जिसे 1911 में जैनेन्द्र में परिवर्तित कर दिया गया। जैनेन्द्र जी ने लेखन की शुरुआतदेश जाग उठानामक गद्य काव्य से की थी। यह गद्य काव्य शस्त्र सत्याग्रह का वह मीठा फल था जिसने जैनेन्द्र के हृृदय में लेखन के ऐसे बीज बो दिए जिससे उगा वृक्ष ना जाने कितने पाठकों के हृदयों को आज भी ठंडक देने में समर्थ है।

जैनेन्द्र के जीवन को एक झलक में देख पाना संभव नहीं। उनका आरंभिक जीवन पिता के अभाव में बीता किन्तु जैनेन्द्र जैसे-जैसे बड़े होते गए उन्होंने अपने पिता की छवि अपने मामा में ही आत्मसात कर दी। अतः जैनेन्द्र के व्यक्तिव पर उनके मामा और उनकी माता का गहरा प्रभाव देखा जा सकता है। जिससे वे परम्परागत संस्कारों और परिस्थितियों के मध्य एक युगल की भांति दिखाई देते है। डॉक्टर कुसुम कक्कड़ अपनी पुस्तकजैनेन्द्र का जीवन दर्शनमें लिखती हैंउनके सम्पूर्ण व्यकित्व पर परम्परागत संस्कारों और परिस्थिति का प्रभाव पड़ना अनिवार्य है। जैनेन्द्र का व्यक्त्वि उनके संस्कारों और परिवेश का ही योग है।"

जैनेन्द्र ने अपनी कहानियों में स्त्री तन्मयता का बड़ा ही शुष्क रूप दिखाया है। स्त्री को एक ऐसी अरुणा का रूप दिया है जिसकी आभा प्रकाश रहित नजर आती है। बहुत से उपन्यासों, और कहानियों में स्त्री को शिष्ट दिखाने के लिए वह धृष्टता का नैतिक वस्त्र ओढ़े बेचारी प्रतीत होती है। कुछ कहानियों में तो स्त्री की लाचारी को ही उसका परम शस्त्र बना दिया गया है। जैनेन्द्र की इन्हीं रचनाओं में से अत्यंत प्रभाव पूर्ण कहानी हैपत्नी यह कहानी दो ऐसे किरदारों पर आधारित है जो आत्मग्लानी से पीड़ित हैं। आपसी समन्वय होने के कारण वे एक दूसरे से विपरीत दिशा पर खड़े नजर आते है।

मनोवैज्ञानिकता की आधारशिला पर खड़ी यह कहानी स्त्री मन को बड़ी ही निकटता से स्पर्श करती है। कहानी की शुरुआत शहर के एक तिरस्कृत मकान से होती है जो कि शहर के दूसरे तल्ले पर स्थित है। इसी मकान के भीतर कहानी अपना पूर्ण वेग ले लेती है। कहानी का ज्यादातर झुकाव सुनंदा की तरफ है क्योंकि यह कहानी उसकी मानसिकता को आधार बना कर लिखी गई प्रतीत होती है। जैनेन्द्र की इस कहानी में स्त्री मन की उत्सुकता को आत्म-विश्वास की कमी ने दबाकर उसे कुंठित वस्त्र पहना दिए है। जिस स्त्री मन की बात इस कहानी में की गई है वह मन एकांत की दीवारों में संकुचित हो रहा है। उसमें भी सबसे घुल मिल जाने की आहटें गूजती हैं किन्तु साहस विहीनता के कारण वह खुद का ऐसा करने से रोक लेती है। सुनंदा की ऐसी स्थिति का कारण उसके बच्चे का मरण हो सकता है। दोनों दंपतियों के मध्य दूरियों का मूल कारण भी पुत्र वियोग ही है। कलिंदीचरण जो कि सुनंदा का पति है राजनीति का सक्रिय कार्यकर्ता है। वह ज्यादातर समय घर से बाहर ही व्यतीत करता है। जब घर लौट के आता है तब भी अपने मित्रों के साथ व्यस्त हो जाता है। जबकि सुनंदा चूल्हे के पास बैठी उसकी बाट जोहती है। "बैठै-बैठै वह इसी तरह की बात सोच रही है। देखो अब दो बजेंगे। उन्हें खाने की फ़िक्र मेरी। मेरी तो खैर कुछ भी नहीं पर उन्हे अपने तन का ध्यान तो रखना चाहिए। ऐसी बेपरवाही से ही तो वह बच्चा चला गया।

अंगीठी का आग राख हुई जा रही हैजैसे मानों सुनंदा की सभी अभिलाषाएं, अधिकार उस अंगीठी में जल कर राख हो रहे हों। यह सांकेतिक स्वरुप कहानी में रोचकता को बढ़ाता है। सुनंदा बीस-बाईस के लगभग उम्र की तरुण स्त्री है। लेकिन पुत्र वियोग में वह मानसिक यंत्रणा का शिकार हो गई है। अपने आप में खोई वह आहत मां अपने बच्चे की यादों में डूबी हुई उसके बारे में सोचती रहती है। "वे बड़ी प्यारी आंखे, अंगुलियां और नन्हे नन्हे ओंठ याद आते है अठखेलियां याद आती है।उसकी इस मानसिक पीड़ा का सीधा असर उसके दाम्पत्य जीवन पर देखा जा सकता है। सुनंदा की इस हालत के बारे में जगदीश पांडेय अपनी पुस्तककहानीकार जैनेन्द्र, अभिज्ञान और उपलब्धिमें लिखते है "अंग्रेजी में जिसका पति परदेस हो उसके लिए एक शब्द है grass widow, सुनंदा की टे्जडी grass widow की नहीं बल्कि कह लेने दीजिए तो, kitchen widow की है। वह चौके की बेवा है। पति परदेस नहीं, साथ है। फिर भी चून की थाली, चकला-बेलन और बटलोई ही सुनंदा की दुनिया है। उसकी ट्रेजेडी में शाश्वत का व्यंग्य नहीं, नाटकीय ध्वंस का मूल्य नहीं, नित्य प्रति का मौनमरण है।

अंगीठी के कोयले उल्टे तबे से दबे है।यह पंक्तियां जैसे संकेत कर रही हो कि सुनंदा का भीतरी तल बडा़ ही नीरस हो चुका है। जैसे अंगीठी के कोयले सुनंदा खुद हो और पुत्र वियोग ने उसे दबा कर रख दिया हो। जैनेन्द्र ने सुनंदा को कहानी में एक संभ्रांत नारी के रुप में पेश किया है। जो अपने कर्त्तव्यों का अर्थ समझती है। कलिंदी के मना करने के बाद भी वह उसके मित्रों तथा उसे खाना परोसती है। जिससे वह दयालु आचरण को प्राप्त होती है। कहानी के मध्य खंड में दोनो दंपतियों के बीच एक गूंगी नोक-झोंक का प्रवेश होता है जिसमें घुटन, द्र्वित हृदय, और एक दूसरे से तालमेल के अभाव का अवतरण दिखाई देता है। सुनंदा का स्वयं के लिए खाना बचाकर रखना और यह समझना की एक दिन उसके भूखे रहने से उसे पुण्य प्राप्त होगा यह आत्मिक सांत्वना का रुप कहानी को एक नया आयाम देता है। कहानी की इस स्थिति के बारे में डॉक्टर दिग्विजय कुमार अपनी पुस्तकजैनेन्द्र के साहित्य मे नारीमें लिखते हैंउसका हृदय विद्रोह करता है, पंरतु प्रकट रुप में वह कुछ नहीं कहती। अपितु बिना शर्त सब कुछ समर्पण करने को तैयार रहती है। स्वयं को धिक्कारती है और पति की अवज्ञा से उत्पन्न क्रांति को भी समर्पण के शीघ्र पतन से शांत कर लेती है।

एक प्रश्न जो इस कहानी में जैनेन्द्र ने बार-बार उठाया है वह है मृत्यु का प्रश्न। ज़रा इस पंक्ति को देखिएतब हम मरने के लिए आजा़द क्यों नहीं है? ” यह प्रश्न एक सामान्य बहस है जो कि चार वास्तविक लोगों के मध्य है किन्तु सुनंदा इस प्रश्न का जवाब अकेलेपन में दे रही हैयद्यपि वह जानती है कि मरना सबको है, उसको मरना है, उसके पति को मरना है पर उस तरफ भूल से छन भर देखती है, तो भय से भर जाती है।जैसे उसे मरने की उस निष्ठुर वास्तविकता का पता हो। जैनेन्द्र जी ने शायद इसीलिए उसे कहानी के सभी पात्रों से अप्रत्यक्ष रुप से अधिक समझदार दर्शाया है। शायद उसने अपना बच्चा खोया है, उसे अनुभव है कि मरने की पीड़ा क्या होती है।

जैनेन्द्र की कलम से प्रभावित होकर प्रोफेसर लक्ष्मी सागर कहते हैजैनेन्द्र ने अपने साहित्य में जो बौद्धिकता रखी है और जीवन की परम्परागत नैतिक मान्यताओं पर जो प्रश्न चिन्ह्र लगाया है वह उन्हें हिंदी कथा साहित्य में एक नए युग प्रवर्तक के रुप में प्रेमचंद से एक कदम आगे स्थापित करता है।

उसके मुख पर कुछ तल्लीनता आयी। क्षण भर उसके चेहरे पर रहकर चली गई।इस पंक्ति ने पूरी कहानी को खोल कर रख दिया है। यह पंक्ति खुले मुंह से संकेत कर रही है कि जब तक उसके पुत्र की मुत्यु नहीं हुई थी तब तक रिश्तों में सौम्यता तथा तल्लीनता थी किन्तु जब पुत्र संसार को अलविदा कर गया तब से यह तल्लीनता भी भंग हो गई। जैसे कुछ ही क्षणों के लिए उसके मुंह पर उजाले का पहरा रहा और अब यह सब कुछ नष्ट हो गया हो। उदाहाण हेतु कहानी की कुछ और पंक्तियों को देखते हैंवह एक बात जान चुकी कि उसके पति ने अगर आराम छोड़ दिया है, जान बूझकर उखड़े-उखड़े और मारे-मारे जो फिरते है इसमें वे कुछ भला ही सोचते होंगे।यह पंक्ति भी पूर्ण रुप से समर्थन कर रही है कि बच्चे की मृत्यु से पूर्व की स्थिति बेहतर थी। कालिंदीचरण सुनंदा का घर के कामों में भी हाथ बंटाते थे किन्तु समय के साथ-साथ उनके संबंधों में कड़वाहट का प्रवेश हो गया।

वह कुछ कर नहीं रही है। जब वह आएंगे तब रोटी बना देगी। वह जाने कहां-कहां देर लगा देते हैं और कब तक बैठू मुझसे नहीं बैठा जाता। कोयले भी लहक आए है। और उसने झल्लाकर तब अंगीठी पर रख दिया। नहीं, अब वह रोटी बना ही देगी। उसने खीजकर आटे की थाली सामने खींच ली और रोटी बेलने लगी।इस पंक्ति मे अनतर्द्वन्द नजर आता है। इस आंतरिक सघंर्ष में कर्त्तव्यों का नकाब की मजबूरी विजया का हाथ थामे अपनों प्रभुत्व का डंका बजाती हुई नजर आती है सुनंदा खीज गई है फिर भी वह अपने पति के लिए रोटी बनाने को तैयार है। इस पंक्ति में जैनेन्द्र ने मुक्त कंठ से समाज में महिलाओं के महत्व को दर्शाया है। जो किसी भी परिस्थिति में अपने कर्मों से मुखर नहीं होती। समाज महिलाओं को घरेलू शब्द में बांध कर उन्हें घर के भीतर कैद कर देता है। किन्तु इन महिलाओं में भी उस बंद कमरे की खिड़की से संसार भर को झांक लेने की क्षमता होती है। एक अज्ञात रचनाकार जोहेमंतनाम से महिलाओं के बारे में लिखते है-

मुझमें कैद है जाने कितनी आजादियां

आजादियों में भी कितनी कैद हूं मैं!”

यह जुमला जैनेन्द्र की इस कहानी के लिए पूर्ण रुप से उपयुक्त है। कहानी का शीर्षकपत्नीसत्यता का प्रतीक है जो पति को पतन से बचाती दिखाई देती है। खुद की भूख का गला घोंट कर दूसरों को प्राण देना सुनंदा को अच्छे से आता है।अब तो पढ़ने को तैयार हूं लेकिन पत्नी के साथ पति का धीरज खो जाता हैइससे सुनंदा और कालिंदी के मनोभाव का पता चलता है।खैर उसने सोचा है, उसका काम सेवा है।इससे स्पष्ट होता है कि सुनंदा की मानसिक नैतिकता कितनी उच्च कोटि की है। अतः जैनेन्द्र जी के साहित्य के बारे में प्रोफेसर लक्ष्मी सागर का यह कहना ठीक ही है’ “ जैनेन्द्र के साहित्य में मनोविज्ञान तथा दर्शन का सामंजस्य स्पष्ट दृष्टिगत होता है।

यदिपत्नीकी सुनंदा औरत्यागपत्रकी मृणाल को एक क़लम की नोंक पर इकट्ठा खड़ा कर दिया जाए तो इन स्त्री-मनों को और करीब से पढ़ा जा सकता है। इन दोनों स्त्री मनों के लिए स्वाभिमान बड़ा ही महत्वपूर्ण है। प्रमोद जब अपनी बुआ से घर चलने का आग्रह करता है तो वह उसे इंकार करती है और अकेले रहना अपना स्वाभिमान समझती है तो वहीं सुनंदा अनायास भाव से पति के साथ रहती है पति को छोड़ कर जाना उसके लिए स्वाभिमान की पताका को ऊपर उठाने के बराबर है सत्य ही जैनेन्द्र का कहानी संसार उन्हीं के शब्दों में नर नारीमय है।

कहानी के एक छोर पर सनुंदा का स्वयं को कम पढ़ा लिखा बताना और वहीं दूसरे छोर पर अपनी समझ का एक उच्च दृष्टिकोण दर्शाना अत्यंत सराहनीय है। ज़रा इस पंक्ति को देखिएइतनी फौज, पुलिस के सिपाही और मजिस्ट्रेट, मुंशी और चपरासी और थानेदार और वायसराय ये सब सरकार के ही है यह पंक्ति पूर्ण वेग के साथ सिद्ध करती है कि सुनंदा का विवेक किताबी ज्ञान से कहीं अधिक है। कहानी का अंतिम पहलू कहानी की वास्तविकता को दर्शाता है दरवाजे के पास खड़ी होने के बावजूद भी कालिंदी सुनंदा को जोर से पुकारता है जैसे मानों वो कोसों दूर खड़ी हो-

कालिंदी ने अभ्यासवश जोर से पुकारा आचार लाना भाई, आचार मानों सुनंदा कहीं बहुत दूर हो, पर वह तो बाहर द्वार से लगी खड़ी ही थी।इससे पति पत्नी के मध्य दूरियों का आभास होता है। अतः जगदीष पांडेय का कहना ठीक ही है किजैनेन्द्र की पत्नी और बच्चों वाली कहानियां जहां इस बात की चेतावनी है कि अन्यत्र बुझे रहने से, सहानुभूति या आदान-प्रदान के अभाव में सहचर जीव घुट जाता है या बहक जाते है।यह कहानी कहीं कहीं मानव चेतना को इंगित करती है, उसे जागृत करती है, और उसे अतिश्योक्ति से पीछे रख कर एक साधारण स्वरुप देती है। यदि आधुनिक परिप्रेक्ष्य में इस कहानी का विश्लेषण करें तो यह कहानी आज की कसौटी पर खरी उतरती है और समाज को आईना दिखाने का सामर्थ्य रखती है। आज भी बहुत से लोगों में आपसी तालमेल होने के कारण उनका घर कलेश का घर बन जाता है। जिन घरों की शांति भंग हो जाती है वे उत्कंठा को प्राप्त होते है। यह कहानी हमें एक दूसरे के साथ समन्वय और एक दूसरे को समझने की शिक्षा देती है। आखिर हम सभी यहां हमेशा के लिए नहीं हैं। हमें एक दूसरे को समझने की अवश्यकता है ताकि सांसारिक गाड़ी सदा संतुलित रहकर शुद्ध पथ पर अग्रसर रहे।

 

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