बेबाक राय : प्रो. दिलीप से अमरेन्द्र श्रीवास्तव की बातचीत (2008-प्रस्थान से साभार )

दिलीप सिंह से अमरेन्द्र श्रीवास्त की बातचीत -


प्रसिद्ध भाषा वैज्ञानिक, साहित्यकार, उत्तर प्रदेश रत्न से सम्मानित, उच्च एवं शोध संस्थान, दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा, मद्रास) के कुलसचिव प्रो० दिलीप सिंह भाषा विज्ञान के अप्रतिम विद्वान है। हिन्दी हिन्दर क्षेत्र में हिन्दी की सामाजिक अस्मिता की अलख जगाने वाले विचारक है। इस समय जब हिन्दी में भा चिन्तन या तो सवयस्त हो गया है या स्तरहीन तब दिलीप सिंह की महत सक्रियता आश्वस्त करती है। उन्होंने भाषा का समाजशास्त्र अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान पर महत्त्वपूर्ण कार्य किया है, जो भाषा विज्ञान के क्षेत्र में दुर्लभ है। भाषा अनुरक्षण और भाषा विस्थापन हिन्दी की सामाजिक अस्मिता पर लगातार विन्तन मनन करने वाले प्रति आलोचक है। प्रस्थान की ओर से अमरेन्द्र श्रीवास्तव ने उनसे  बातचीत की है-




हिन्दी साहित्य को ही आपने अपने उच्च शिक्षा के निमित्त क्यों चुना ? 
इसमें सवाल चुनने का नहीं रुचि का है, रुचि मेरी सदैव से रही है। इसका कारण है कि स्कूली जीवन में ही हिन्दी की पुस्तकें, पत्रिकाएँ पढ़ने की रूचि । प्रेमचन्द का साहित्य, शरत चन्द का अनूदित साहित्य, चन्द्रकान्ता और इस तरह की बहुत-सी रचनाएँ में पढ़ता रहा और यह आदत बन रही ।
और कोई कारण ?

हाँ, एक कारण यह भी है कि मेरे पिता जी बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय से हिन्दी में एम०ए० थे। जब बाबू श्याम सुन्दर दास विभागाध्यक्ष थे। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, हरिऔय जी और पीताम्बर दत्त बड़थ्वाल उनके गुरु थे। मेरे पिता जी इनकी खूब बाते करते थे। उनके पास भी हिन्दी की ढेरों किताबें थीं, जिन्हें में पढ़ता रहा। पिता जी ने वकालत की लेकिन उनकी रुवि हिन्दी साहित्य में बराबर बनी रही। बनारस के कई साहित्यकार उनके मित्र थे। दूसरी एक बात और हुई कि बी०ए० में घरेलू परीक्षाओं हिन्दी में मेरे बहुत अच्छे अरु आते रहे। । तब मेरे अध्यापक कष्ट मिश्र करते थे और एक बार उन्होंने मेरी उत्तर पुस्तिका पर भी अत्यन साहनीयस्य लिख दिए। इस तरह हिन्दी साहित्य की संवेदना मुझे आकर्षित करती रही गुरुजन अच्छे रहे और अवचेतन में यह भी था कि मेरे पिता का तो स्वप्न पूरा नहीं हुआ, उसे में पूरा करुँ और मैंने हिन्दी एम०० में दाखिला ले लिया। 
अपने अध्ययन के दौरान आपको किन अध्यापाकों और साहित्यकारों ने प्रभावित किया ?

साहित्यकार तो कई थे। कई साहित्यकार बनारस आते जाते रहते थे । आद नौ वर्ष का था, तो निराला को भी देखा-सुना। जिस स्कूल में में पढ़ा उसके प्राचार्य थे कृष्णदेव प्रसाद गौड़। जिन्हें देव बनारसी के नाम से जाना जाता है। मेरे जाने हिन्दी में उनके जैसा हास्य का और गयकार पैदा नहीं हुआ। वे अंग्रेजी के अध्यापक थे बोलते बहुत अच्छा थे। बडे सुदर्शन भी थे। उनकी छवि आज भी आँखों के सामने तैरती रहती है। बाद में अमृतलाल नागर अज्ञेय और डॉ० रघुवंश का कृतित्व मुझे आकर्षित करता रहा बाद में इन तीनों को देखा सुना भी। अज्ञेय और रघुवंश को बहुत नदी में भी जाना

आपको किस तरह के साहित्यकार आकर्षित करते हैं ?
लोक संवेदना और नये तरह की भाषा रचने वाले साहित्यकार मुझे हमेशा अपनी और खीचते रहे, आज भी खींचते हैं। शायद इसीलिए हिन्दी के पुराने साहित्यकार भी मुझे बहुत पसन्द हैं। एम0ए0 करते समय दो कथाकार मेरे गुरु थे शिव प्रसाद सिंह और सिंह दोनों का साहित्य मुझे भाता है। रेणु की आंचलिक भाषा का स्वाद, आतेय का ठोस गय, हजारी प्रसाद द्विवेदी और विद्यानिवास मिश्र का संस्कार पूरित लेखन न जाने कितनी बार पड़ गया है, फिर भी मन नहीं भरता ।

आप तो हिन्दी साहित्य के विद्यार्थी थे, कैसे भाषा विज्ञान की ओर उन्मुख हुए ? 
यह एक लम्बी कहानी है। व्याकरण शुरू से मुझे अच्छा लगता रहा । भाषा विज्ञान का एक हिस्सा में भी था। लेकिन पाठ्यक्रम के अलावा भी मैंने उस समय उदय नारायण तिवारी भोनानाथ तिवारी और रामविलास जी की कुछ किताबें पढ़ डाली थी। हिन्दी साहित्य के साथ हिन्दी भाषा के प्रति मेरा लगाव भी यहाँ से शुरू हुआ। हिन्दी भाषा का इतिहास उसकी सुसम्पन्न बोलियाँ, उसके बोलने वालों से मेरा परिचय हुआ। में ही भाषा विज्ञान पढ़ाने वाले अच्छे अध्यापक मिले भोला शकर व्यास, शुकदेव सिंह शिव प्रसाद सिंह और सतीश कुमार रोहरा ने नई पुरानी हिन्दी और नये पुराने भाषा विज्ञान के प्रति मोह बढ़ा दिया। इसी बीच पं० विद्यानिवास मित्र से सम्पर्क हुआ और ये पता चला कि संस्कृत विश्वविद्यालय में भाषा विज्ञान का एक विभाग खुल गया है । जी के ज्ञान और चिन्तन ने मन में यह दृढ भावना भर दी कि मुझे भाषा विज्ञान में ही आगे काम करना है। 
कैसे शुरू हुई यह यात्रा ?

मैने एम०फिल में प्रवेश लिया और उसी वर्ष ०जी०सी० का एक समर स्कूल हमारे विभाग में आयोजित हुआ। एक महीने के इस भाषा प्रशिक्षण कार्यक्रम में भारत भर के भाषाविद् जुटे थे। उसी समय में लगा कि भाषा-विज्ञान कितना वैविध्यपूर्ण और आधुनिक बन चुका है। तभी एम0फिल0, पी-एच0डी0 दोनों में समाज भाषिकी को मैंने अपने शोध का क्षेत्र चुना। इस चार पाँच साल की अवधि में मैंने आधुनिक भाषा विज्ञान का व्यापक अध्ययन किया सम्पूर चामस्की, हैलिडे, हॉकेट जैसे लोग तभी से मेरे बौद्धिक विमर्श का हिस्सा बने हुए हैं। ऐसे ही ग्रीष्म कार्यक्रमों में प्रो० पी० पटनायक, प्रो० बी०जी० मिश्र, प्रो० रवीन्द्रनाथ श्रीवास्तव, पं० विद्यानिवास मिश्र, प्रो० सुरेश कुमार जैसे भारतीय भाषाविदों को बार-बार सुनने का और उनसे बहस करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ और भाषाशास्त्र ही मुख्य रूप से मेरे अध्ययन और अकादमिक जीवन का क्षेत्र बन गया। 
आपको किन भाषाविदों ने प्रभावित किया ?

जैसा कि मैंने कहा पुस्तकों के माध्यम से राम विलास शर्मा मुझे सर्वाधिक पसन्द है। लोग उन्हें आलोचक मानते हैं लेकिन में उन्हें एक सिद्ध भाषा वैज्ञानिक के रूप में देखता हूँ। उदय नारायण तिवारी अपने भोजपुरी व्याकरण की वजह से मुझे पसन्द है, क्योंकि भोजपुरी आज भी मुझे संवेदित करती है क्योंकि वो मेरी मातृ-बोली है। पाश्चात्य भाषाविदों में उन सबने मुझे प्रभावित किया, जिनका जिक्र मैंने ऊपर किया है । इनके अलावा विलियम लेबाव, डेल हाइम्स, केटफर्ड, रोमन याकोब्सन और चैटमैन भी मुझे सोचने को विवश करते हैं। भारतीय भाषाविदों में सभी मेरे नजदीक रहे। जैसे- पं० विद्यानिवास मिश्र, रवीन्द्रनाथ श्रीवास्तव, भोलानाथ तिवारी, अमर बहादुर सिंह, सुरेश कुमार, सूरजभान सिंह, वी०रा० जगन्नाथन आदि-आदि। इन सबसे मैंने बहुत कुछ सीखा और इन सबने जी भर कर मुझे दिया एक नाम और भी है प्रो० शिवेन्द्र किशोर वर्मा का । मेरे हैदराबाद प्रवास में, जो कि काफी लम्बा था वे बराबर मेरे भाषा वैज्ञानिक ज्ञान को उकसाते रहे । मुझे भाषा-विज्ञान में प्रौढ़ बनाने का काम प्रो० वर्मा ने किया ।

आज के इस वैज्ञानिक और सूचनाक्रांति के युग में आप हिन्दी को कहाँ देखते हैं ? 
हिन्दी हमेशा से सूचना क्रान्ति का अगुवा रही है। हिन्दी पत्रकारिता का इतिहास इस बात को प्रकट भी करता है। भारतेन्दु और द्विवेदी युग में भी आपको किसिम-किसिम की सूचनाओं का भण्डार मिल जायेगा इतिहास, व्यापार, विज्ञान, ज्योतिश और न जाने कितने विषयों पर द्विवेदी युग में लिखा गया। सरस्वती और नागरी प्रचारणी पत्रिका इसके प्रमाण है। आज के युग में भी हिन्दी ने सूचना क्रान्ति में अपनी भागीदारी सिद्ध कर दी है, चाहे वह टी०वी० के चैनल हो, चाहे मोबाइल और इण्टरनेट अथवा संचार माध्यमों की परस्पर सूचना के आदान-प्रदान की प्रविधियों सभी में हिन्दी ने अपनी जगह बना ली है। कम्प्यूटर के माध्यम से भी हिन्दी के जो साफ्टवेयर सामने आये हैं, उनके कारण भाषा-संसाधन और मशीनी अनुवाद को एक दिशा मिली है। हिन्दी एक लचीली भाषा है, उसकी वर्ग और वर्तनी है। उसका व्याकरण भी पूर्णत विश्लेषणीय है, इसलिए सूचना कान्ति के साथ आज हिन्दी चल रही है। और अगले कुछ वर्षों में वह इससे आगे चलेगी। इस बात में कोई सन्देह नहीं है

हिन्दी भाषा और साहित्य की स्थिति हिन्दीतर क्षेत्रों में कैसी है
बहुत अच्छी है। यह बात में दक्षिण भारत में अपने तीस वर्ष के अनुभव के आधार पर कह सकता हूँ लोग हिन्दी सीख रहे हैं, हिन्दी लेकर बी०एम०० व शोध कर रहे हैं। नवयुवक हिन्दी सीखना चाहते हैं और इनमें बड़ी संख्या लड़कियों की है। युवा पीढ़ी हिन्दी के साथ है, ये हिन्दी के लिए आशा भरा संकेत है। यहाँ लोग शोध भी विभिन्न विषयों पर करते हैं। जैसा कि सामान्यतः हिन्दी क्षेत्रों में नहीं हो रहा है। वहीं सिर्फ साहित्य ही शोध के केन्द्र में है, जबकि यहाँ बैंकों की हिन्दी, प्रशासन की हिन्दी, तुलनात्मक साहित्य और तुलनात्मक व्याकरण शोध का लोकप्रिय क्षेत्र है। पिछले कुछ वर्षों में अनुवाद शास्त्र की ओर भी शोधार्थियों की रुचि बढ़ी है । 
दक्षिण में मौलिक हिन्दी लेखन की क्या स्थिति है ?

हिन्दी में खूब मौलिक लेखन हो रहा है, अनुवाद कार्य हो रहा है। हर नगर में हिन्दी के मंच है, कवि है और लेखक है। कवि गोष्ठिया होती है, चर्चा परिचर्चा होती है और गम्भीर संगोष्ठियाँ भी होती है। हमारी सभा की परीक्षाओं में लाखों छात्र प्रतिवर्ष बैठते हैं, हजारों छात्र एम०ए० करते हैं और सैकड़ों शोध करते हैं। कुछ मिलाकर हिन्दीतर क्षेत्रों में में देखता हूँ कि हिन्दी भाषा और साहित्य के प्रति लोगों की रुचि बढ़ती जा रही है।

ऐसा किस तरह सम्भव हो पा रहा है ?

बाजारीकरण और एक जगह से दूसरी जगह जाने की प्रवृत्ति बढ़ने से भी युवक और युवतियाँ सामान्य हिन्दी सीखना चाह रहे हैं, ताकि वे हिन्दी भाषी क्षेत्र में जाकर अपने को अजनबी न महसूस करे दक्षिण के लगभग सभी विश्वविद्यालयों में हिन्दी विभाग हैं, कई में प्रयोजन मूलक हिन्दी के पाठ्यक्रम भी चलते हैं। इस तरह आम जन में भी और शैक्षिक स्तर पर भी हिन्दी आगे बढ़ रही है और बढ़ती ही जायेगी । 
आधुनिक भाषा वैज्ञानिक प्रयोगों के लिए हिन्दी भाषा और साहित्य कहाँ तक उपयुक्त है ?

जैसा कि मैंने कहा हिन्दी एक वैविध्यपूर्ण भाषा है और उसकी साहित्यिक धरोहर अनेक रंगों और छटाओ वाली है। हिन्दी भाषा में और साहित्य में भी भाषा वैज्ञानिक अध्ययन की अकृत संभावनाएं छिपी हुई हैं। आप देखें तो पूरे भारत में हिन्दी के कितने रूप बोले जाते हैं। इन रूपों का आधार भाषा मिश्रण की प्रक्रिया है। इसी तरह हिन्दी क्षेत्रों में बोली मिश्रित हिंदी के न जाने कितने रूप हैं। इन सबका अध्ययन भाषा वैज्ञानिक परातल पर थोड़ा बहुत हुआ भी है और भी होना चाहिए । इसी तरह सामाजिक हिन्दी के ढेरों प्रकार्य हमें मिलते हैं। सर्वनामों के प्रयोग सम्बोधनों के प्रयोग, नाते-रिश्ते के प्रयोग नामों की संरचना आदि कई ऐसे बरावल हैं, जिन्हें भाषा वैज्ञानिक दृष्टि से उभारने पर हमें हिन्दी भाषा समाज की संरचना ही नहीं उसकी मानसिकता का भी बोध हो सकता है ।

और साहित्यिक स्तर पर ?

साहित्यिक धरातल पर भी यदि शैली वैज्ञानिक दृष्टि से हिन्दी के साहित्यिक पाटो का विश्लेषण किया जाय, तो हिन्दी की सर्जनात्मक शक्ति का हमें पता चल सकता है और यह भी कि पाठगत भाषा का शिल्प, पाठ के अर्थ और सौन्दर्य दोनों को किस तरह उठान दे सकता है। ऐसे अनेक क्षेत्र हैं, जो हिन्दी भाषा के भाषा वैज्ञानिक अध्ययन को आधुनिक बना रहे हैं । कई महत्त्वपूर्ण कार्य इस दिशा में हो चुके हैं, कुछ हो रहे हैं और कुछ आगे भी होंगे। क्योंकि आज बाजार की हिन्दी, विज्ञापन की हिन्दी, तकनीकी हिन्दी और सम्पूर्ण संचार माध्यमों की हिन्दी में जो बदलाव आ रहा है, उसे भाषिक विश्लेषण के माध्यम से ही उजागर किया जा सकता है। इस समय हिन्दी बन भी रही है और बिगड़ भी रही है। यह दूरी तरह अवमिश्रित हो रही हैं । पर खिचड़ी भाषा का निर्माण तो अच्छी बात नहीं है ।

कुछ शुद्धताबादी इससे क्षुब्य हैं, जो ऐसा ही मानते हैं। लेकिन हमें यह जानना चाहिए कि भाषा विकास की प्रक्रिया में भाषाओं के बनने-बिगडने, लेने-देने, नियमों से हटने जैसे काम जरूरी होते हैं। जो भाषा ऐसा नहीं कर पाती, वो प्रयोगच्युत हो जाती है। हिन्दी हमेशा से एक जीवन्त और अपने को बदलने वाली भाषा रही है। अपने इसी गुण की वजह से वह देश की सम्पर्क भाषा है और विचार-विमर्श की केन्द्रीय भाषा है । 
कम्प्यूटर में हिन्दी और उसके क्षेत्र में हो रहे अनुसन्धान के सम्बन्ध में बतायें।

प्रयुक्त पिछले कुछ वर्षों में इस दिशा में काफी काम हुआ है। राजभाषा विभाग, गृहमंत्रालय ने हिन्दी के कई सॉफ्टवेयर तैयार किए हैं। सी-डैक पुणे में भी इस तरह के काम चल रहे हैं। आई0आई0टी0 कानपुर, केन्द्रीय हिन्दी संस्थान आगरा, केन्द्रीय हिन्दी निदेशालय, नई दिल्ली भी इस तरह के काम में जुटे हैं। कम्प्यूटर के द्वारा अनुवाद अब संभव हो चुका है। हिन्दी पुस्तकों के प्रकाशन में आदि से लेकर अन्त तक सब कुछ कम्प्यूटरीकृत है। कम्प्यूटर के मस्तिष्क को हिन्दी भाषा भली भाँति समझती है । कम्प्यूटर भी हिन्दी भाषा से संवाद कर ले रहा है । कम्प्यूटर के लिए हिन्दी में व्याकरण और शब्दकोश भी तैयार किए गए हैं। हिन्दी एक आधुनिक और विकसित भाषा है। इसलिए कम्प्यूटर के साथ प्रतिक्रिया करने में उसे कोई कठिनाई नहीं होती । सिमेटिक लेवल पर जरूर अभी रुकावटें हैं, लेकिन ये बाधा भी पार कर ली जायेगी । हिन्दी भाषा वैश्विक स्तर पर विकासमान है, पर भारत में आज भी उसे सर्व स्वीकृत नहीं मिली है, इसके कारण क्या हो सकते हैं ? ये बात गलत है, हिन्दी भारत की बहुभाषिक स्थिति में सम्पर्क भाषा है। इसका यह मतलब नहीं है कि भारत के गाँव-गाँव में हिन्दी बोली जाने लगेगी, इसलिए, सर्व-स्वीकृति का प्रश्न ही नहीं है। भारत में अनेक मातृभाषाएं हैं, उनके बोलने वाले हैं। अतः ये नहीं कहा जा सकता कि हिन्दी को भारत में स्वीकृति नहीं मिली। मैंने पहले भी हिन्दी क्षेत्रों में हिन्दी के प्रति प्रेम है। एक दूसरे से सम्पर्क के लिए आम लोग हिन्दी का प्रयोग भी करते हैं। एक बृहत्तर क्षेत्र की भाषा होने के नाते उसे अन्य भाषा भाषी आर्थिक या सामाजिक कारणों से सीखते हैं। अखिल भारतीय स्वीकृति के लिए वे इसमें लिखते भी हैं, अनुवाद भी करते हैं हो इसमें कोई सन्देह नहीं कि अंग्रेजी का वर्चस्व बढ़ रहा है, बोल-चाल में इसे नहीं बढ़ना चाहिए। इसके लिए हम सब दोषी है। हम अंग्रेजी में बोलकर अपने को शिक्षित समझते हैं। एक बात और हमें अपनी बोलियों को संभालना चाहिए। बोलियों का मोह बढ़ रहा है, लेकिन उसी अनुपात में उन्हें वास जताने का भाव भी बढ़ रहा है। हम आटवी अनुसूची में अपनी बोलियों को जगह दिलाकर खुश है, जबकि उनका प्रचलन घट रहा है। बोलियों के सूखने से हिन्दी को जरूर नुकसान होगा । 
आपने तो विदेशों में भी हिन्दी पढ़ाई है। वहाँ लोग हिन्दी का कौन-सा रूप पसंद करते हैं ?

विदेशों में हिन्दी का जो गवई टेट रूप है, वही पसन्द किया जाता है। वे हिन्दी के माध्यम से भारत को जानना चाहते है। इसीलिए वहाँ आज भी गंगा मैया, गोदान, मैला आंचल पढ़ाया जाता है। कधीर और सूर पढ़ाये जाते हैं। हिन्दी की लोकप्रियता में कोई कमी नहीं है। फिल्मों और टी०वी० ने इसे उत्कर्ष पर पहुंचा दिया है। निराश होने की जरूरत नहीं है। हिन्दी का ये इतिहास है कि वह अनेक विघ्न-बाधाओं को पार करते हुए आगे बढ़ी है। विरोधों के बीच से भी निकली है, लेकिन आज वैसे स्थिति नहीं है। इसलिए भारत में हिन्दी के भविष्य को लेकर मेरे मन में कोई दुश्चिन्ता नहीं है। 
भाषा विज्ञान और हिन्दी भाषा के प्रति हिन्दी भाषी समाज का विद्यार्थी जागरूक नहींहै, इसके क्या कारण हो सकते हैं ? 
जागरूक होना चाहिए। अपनी भाषा के बारे में जानने की ललक कम हुई है। हिन्दी क्षेत्रों में भाषा विज्ञान भी नहीं है। जिन्हें हिन्दी भाषा विभाग होना चाहिए था, वे हिन्दी साहित्य विभाग बनकर रह गये हैं। इसके दुष्परिणाम छात्रों को भुगतना पड़ रहा है। अब देखिए कि राजभाषा हिन्दी का इतना विस्तृत क्षेत्र है। कितनी नौकरियों है। लेकिन हिन्दी राज्यों के एम000 पास बच्चों को ये नौकरियाँ नहीं मिल सकती, क्योंकि वे न तो प्रयोजनमूलक हिन्दी में प्रशिक्षित हैं और न ही अनुवाद शास्त्र में यहां में यह भी कह दूं कि के भारत में अंग्रेजी का सामान्य ज्ञान अनिवार्य है। अंग्रेजी हमारी कोले हम ही नहीं, ये गलत है

हिन्दी भाषा में व्यापक स्तर पर अन्य भाषाओं के शब्द प्रयुक्त हो रहे हैं, इससे हिन्दी पर प्रतिकूल प्रभाव तो नहीं पड़ेगा ?

ऐसा नहीं होता। आदान-प्रदान भाषा विकास का एक हिस्सा है। दुनिया की हर भाषा में ऐसा होता रहा है। अंग्रेजी भाषा में ही भारतीय मूल के लगभग 3000 शब्द है। दूसरी भाषाओं में शब्द लेकर पचाने और अपना बनाने की हिन्दी में अकृत क्षमता है। ऐसा उसे करते रहना चाहिए और वो करती रहेगी, क्योंकि हिन्दी की भाषा है।

भारतीय भाषाओं की भावी संभावनाओं को आप किस रूप में देखते हैं ?

भारतीय भाषाओं का भविष्य हिन्दी के साथ और हिन्दी का भारतीय भाषाओं के जुड़ा है। इस भाषिक पदार्थ को हमें अच्छी तरह समझ लेना चाहिए। राष्ट्र हमेशा भाषाई सामंजस्य, सहयोग, सहभागिता और संतुलन से बनता और करता है। भारत के भाषाई इतिहास में ऐसा ही होता रहा है। भारतीय भाग सक्षम है। उनके प्रयोक्ता अपनी भाषाओं से भरपूर प्यार करते हैं और इनमें किताबों, पत्रिकाओं और चारों की कोई कमी नहीं है। टी०वी० पर इनके अपने-अपने चैनल है। कहा जाय कि सभी भारतीय भाषाएं पूर्णतः विकसित हैं और विकास की हर प्रक्रिया के साथ जुड़ने को तत्पर है। इन सभी भाषाओं में अपार शक्ति है। 
और एक राष्ट्रलिपि ?

भाषाओं की इस शक्ति को देखते हुए ही एक लिपि की बाध्यता नहीं बनती चाहिए। प्रत्येक भारतीय भाषा की अपनी लिपि है और इनका अपना ऐतिहासिक महत्त्व भी हो एक बात हो सकती है और वो शायद भिन्न भाषा भाषियों को जोड़ने की दृष्टि से महत्वपूर्ण भी लगे कि हिन्दीत्तर क्षेत्रों में सूचना के स्तर पर कुछ चीजें देवनागरी में करकेखी जायें। जैसे बसों पर गंतव्य स्थानों के नाम, इलाकों के नाम, सड़को पर दी गई सूचनाएं आदि। जिससे कि हिन्दी पढ़ना जानने वाले लोगों को सुविधा हो सकती है। एक लिपि हो, आदर्श स्थिति तो है, लेकिन व्यावहारिक कतई नहीं। 
क्या भाषा के विकास एवं समृद्धि के लिए लोक भाषा और लोक कला के संरक्षण की भूमिका है ? क्यों ?

इसके कई कारण है। अगर सिर्फ हिन्दी की बात करे तो इसकी अनेकों बोलियाँ और उपयोलिया है। इन बोलियों से बहुत बहुत कुछ लेकर ही हिन्दी भाषा का प्रासाद खड़ा है तो इन्हें बचाये रखना होगा । लोक हमेशा जीवन का साथ देता है। संस्कार रीति-रिवाज, रहन सहन और यहाँ तक कि प्रकृति के साथ हमारी अनिवार्य सम्बद्धता को मी लोक बखानता है। कहा जा सकता है कि लोक ही जड़ होता है, जिससे हमारे जीवन का पौधा सहकता और विकसता है। लोकभाषा इन सबको संभाले रखती है। उसकी व्यंजन शक्ति का तो कोई जबाब ही नहीं हिन्दी की कई लोक बोलियों का साहित्य संभावना है। और अन्य लोक कलाएँ भी तो ही लोक-नृत्य, लोक गायन, लोक कला इन सबकी लम्बी परम्परा रही है आज भी जीवित है, लेकिन इनकी रेखाएं आधुनिकता के बवडर में घूमल हो रही है। उदाहरण के लिए मधुबनी चित्रकला का विस्तार कम हो रहा है, बिरहा, कजरी, फाग आभ जनता से दूर हो रहे हैं। बाजार इन सबको लील रहा है। लोक कलाओं का बाजारीकरण हो चुका है। ये संकट के संकेत है, किसी भी तरह से चाहे लोक जागरण से, चाहे सरकारी प्रयास से चाहे छोटे-छोटे संगठनों के माध्यम से इन्हें पुनर्जीवित करने की जरूरत है अगर लोक भाषा और लोक कलाएं नहीं रही तो हम भी पूरे मनुष्य नहीं रह सकेंगे।
बतौर भाषा भोजपुरी बोली का विकास तेजी से हो रहा है, जबकि अन्य भारतीय भाषाएँ एवं बोलियाँ इससे काफी पीछे हैं। आपकी दृष्टि में इसके क्या कारण है ? 
इसकी एक वजह यह है कि भोजपुरी हिन्दी भाषा क्षेत्र की अन्य बोलियों की तुलना में एक बड़े भू-भाग की बोली है। उत्तर प्रदेश और बिहार के बड़े हिस्से की यह बोली है। नेपाल में भी यह प्रचलित है। इसके अनेक रूप भी हैं, जैसे किसी भाषा के होते हैं। बनारस, बलिया, पटना और गोरखपुर की भोजपुरी में अन्तर है। केवल शब्द के स्तर पर ही नहीं, क्रिया के स्तर पर भी इतने बड़े भूभाग की बोली भोजपुरी है, उसका लोक पक्ष भी उतना ही व्यापक है। उसमें लिखने वाले भी हैं। देश-विदेश दोनों जगह भोजपुरी के व्याकरण लिखे गये हैं उसके मानकीकरण की बात उठती रही है। तो ये संख्या की बात है । जिसके बोलने वाले ज्यादा होंगे, बो बोली या भाषा लोकप्रिय तो होगी ही।

फिल्में भी तो भोजपुरी की लोकप्रियता को बढ़ावा देती रही हैं ....
आपने ठीक कहा । भोजपुरी में अन्य क्षेत्रीय बोलियों या भाषा की सबसे ज्यादा फिल्में बनती हैं। ये फिल्में अच्छा कारोबार भी करती हैं। इनमें हिन्दी फिल्मों के बड़े-बड़े स्टार काम करने को आतुर होते हैं। हिन्दी फिल्मों में चाहे किसी भी प्रान्त के गाव, देहात के पात्र हों, उनसे भोजपुरी ही बुलवाई जाती है। अगर सिर्फ भोजपुरी फिल्मों की लोकप्रियता की बात करें तो लखनऊ, कानपुर, दिल्ली, बम्बई में भोजपुरियों की बड़ी संख्या है। एक बात और जोड़ सकते हैं कि हिन्दी साहित्य में जो बड़े गयकार या कथाकार हुए हैं, उनमें से ज्यादातर भोजपुरी भाषी हैं। अपने लेखन में भी उन्होंने भोजपुरी का सृजनात्मक उपयोग किया है। भारतेन्दु से लेकर अब्दुल बिस्मिल्लाह तक इस परम्परा को चिन्हित किया जा सकता है। आज के बड़े हिन्दी कवि भी भोजपुरी पृष्ठभूमि से आये है। - केदार नाथ सिंह, अष्टभुजा शुक्त, जितेन्द्र श्रीवास्तव, अनामिका कुछ नाम हैं, जिनकी कविताओं में भोजपुरी का रस फूट-फूट पड़ता है। इसमें कोई शक नहीं कि पूर्व भारत की एक बड़ी और धार्मिक भाषा है भोजपुरी ।
आपकी अभी नई पुस्तकें भाषा वैज्ञानिक विश्लेषण पर आयी है। इस बारे में विस्तार से बताये ।

पुस्तकें तो पहले भी आयी सभी मेरे रूचि क्षेत्र से सम्बन्धित है काफी पहले जब बाजार की हवा नहीं चली थी, तब मैंने 'व्यावसायिक हिन्दी' नाम की एक पुस्तक तैयार की थी जिसमें विज्ञापन की हिन्दी पर भी एक विश्लेषणात्मक अध्ययन था। बाद में शैली विज्ञान और अनुवाद पर कुछ पुस्तके संपादित की और उनमें लिखा भी अच्छी प्रतिक्रिया मिली। मेरा क्षेत्र अनुप्रयुक्त भाषा विज्ञान है और उसकी सभी शाखाओं पर काम किया है। काम की अधिकता से पुस्तकें तैयार न कर सका। इस बीच प्रकाशकों का दबाव बना तो एक पुस्तक अपने व्याख्यानों की तैयार की भाषा साहित्य और संस्कृति शिक्षण । ये व्याख्यान मैंने 'केन्द्रीय हिन्दी संस्थान के हैदराबाद केन्द्र में दिया था। दूसरी पुस्तक पाठ-विश्लेषण है। इसमें हिन्दी के साहित्यिक पाठो का भाषा वैज्ञानिक धरातल पर विश्लेषण किया गया। तीसरी किताब 'भाषा का संसार नाम से प्रकाशित है, जिसमें से कोशिश की गई है कि आधुनिक भाषा विज्ञान की संकल्पनाओं को और दृष्टि को आसान ढंग से समझा-समझाया जा सके। इस पुस्तक में हिन्दी के 13 भाषा वैज्ञानिकों के अवदान का लेखा-जोखा भी है। तीनो पुस्तकें पसन्द की जा रही हैं। ये मेरे लिए सन्तोष की बात है। कुछ पुस्तकें प्रेस में हैं। कुछ पर काम चल रहा है। इस समय हिन्दी में भाषा वैज्ञानिक लेखन का अभाव दीख रहा है। ये कमी पूरी हो इस कोशिश में हूँ, देखू कहाँ तक कर पाता हूँ ।

 हिन्दी के युवा विद्यार्थियों के लिए क्या सन्देश है ?

सन्देश या उपदेश देना मेरा काम नहीं है। जो हिन्दी का विद्यार्थी होता है और शायद आपका तात्पर्य हिन्दी का उच्च अध्ययन करने वाले विद्यार्थियों से है, इसलिए में समझता हूँ कि वे प्रबुद्ध भी होते हैं और हिन्दी के लिए उनके मन में लगाव का भाव भी होता है। जब हम अपनी भाषा की ओर मुड़ते हैं, तो सबसे बड़ी दरकार तो यही होती है कि हम उसके बारे में और उसमें लिखा हुआ खूब पढ़ें चाहे अपनी रुचि का ही पढ़ें। हिन्दी का भण्डार भरा पूरा है। इसमें सबको अपने काम की चीज मिल जाती है। हिन्दी भाषा का इतिहास, हिन्दी के व्याकरण, हिन्दी भाषा और साहित्य को लेकर पनपने वाले नये नये विचारों का भी युवकों को पूरा-पूरा मान होना चाहिए। हिन्दी में आज ढेरों पत्रिकाएँ प्रकाशित हो रही है। इन्हें पढ़ने, इनके लिए लिखने का उपक्रम भी बढ़ना चाहिए । हिन्दी में खूब नयी प्रतिभाएं आ रही है। इसकी मुझे खुशी है । अब तो इण्टरनेट पर भी हिन्दी साहित्य, साहित्यकार, पत्रिकाओं, अखबारों के बारे में बहुत कुछ है । ज्ञान के हर क्षेत्र में हमें एक विस्तीर्ण दृष्टि पैदा करनी होती है और आत्मीय भाव भी। इन दोनों के साथ चलें, 



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  1. सर जी, हमारे हिंदी की अनमोल निधी है

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