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Showing posts from March, 2023

भाषा और भाषाई व्यवहार

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https://www.youtube.com/live/EFlJhb0eqaw?feature=share भाषा भाषा का संसार अपने आप में बहुत ही व्यापक और विस्तृत है । भाषा अपने व्यक्तित्व में बहुआयामी एवं वैविध्यपूर्ण है । भाषा के होने की सबसे बड़ी सार्थकता उसके चेतन होने में है । भाषा अपने स्वरूप में चर है, जो निरंतर समय और समाज के अनुरूप प्रवाहित होती रहती है । आज के तकनीकी और प्रचंड भौतिकता के दौर में भाषा बहुरूपी होती जा रही है ,क्योंकि भाषा एक साथ कई स्तरों पर सक्रिय रहती है । भाषा की यही सक्रियता उसे समय की यात्रा में आगे जाने में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह करती है । समाज, संस्कृति, राजनीति और अर्थतंत्र के मोर्चों पर भाषा का नियोजन एक महत्वपूर्ण भाषा कार्य है । इन सभी आयामों के बीच सामंजस्य स्थापित करते हुए हिंदी भाषा निरंतर वैश्विक स्तर पर अपनी पहचान बनाये हुए है । हिंदी भाषा की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि यह भाषा लोक जगत के अनुभवों का सामंजस्य ई-जगत के बड़ी आसानी से कर रही है । हिंदी वर्तमान में तेजी से विकसित हो रही है ,इसके पीछे सबसे बड़ा कारण हिंदी की उदारता है । भाषिक अधिग्रहण के कारण आज हिंदी में दुनिया भर की भाष

रेत हो जाना

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कुछ लोगों के हिस्से में पीड़ाएं ही आतीं हैं ,और वो भी बेहिसाब। घर,परिवार ,दोस्त और सभी रिश्तों में उन्हें सिर्फ रेत समझा जाता है। एक ऐसा रेत जो किसी के हाथ में टिकता ही नही ,शायद लोग रेत समझ कर पकड़ना ही नही चाहते । रेत होना अपने आप में बहुत विशिष्ट है। रेत का कोई आकर नहीं होता , जब पहाड़ों से टूटकर नदी और झरने के साथ एक टुकड़ा चलता है तो शायद उसे अपनी नियति मालूम ही नहीं होती । वह तो प्रवाह में चल देता है,नदी की धारा के साथ । तमाम कूलों और किनारों से टकराता हुआ वह खुद को रेत के रूप में पाता है ।  अज्ञेय की कविता है नदी के द्वीप ।जिसमें उन्होंने बहना रेत होना कहा है , द्वीप का समर्पण स्थिर होता है। द्वीप और रेत होना अपनी नियति है । बेहिसाब पीड़ाएं हमें रेत बनाती हैं। जब पैर टेकने के लिए जमीन हो ही नही तब द्वीप होना भी अप्रासंगिक हो जाता है । रेत होना एक नियति है।   नदी के द्वीप (अज्ञेय) हम नदी के द्वीप हैं। हम नहीं कहते कि हमको छोड़कर स्रोतस्विनी बह जाए। वह हमें आकार देती है। हमारे कोण, गलियाँ, अंतरीप, उभार, सैकत-कूल सब गोलाइयाँ उसकी गढ़ी हैं।   माँ है वह! है, इसी से हम बने

ययावरी

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आज फिर से गब्बर शान्त और उदास बैठा अपने उन दिनों के स्मृतियों के जंगल में खोया हुआ था। ना जाने आज क्यूँ आज वह इतना बेचैन था उस जंगल में खो जाने के लिए। अचानक से बगल में रखे मोबाइल की ध्वनि से उसकी तन्द्रा टूटी और उसने देखा और फिर मन में जम आये उस जंगल में खो गया। आज उसके चारो ओर सुख-सुबिधाओं का अम्बार लगा हुआ है लेकिन जो सुख उस परम अभाव उस जंगल में उसे मिलता था वह आंखों से बहुत दूर निकल गया है या कहें कि समाज की प्रतिबद्धता और रुढियों ने छीन लिया था। आज भी वह स्वयं को विखेरना चाह रहा है। अचानक से छत पर चल रहे फैन ने मानो यह संदेश दिया, बिना भावनाओं के चलना हमारी नियति है। तभी फिर स्मार्ट फोन बज उठा और मशीनों सा इंसान उदास और भारी मन से चल दिया। चलना ही यायावरी नियति। (यायावर)

कुछ किस्से, जो आए मेरे हिस्से

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दुनियादारी अब और नहीं, इसी दुनिया की भीड़ में इंसान अकेला और नितांत अकेला होता जा रहा है। इस दुनिया की भीड़ से एकान्त का कलरव बहुत ही प्रीति कर है। जहां एक ओर स्मृतियों का जंगल उगा हुआ है और दूसरी ओर उस जंगल के में निनाद करते हुए झरने और नदी सा प्रवाह। ऐसा प्रवाह जिसे भविष्य और भवितव्य की चिंता और वर्तमान की परवाह नहीं , और सामाजिक नीति नीति के निर्वहन का बंधन नहीं। एक ऐसा एकान्त जिसमें मन को रवाना आसान तो नहीं ,लेकिन अगर मन रम गया तो दुनिया और दुनियादारी कहां इसकी भी फिक्र नहीं। चलो कोशिश करते हैं मन को उसी दुनिया में रमाने की जहां बेपरवाही और बेपरवाही हो, रमण और एकान्त का रमण ही प्रधान हो। चलो अब किसी और शहर चलते हैं , बहुत हो गए दोस्त और दुश्मन इस शहर में  कुछ नए दोस्त , दुश्मन बनाते हैं  चलो अब किसी और शहर में बसते हैं  कुछ सलीके नए होंगे  कुछ तरीके नए होंगे  कुछ ख्वाब नए होंगे  कुछ अंदाज नए होंगे । ये पुराने अंदाज बदलते हैं चलो अब नए शहर में रहते हैं। मां - तेरी बहुतेरि बातें जेहन में उभर आतीं हैं आज भी यही महसूस होता है। बचपना गया ही नहीं अक्सर तेरी बातें अनसुना कर देता था