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सहजता और सम्पूर्णता के संत: रैदास( डॉ.अमरेन्द्र कुमार श्रीवास्तव)

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भारतीय समाज में आध्यामिकता और भक्ति की चेतना का प्रवाह अनादि काल से चला आ रहा है । भारतीय  समाज का शायद ही कोई ऐसा वर्ग या समुदाय जिसमें आध्यात्म और भक्ति की चेतना देखने को ना मिलती हो । विश्व की प्राचीनतम संस्कृतियों में प्रमुख और जीवन्त भारतीय संस्कृति प्रारम्भ से दो अवधारणाओं का अस्तित्व निरंतर बना रहा है । एक भौतिकवादी है जो जड़ पदार्थ से सृष्टि की उत्पत्ति मानती है और दूसरी धारा यह मानती है कि ज्ञान या चेतना पहले पैदा हुआ । इसका मूल वेदों में देखने को मिलता है । हमारे देश की संस्कृति में आध्यात्मिकता का विशेष प्रभाव देखने को मिलता है । भारत में यह चेतना अनादि काल से समाज को पुनर्नावित करने की दिशा में प्रयास करती रही है । इसी पुनर्नवन की परम्परा में भारत के सभी वर्गों के लोगों ने अपने-अपने ढंग से समाज के जागरण में अपनी-अपनी महती भूमिका का निर्वहन किया है । भारतीय समाज की ऐसी संचरना है कि समाज के सभी वर्गों के लोगों ने अपने-अपने ढंग से अपनी-अपनी मान्यताओं को जाना एवं माना है । हमारे यहाँ जितने मत-मतान्तर देखने को मिलते हैं , उतने शायद ही दुनिया के किसी भू-भाग पर देखने को मिलते हों ।

रैदास का काव्य सृजन :संवेदना और दृष्टि( डॉ0 नरेन्द्र कुमार ,असिस्टेंट प्रोफेसर, हिन्दी विभाग, दीनदयाल उपाध्याय गोरखपुर विश्वविद्यालय, गोरखपुर)

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‘‘जाके कुटुंब सब ढोर ढोवंत फिरहिं अजहुँ बानारसी आसपासा। आचार सहित बिप्र करहिं डंडउति तिन तनै रविदास दासानुदासा।।’’ रामानन्द के शिष्य परम्परा में रैदास का विशिष्ट महत्व है। निगुर्ण संत काव्य परम्परा को अपनी विशिष्ट भंगिमा से एक नया अर्थ दिया और संत काव्यधारा का मनुष्यतावादी चेतना से सम्पन्न किया, उन्होंने स्वयं लिखा है कि - नामदेव कबीर तिलोचन सधना सेन तरै। कह रविदास, सुनहु रे संतहु! हरि जिउ तें सबहि सरै।। (चित्र :गूगल से साभार ) संत रैदास का प्रादुर्भाव ऐसे समय में हुआ जब भारतीय समाज का मध्यकाल सामाजिक और धार्मिक दृष्टिकोण से काफी उथल-पुथल के दौर से गुजर रहा था। इस्लामिक शासकों की क्रूरता और धार्मिक कट्टरता से हिन्दू त्रस्त था तो दूसरी तरफ हिन्दू धर्म बिखराव की स्थिति में था। वर्णवादी व्यवस्था की मार से हिन्दू समाज के निचले वर्ण के लोग त्रस्त थे। वे मानवीय स्तर से नीचे गिरा दिये गये थे। ऐसे समय में कई क्रातिकारी संत कवियों का अभ्युदय हुआ जिन्होंने समानतामूलक पदों की रचना कर समाज रूपी माला के बिखरे मोतियों को एकता की डोर में पिरोने का काम किया। वैसे संत जिन्होंने अपने सामाजिक क्रांतिकारी