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Showing posts from July, 2023

युद्ध और हम

तुमने पूछा था, तो कहती हूँ, हाँ मैं गई थी, कोलोन में जहाँ मेरे माता-पिता रहते थे..... वे तब भी जीवित थे.... लेकिन हमारा घर, वह कहीं नहीं था.... पडोस के सारे मकान लड़ाई में ढह गए थे..... और तब मुझे पहली बार पता चला कि जिन स्थानों हम रहते हैं, अगर वे न रहें.... तो उनमें रहनेवाले प्राणी, वह तुम्हारे माँ- बाप ही क्यों न हों.....बेगाने हो जाते हैं...जैसे उनकी पहचान भी ईंटों के मलबे में दब जाती हो...." कैसे दीखते होंगे वे शहर,  जिन्हें युद्ध के सनकी तानाशाहों ने  अपने सनक में बर्बाद कर दिया  कुछ बम- बारुद की गंध  उजड़े मकान  इन्सानियत के मलबे में  कराहती मानवता  और चारो ओर बिखरी  हुई होंगी  निशानी - कुछ बचपन की, कुछ यौवन की  और हसरतों के धुएं में  सुलगता हुआ शहर  जहाँ कभी  स्कूलों और अस्पतालों में  जीवन सजता था। 

मैं वह धनु हूँ

मैं वह धनु हूँ,  जिसे साधने में प्रत्यंचा टूट गई है। कथाकार ,कवि एवं गम्भीर चिन्तक अज्ञेय मेरे भाव जगत के बहुत निकट हैं। कारण तो मेरे अन्तर्यामी ही जानते होंगे। फिर भी बहुत कुछ हमारे जीवन का हमारे प्रारब्ध और ना जाने कितने जन्मों का संचित कर्म होता है, शायद मेरी इस बात से कम लोग ही इतेफाक रखते हों ,लेकिन मैं व्यक्तिगत रुप से यही मानता हूँ। हम अपने जीवन काल में बहुत से लोगों से मिलते जुलते हैं,लेकिन कुछ लोगों हम पहली दूसरी मुलाकात में ही जान जाते हैं कि इस व्यक्ति के साथ हमारी अच्छी निभेगी। ऐसी ही हमारी अज्ञेय जी के रचना संसार के साथ निभ रहा है। ना जाने क्यूँ अज्ञेय मुझे कुछ ज्यादा ही खींचते हैं अपनी ओर ।  स्खलित हुआ है बाण , यद्यपि ध्वनि, दिगदिगन्त में फूट गयी है-- मैं वह धनु हूँ की ये पंक्ति हमें जीवन में सब कुछ समय पर छोड देने की सूझ देता है। प्रत्यंचा का टूटना और बाण का स्खलित होना और फिर ध्वनि का  दिगदिगन्त में गूंजायमान होना अपने आप में अलग ध्वन्यार्थ प्रस्तुत करता है । जिसे कवि आगे की पंक्तियों में हमारे सम्मुख रखता है - प्रलय-स्वर है वह, या है बस मेरी लज्जाजनक पराजय, या कि सफलता

रिक्त स्थानों को भरें

 बचपन में प्रायः परीक्षाओं रिक्त स्थानों की पूर्ति कीजिये जैसे प्रश्न आते थे और हम अक्सर उस रिक्त स्थान को भर लेते थे, लेकिन अब वही रिक्त स्थान खाली ही रह जा रहे हैं, और हम इस खालीपन से भरते जा रहे हैं। अपना शहर छूटा,संगी - साथी छूटे,प्रेम छूटा, माँ-बाप छूटे और बहुत कुछ छूटा । और हम खाली होते चले गये। अब तो खालीपन ही भर गया है। जीवन में कभी-कभी हम ऐसे मोड़ पर पहुंच जाते हैं इस जहां से लौटना मुश्किल कि नहीं नामुमकिन होता है ऐसे समय का खालीपन हम किसी भी हाल में भर सकने में सक्षम नहीं होती हैं और यह खालीपन  धीरे हमारे जीवन में इस कदर भर जाता है किउसमें किसी और की गुंजाइश बचती ही नहीं, यह हमारे मानव जीवन की सबसे बड़ी विडंबना है कि हम हमेशा से अपने मनपसंद जगह को अपने मनपसंद लोगों को और अपनी मनपसंद आबोहवा को छोड़कर नई मंजिल तलाशते हैं .और उस मंजिल में जो जीत सकता भर आती है वह बड़ी ही पीड़ादायक होती है जिसे हम सिर्फ महसूस कर सकते हैं किसी के समक्ष अभिव्यक्त नहीं कर सकते।