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Showing posts from July, 2022

मेरे अपने

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 मेरे अपने मेरे मालिक !  बस इतना ही ख्वाहिश है मेरी मेरा घर मेरा शहर और मेरे अपने मुझे ताउम्र जानते पहचानते और मानते रहंे। जब गैरों के शहर और नगर से वापस अपने कस्बे में आता हूँ तो हर वक्त हर साख मेरे अन्दर समा जाती है। वो गलियाँ, वो बाजार सब जिन्दगी के उन पलों की कहानी सुनाते फिरते हैं जिनमें हम पले बढ़े।  चिरैया मुझे सीखना है अभी बहुत कुछ- चिरैया से, ताल-तलैया से, उस माटी से पानी-हवा से, जंगल-जानवर से, निःस्वार्थ प्रेम करने और दूसरों के लिए जीने का ढंग जो मुझे अब तक आया ही नहीं। ताउम्र पढ़ने और लोगों के साथ रहकर भी। अरे ओ! चिरैया तू कैसे कर लेती है बिना कुछ कहे। कोशिश कर रहा हूँ। उस भाव और भाषा को जानने और समझने की। जो अभी हमसे दूर अभी बहुत दूर है। उस जंगल में  जीव में अपनी पूरी जिन्दादिली के साथ  जहर अमृत पीकर कौन, अमर हुआ। शायद जमाने को मालूम नहीं मगर जहर पीकर मीरा अमर हो गयीं और  शंकर भी महादेव हो गये।  परिन्दें घोंसले ही नियति नही हैं परिन्दों की आसमानों और ऊंचाइयों की दूरियां भी उनकी मंजिल नहीं। यायावरी और जोखिम है हर पल उनके जेहन में। ना घर ना शहर और ना ही

लोक परम्परा की गहन संवेदना का आख्यानः रसप्रिया

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हिन्दी कथा साहित्य और हिन्दी समाज में अत्यंत घनिष्ठ संबंध देखने को मिलाता है। फणीश्वर नाथ रेणु हिन्दी साहित्य के एक ऐसे कथाकार हैं, जिन्होंने अपने कथा साहित्य के माध्यम से हिन्दी साहित्य जगत को लोक के राग-रंग से विधिवत परिचित कराया और लोक जीवन की विविध छटाओं को साहित्य के कैनवास पर जीवंत किया। इस दृष्टि से मैला आंचल आपकी और हिन्दी साहित्य की एक महनीय उपलब्धि है। रेणु ने हिन्दी कथा साहित्य को एक नये लोक से ना सिर्फ परिचित कराया वरन जीवन के समस्त राग-विराग-रंग और बदरंग को हमारे समक्ष रखा भी ।आपके उपन्यास मैला आँचल के अतिरिक्त आपकी कहानियों में भी लोक परम्परा की अपूर्व छटा देखने को मिलती है। रसप्रिया आपकी लोक रस ,आस और विश्वास से सराबोर कहानी है, जिसमें लोक परम्परा में लुप्त हो गीतों की गहन चिंता के साथ-साथ लोक विश्वास का अंकन अत्यंत जीवंत रूप में देखने को मिलता है । लोक परम्परा के प्रति गहरी चिंता का भाव रसप्रिया कहानी में  मिरदंगिया के माध्यम से  रेणु ने प्रस्तुत किया है। भाव और भाषा की दृष्टि से यह कहानी अपने आप में विशिष्ट है।  हिन्दी साहित्य के इतिहास पर दृष्टिपात करें तो यह देखने को

समकालीन कथा साहित्य में नारीवाद: एक दृष्टि( सुश्री सुप्रिया सिंह शोधार्थी- राँची विश्वविद्यालय, राँची)

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समकालीन शब्द ‘सम’ उपसर्ग तथा ‘कालीन’ विशेषण के योग से बना है। सम उपसर्ग का प्रयोग प्रायः साथ-साथ के अर्थ मे होता है। ‘समकालीन’ का अर्थग्र्रहण किया जाता है ‘समय’ के साथ’। हिन्दी कथा साहित्य ने आदिकाल, भक्तिकाल, रीतिकाल आधुनिक काल से होकर समकालीन साहित्य तक अपना सफर तय किया। आदिकाल, भक्तिकाल और रीतिकाल में काव्य अपने चरम पर पहुँचा, लेकिन आधुनिक काल से लेकर समकालीन समय में गद्य विधा अपना परचम लहरा रही है। समकालीन होने से तात्पर्य- अपने समय के महत्वपूर्ण समस्याओं उनसे उत्पन्न तनावों और चिंताओं को झेलते हुए उनके समस्या समाधान की ओर दृष्टि करते हुए, अपनी सर्जनात्मक क्षमता द्वारा अपने होने का एहसास समाज को दिलाना। हिन्दी साहित्य में सन् 1960 ई0 के बाद के साहित्य को ‘समकालीन साहित्य’ कहा जाता है। आज केवल पुरूष ही नहीं महिला लेखिकाओं ने भी अपने साहित्य सृजन के माध्यम से समाज को नयी दृष्टि देने के लिए प्रतिबद्धता दिखाई है। 1960 के बाद महिला कथाकार बड़ी चतुराई से समाज की विषमताओं का मुँह तोड़ जवाब देने साहित्य में उतरी और समकालीन महिला लेखन परम्परा का सूत्रपात किया। पुरूष लेखकों के साथ कंधे से

मीडिया का बदलता स्वरूप और हिन्दी भाषा: डॉ. पूजा वैष्णव

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  आधुनिक युग सूचना प्रौद्योगिकी का युग है, जिसका महत्त्वपूर्ण आधार ‘मीडिया’ है। मीडिया अर्थात् ‘मीडियम’ या ‘माध्यम’। जो समाचार पत्र, रेडियों, टेलीविजन, कम्प्युटर, इंटरनेट आदि विविध रूपों में आमजन तक सूचना को प्रसारित करता है। अतः मीडिया एक ऐसी शक्ति है जो मानव युक्ति के सारे पर्याय प्रस्तुत करती है।  सम्भवतः इसलिए मीडिया समाज के विभिन्न वर्गों, शासन की प्रमुख इकाईयों, व्यक्तियों और संस्थाओं के बीच सेतु का कार्य करता हैं क्योंकि वह समाज, साहित्य, संस्कृति, दर्शन, विज्ञान और प्रौद्योगिकी के व्यापक प्रसार, मानव संघर्ष और प्रगति का वक्ता है और वही समाज में संवाद वहन करने की भूमिका भी अदा करता हैं। दूसरे शब्दों में मीडिया उस व्यापक सत्ता का नाम है, जो अत्यन्त प्रभावशाली और अधिकार सम्पन्न है। जिसके बिना सामाजिक जीवन के उत्थान की कल्पना तक नहीं की जा सकती हैं।  मीडिया की संवाद वहन करने की इस शक्ति का प्रमुख हथियार उसकी भाषा है, जिसके माध्यम से वह समाज को आईना दिखाने, जरूरत के वक्त मशाल बनकर बेहतर की ओर संकेत करने, नयी ऊर्जा और शक्ति के  नये स्रोतों की ओर जनमानस को मुख़ातिब करने का कार्य करत

स्वच्छन्दतावाद और पन्त : डॉ. अमरेन्द्र कुमार श्रीवास्तव

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  (चित्र -साभार ,गूगल ) साहित्य-आन्दोलन अपने भूखण्ड के सामाजिक दबावों की उपज होते हैं और उनके रूपायित होने में वहाँ की परिस्थितियाँ अपना विशेष प्रभाव डालती हैं। इसलिए जब कभी रचना-आन्दोलन के आरम्भिक दौर को जानना हो, तो ईमानदारी से उन परिस्थितियों की तलाश करनी चाहिए, जिन्होने एक विशेष भाव जगत को जन्माया। हिन्दी का छायावादी काव्यान्दोलन एक ऐसा आन्दोलन है जिसके सन्दर्भ में स्वच्छन्दतावाद शब्द का प्रयोग भी किया जाता रहा है। वैसे तो हिन्दी स्वच्छन्दतावाद का आरम्भ घनानन्द के काव्य से माना जा सकता है, लेकिन जिस रूप में आधुनिक  युग में स्वच्छन्दतावाद का प्रयोग हुआ है वह इस युग की विशेष उपलब्धि है। इसकी आरम्भिक प्रेरणा पाश्चात्य स्वच्छन्दतावाद से रही है, लेकिन उसका विकास भारतीय समाज की राजनीतिक, सामाजिक परिस्थितियों में हुआ ।              स्वच्छन्दतावाद की चर्चा करते हुए हिन्दी में उसे प्रायः छायावाद तक सीमित कर दिया जाता है, और इन दोनों को लगभग समानार्थी स्वीकारने की पद्धति-सी चल पड़ी किन्तु उसके सम्पूर्ण आशय को समझना होगा। स्वच्छन्दतावाद एक व्यापक शब्द है और हिन्दी का छायावादी काव्य उसकी सम्पूर