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रेत हो जाना

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कुछ लोगों के हिस्से में पीड़ाएं ही आतीं हैं ,और वो भी बेहिसाब। घर,परिवार ,दोस्त और सभी रिश्तों में उन्हें सिर्फ रेत समझा जाता है। एक ऐसा रेत जो किसी के हाथ में टिकता ही नही ,शायद लोग रेत समझ कर पकड़ना ही नही चाहते । रेत होना अपने आप में बहुत विशिष्ट है। रेत का कोई आकर नहीं होता , जब पहाड़ों से टूटकर नदी और झरने के साथ एक टुकड़ा चलता है तो शायद उसे अपनी नियति मालूम ही नहीं होती । वह तो प्रवाह में चल देता है,नदी की धारा के साथ । तमाम कूलों और किनारों से टकराता हुआ वह खुद को रेत के रूप में पाता है ।  अज्ञेय की कविता है नदी के द्वीप ।जिसमें उन्होंने बहना रेत होना कहा है , द्वीप का समर्पण स्थिर होता है। द्वीप और रेत होना अपनी नियति है । बेहिसाब पीड़ाएं हमें रेत बनाती हैं। जब पैर टेकने के लिए जमीन हो ही नही तब द्वीप होना भी अप्रासंगिक हो जाता है । रेत होना एक नियति है।   नदी के द्वीप (अज्ञेय) हम नदी के द्वीप हैं। हम नहीं कहते कि हमको छोड़कर स्रोतस्विनी बह जाए। वह हमें आकार देती है। हमारे कोण, गलियाँ, अंतरीप, उभार, सैकत-कूल सब गोलाइयाँ उसकी गढ़ी हैं।   माँ है वह! है, इसी से हम बने