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निराला के काव्य में व्यंग्य

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 'निराला' काव्य में छायावादी चेतना की शुभता और सूक्ष्मता से हटकर प्रगतिशील चेतना का यथार्थवादी रंग भी उपलब्ध है। इसी रंग में वे कभी व्यंग्य से और कभी विनोद से भी काम लेते रहे हैं। उनके व्यंग्य भाव में सामाजिक विषमता के प्रति विद्रोह भी प्रतिध्वनित है और मानव जाति के प्रति व्यापक सहानुभूति भी। "कुकुरमुत्ता" और "नए पत्ते" व्यंग्य और विनोद की प्रवृत्तियों को उजागर करती है। यों यह प्रवृत्ति उनके काव्य में आकस्मिक नहीं है, इसका आभास हमें “अनामिका” और "परिमल की कविताओं से होने लगता है। "अनामिका" की "उक्ति", "दान" और "वनवेला" कविताएँ इसका प्रमाण हैं। उनके परवर्ती काव्य में व्यंग्य का स्वर तोखा और मर्मभेदी है। उनके व्यंग्य का आधार सामाजिक वैषम्य, निर्धनों का शोषण एवं उत्पीड़न तो है ही, साथ ही राजनीतिज्ञों और साहित्यकारों तक को उन्होंने अपने व्यंग्य का निशाना बनाया है। "मानव जहाँ बैल, घोड़ा, कैसा तन मन का जोड़ा" जैसी पंक्तियों में न केवल वैषम्य पर बल है, अपितु भौतिकता से उपजी विकृतियों की ओर स्पष्ट संकेत भी है। “

सोहन लाल द्विवेदी: बाल कवितायेँ

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खटपट, खटपट, खटपट, खटपट, क्या करते हो बच्चो, नटखट? आओ, इधर दौड़ कर झटपट, तुमको कथा सुनाऊँ चटपट! नदी नर्मदा के निर्मल तट, जहाँ जंगलों का है जमघट, वहीं एक था बड़ा सरोवर, जिसकी शोभा बड़ी मनोहर! इसी सरोवर में निशिवासर, हाथी करते खेल परस्पर। एक बार सूखा सर वह जब, तब की कथा सुनो बच्चो अब। पड़े बड़े दुख में हाथी सब, कहीं नहीं जल दिखलाया जब- सारे हाथी होकर अनमन, चले ढूँढ़ने जल को बन बन। मेहनत कभी न होती निष्फल, उनको मिला सरोवर निर्मल। शीतल जल पीकर जी भरकर, लौटे सब अपने अपने घर। हाथी वहीं रोज जाते सब, खेल खेल कर घर आते सब। किन्तु, सुनो बच्चो चित देकर, जहाँ मिला यह नया सरोवर। वहीं बहुत खरगोशों के घर, बने हुए थे सुन्दर सुन्दर। हाथी के पाँवों से दब कर, वे घर टूट बन गए खँडहर! खरगोशों के दिल गए दहल, कितने ही खरगोश गए मर, वे सब थे अनजान बेखबर! सब ने मिलकर धीरज धारा, सबने एक विचार विचारा। जिससे टले आपदा सारी, ऐसी सब ने युक्ति विचारी। उनमें था खरगोश सयाना, जिसने देखा बहुत जमाना। बात सभी को उसकी भायी, उसने कहा, करो यह भाई- बने एक खरगोश दूत अब, काम करे बनकर सपूत सब। जाकर कहे हाथियों से यह, उसके सभी साथियो