नंददास का काव्य दर्शन और भक्ति :डॉ.शिप्रा श्रीवास्तव (प्रवक्ता, हिंदी विभाग) वल्लभ राजकीय महाविद्यालय ,मंडी (हि.प्र.)



मध्यकालीन भक्ति आंदोलन भारतीय इतिहास की अन्यतम घटना है जिसने समस्त भारतीय जनमानस को कई शताब्दियों तक प्रभावित किया । अपने विशिष्ट विशेषताओं के कारण इसे स्वर्ण युग तथा भक्ति युग कहा जाता है । यह एक अलौकिक काल रहा क्योंकि इसमें भक्ति रस की कई धाराएं बहीं और किसी न किसी धारा से सिंचित होकर कवियों ने अपनी लेखनी से अपने हृदय के उद्गार प्रकट किए । इसकी दार्शनिक पृष्ठभूमि के रूप में भारतीय चिंतन धारा की पूरी परंपरा विद्यमान है। काव्य धाराओं और विविध दर्शन से समृद्ध इस युग की पृष्ठभूमि अपनी चारुता के कारण ही विश्व-मोहक भी सिद्ध होती है। यों इस युग को सगुण-निर्गुण आदि खंडों में विभक्त भी किया जाता है किंतु मूलतः विद्यमान रहने वाले ‘जीवन दर्शन’ में भारतीय मन-मस्तिष्क की वह उपज है जो समग्र विश्व चेतना को स्पष्ट और रूपायित करती है। साहित्य के मूल में दर्शन की एक ठोस पृष्ठभूमि रहती है जो केवल दर्शन न होकर उसकी उत्प्रेरणा होती है । भक्तिकाल की सगुण-निर्गुण साहित्य में भी दार्शनिक तत्ववाद की कलात्मक संगीत को देखा जा सकता है। 

भक्तिकालीन हिंदी काव्य के मूल में जो दर्शन निहित है उसमें कर्म, ज्ञान और भक्ति का अद्भुत सम्मिश्रण है । यही सामंजस्य, युगीन-धर्म को एक सजीव दिशा प्रदान करता है । निर्गुण काव्य धारा के अंतर्गत कबीर आदि संतों की परंपरा हो या प्रेम मार्गी सूफी कविता का विकास, कृष्ण काव्य धारा हो या राम काव्य धारा सभी में इस सजीवता का संचरण हुआ । सूर, तुलसी,जायसी जैसे कवियों ने इस युग को एक नई दिशा प्रदान की । सगुण भक्ति में तुलसी तथा सूर ने जहां राम एवं कृष्ण की भक्ति को शिखर पर पहुंचाया वहीं जायसी ने सूफी भक्ति को उच्चता के शिखर पर स्थापित किया तथा कबीर ने कर्म-कांडों से रहित भक्ति को लोक द्वार तक पहुंचाया । इन कवियों के अतिरिक्त और भी कवियों ने हिंदी साहित्य के भक्ति काल में अपना बहुमूल्य योगदान दिया, जिसका ऋणी समूचा हिंदी साहित्य सदैव रहेगा ।

(चित्र -गूगल से साभार )

भक्तिकाल के सगुण भक्ति के कृष्णकाव्य धारा में पुष्टिमार्ग का विशेष महत्त्व है। वल्लभाचार्य(1478-1530 ईसवी) द्वारा प्रतिपादित शुद्धाद्वैतवाद दर्शन के भक्ति मार्ग को पुष्टिमार्ग कहते हैं । ‘पुष्टि’ का शाब्दिक अर्थ है -  ‘पोषण’ । श्रीमद्भागवत में ईश्वर के अनुग्रह को पोषण कहा गया है ‘पोषणंतदनुग्रह’ । वल्लभाचार्य कहते हैं कि -  कालादि के प्रभाव से मुक्त करने वाला कृष्ण का अनुग्रह ही पुष्टि है - “कृष्णानुग्रह रूपा हि पुष्टिः कालादि बाधक” वल्लभाचार्य जी का अद्वैत शुद्धाद्वैत कहलाता है । उन्होंने निरूपित किया कि सत-चित और आनंद रूपी ब्रह्म अपनी इच्छानुसार इन तीनों स्वरूपों का आविर्भाव करता रहता है। जीव अपने शुद्ध ब्रह्म स्वरूप को तभी प्राप्त करता है जब आविर्भाव और तिरोभाव दोनों मिट जाते हैं । और यह बात केवल ईश्वर के अनुग्रह से ही जिसे ‘पुष्टि’ या ‘पोषण’ कहते हैं संभव है । इस आग्रह की प्राप्ति के लिए वल्लभाचार्य जी ने एक विस्तृत उपासना की पद्धति चलाई जिसे ‘पुष्टिमार्ग’ कहते हैं । पुष्टिमार्ग भक्ति में मुक्ति का साधन भजन कीर्तन है ।हरि के बाल लीला का गुणगान करते रहने से भक्तों को मुक्ति मिल जाती है। वल्लभाचार्य ने अपने भक्तों को नवीनता देने के लिए भक्तों के लिए भक्ति का विधान भी तैयार किया । पुष्टिमार्ग की मूल प्रेरक शक्ति तो भगवत अनुग्रह ही है अर्थात भगवत कृपा और उसके प्रति समर्पण। पुष्टिमार्ग में यह मान्यता है कि भक्त के भगवान की ओर ध्यान ले जाने के पहले ही भगवान भक्त पर अपनी कृपा वर्षा से भक्त को सराबोर कर देता है। कृष्ण की मुरली जब बजती थीं तो गोपियां आनंदित हो उठती थीं, अपनी सुध-बुध खो बैठती थीं। वे केवल कृष्ण की मुरली की तान का आस्वादन करती थीं । यही भगवान की कृपा वर्षा है । कृष्ण की मुरली अनुग्रह संचारिका है ।  भक्त स्वयं को ईश्वर के आसरे छोड़ देता है । 

पुष्टिमार्ग दर्शन का प्रचार प्रसार एवं अनुसरण अष्टछाप के कवियों ने किया। स्वामी वल्लभाचार्य ने गोवर्धन पर्वत पर श्रीनाथजी के मंदिर की स्थापना की। इस मंदिर में विधि-विधान से पूजा- अर्चना करने के लिए पुष्टिमार्ग में दीक्षित कुछ शिष्य नियुक्त किए गए, जिनमें सूरदास प्रमुख थे । सूरदास के साथ अन्य शिष्य भी काव्य रचना एवं मधुर कंठ से कृष्ण भक्ति के पदों का गुणगान करते थे जिनके नाम हैं - 

1.सूरदास  2.कुंभन दास  3.परमानंद दास  4.कृष्णदास। 

स्वामी वल्लभाचार्य के निधन के बाद उनके बड़े पुत्र गोपीनाथ आचार्य बने। संवत 1599 में उनके निधन के उपरांत उनके पुत्र पुरुषोत्तम जी आचार्य हुए । उनके निधन के बाद गोसाईं विट्ठलनाथ  आचार्य पद पर आसीन हुए उन्होंने अपने पिता के चौरासी शिष्यों में से उपरोक्त 4 शिष्यों के अतिरिक्त अपने दो सौ बावन शिष्यों में से चार शिष्यों - गोविंद स्वामी, नंददास, चतुर्भुज दास तथा छीतस्वामी को मिलाकर अष्टछाप की स्थापना की । इन आठों कवियों को अष्टछाप अर्थात अष्ट सखा भी कहते हैं। 

भक्त कवि नंददास

कवि की कविता उसकी आत्मा की अनुभूति होती है । कवि सामाजिक विचारों को व्यक्त करते हुए भी अपने व्यक्तिगत विचारों को काव्य में इंगित करता है । काव्य यदि समाज का प्रतिबिंब होता है तो कवि के भावों विचारों का सजीव चित्र भी होता है । भक्तिकालीन कवियों की कविता में रागात्मक तत्व की प्रधानता है जो उनके भक्त हृदय का परिचय देती है। नंददास के काव्य ग्रंथों से उनके व्यक्तित्व का बहुत गहरा परिचय मिलता है ।

नंददास उत्कृष्ट कवि थे । अतः उनकी काव्य कृतियों से उनके जीवन वृत्त पर पर्याप्त प्रकाश पड़ता है। ब्रज भाषा में जो सुंदर एवं शास्त्रानुकूल कार्य अष्टछाप के कवियों में सूरदास ने किया उसके पश्चात नंददास का ही स्थान महत्वपूर्ण माना जाता है । नंददास के काव्य में अनुभूति की मनोहर तथा आनंददायिनी  अभिव्यंजना है।

भारतीय मनीषा की अपने जीवन वृत्त के विषय में मौन रहने की प्रवृत्ति सदा से रही है। नंददास भी उनमें से हैं। उनकी रचनाओं के आधार पर जीवन वृत्त के विषय में कुछ संकेत प्राप्त होते हैं। इनसे उन सभी तत्वों का ज्ञान सम्यक रूप से नहीं हो पाता जो जीवन वृत्त के लिए आवश्यक हैं। उनके जीवन के विषय में जानने के लिए अंतः तथा बाह्य साक्ष्यों का सहारा लिया जा सकता है । नाभा दास कृत भक्तमाल के अनुसार उनका जन्म स्थान रामपुर ग्राम है। इसके अतिरिक्त पाटन की हस्तलिखित अष्टछाप वार्ता में भी इन्हें रामपुर का वासी बताया गया है । नंददास का जन्म सोरों, जिला एटा, रामपुर गांव में सन 1533 ईसवी में हुआ। सोरों से उपलब्ध सामग्री के अनुसार इनके पिता का नाम जीवनराम था और चाचा का नाम आत्माराम। इन्हीं आत्माराम के पुत्र तुलसीदास थे।

भक्तमाल के सुकुल शब्द को लेकर नंददास की जाति का अनुमान लगाया जाता है। सुकुल शब्द से उच्चकुल अथवा शुक्ल आस्पदीय ब्राम्हण दोनों अर्थ लिए जा सकते हैं । वार्ता साहित्य में नंददास को ’सनोढिया’ ब्राह्मण माना गया है । मूल गुसाईं चरित में नंददास को ‘कनौजिया‘ कान्यकुब्ज ब्राह्मण माना है। मिश्र बंधु विनोद ने भी इन्हें कान्यकुब्ज ब्राह्मण कहा है जबकि शिव सिंह सेंगर ने उपजाति के विवाद में ना पड़कर उन्हें केवल ब्राह्मण कहा है।

नंददास का निधन काल भी ठीक-ठीक ज्ञात नहीं है इस विषय में दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता में वर्णित एक अलौकिक घटना का उल्लेख है कि एक बार अकबर बादशाह ने बीरबल सहित मथुरा के पास मानसी गंगा पर डेरा डाला था। बादशाह के समक्ष तानसेन ने नंददास विरचित पद गाया ष्देखो रि देखो नागर नट निरतत कालिंदी तट  नंददास गावैं तहां निपट निकट।ष् अकबर बादशाह ने नंददास को कवि बीरबल द्वारा बुलवा भेजा और प्रस्तुत पद का अर्थ स्पष्ट करने को कहा। नंददास ने उत्तर दिया अपनी लौंडी रूपमंजरी से इसका अर्थ पूछिए। बादशाह ने ज्योंहीे रूपमंजरी से इसका अर्थ पूछा वह पछाड़ खाकर पृथ्वी पर गिर पड़ी और उसने प्राण त्याग दिए। उधर नंददास के भी प्राण छूट गए। इस समाचार को सुनकर गोस्वामी विट्ठलनाथ जी ने दोनों वैष्णवों की भूरी भूरी प्रशंसा की।

उक्त प्रसंग के द्वारा नंददास की मृत्यु अकबर के जीवन काल में ही हुई। क्योंकि बादशाह का स्वर्गवास संवत 1662 में हुआ था इसीलिए स्पष्ट है कि नंददास का स्वर्गवास 1662 से पूर्व हुआ होगा। बीरबल की भी मृत्यु का समय 1643 माना जाता है।र्3 इसलिए नंददास के निधन का समय 1643 से पूर्व का होना चाहिए ।

नंददास के गुरु पुष्टिमार्ग के प्रवर्तक विट्ठलनाथजी थे । नंददास गुरु के प्रति परम आदर सम्मान का भाव रखते थे। अवतार मानकर उनको देखते थे और उनकी आज्ञा को सर्वोपरि मानकर अपने संपूर्ण भागवत भाषानुवाद को यमुना में प्रवाहित कर देते थे, यह कवि की गुरुभक्ति का ज्वलंत उदाहरण है ।

रचनाएं

प्राचीन ग्रंथों से नंददास के जीवन वृत्त पर कुछ प्रभाव पड़ता है उनसे उनकी रचनाओं के विषय में पूर्ण जानकारी प्राप्त नहीं होती। दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता से उनके लिखे केवल दो ग्रंथों का संकेत मिलता है एक ’भाषा भागवत दशम स्कंध’ और दूसरा 'रास पंचाध्यायी'

आधुनिक युग में आकर जब हस्तलिखित ग्रंथों की खोज का कार्य प्रारंभ हुआ तो नंददास के नाम से कई ग्रंथों की उपलब्धि हुई। उनके ग्रंथों की संख्या का सर्वप्रथम उल्लेख ‘गार्सा द तासी‘ ने अपने इतिहास में किया। वे लिखते हैं- ‘डॉक्टर स्प्रेजर के पुस्तकालय में उनके 14 ग्रंथों का संग्रह देखा था, जो 275 पृष्ठों में था जिसे करीमुद्दीन ने संग्रहित किया था। रासपंचाध्यायी का कलकत्ते से छपा तथा मदन लाल द्वारा संपादित 54 पृष्ठों का संस्करण और अनेकार्थमंजरी तथा नाम माला दोनों के दो संयुक्त संस्करण देखे थे। जिनमें से एक सन 1914 में फिर से और हीराचंद द्वारा संपादित ब्रजभाषा काव्य संग्रह के अंतर्गत 1865 ईस्वी में मुंबई से प्रकाशित हुआ था।5  ये चौदह ग्रन्थ इस  प्रकार हैं - 1. पंचाध्यायी, 2. नाममंजरी, 3.अनेकार्थमंजरी, 4. रुक्मिणी मंगल 5. भंवरगीत, 6. सुदामाचरित, 7. विरहमंजरी, 8. प्रबोध-चंद्रोदय, 9. गोवर्धन लीला, 10. दशम स्कंध, 11. रसमंजरी, 12. रासमंजरी, 13. रूपमंजरी, 14. मानमंजरी .

’भक्तमाल’ से नंददास के प्रेमी और कृष्ण भक्त होने का ज्ञान होता है। दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता से नंददास का परिचय एक विषयासक्त और रसिक व्यक्ति के रूप में होता है।7 उनके प्रारंभिक जीवन में यह रसिकता सांसारिक कामनाओं और विषय वासनाओं की ओर उन्मुख थी, किंतु वल्लभ संप्रदाय में दीक्षित हो जाने पर उसी रसिकता ने कृष्ण-प्रेम का रूप धारण कर लिया। रूपवती क्षत्राणी के रूप सौंदर्य का आकर्षण कृष्ण लीला के गुणगान में परिवर्तित हो गया। पहले वे लौकिक प्रेम में तल्लीन थे फिर कृष्ण रंग में रंग गए- 

कृष्ण नाम जबते सुन्यो री आली,
भूली रीे भवन हौ तो बावरी भयी री।
भरि भरि आवे नैन चित्त हूं न परे चैन,
मन की दसा कछु औरे ही भयी री।

नंददास जी ने विधिवत शास्त्रानुशीलन किया था। उनकी प्रतिमा बहुमुखी थी। उनके द्वारा रचित 14 ग्रंथों को देखकर उनका रचना वैविध्य स्पष्ट हो जाता है। अनेकार्थमंजरी के प्रारंभ में नंददास कहते हैं -

  उचरि सकत नाही संस्कृत अर्थ ज्ञान असमर्थ ।
  तिन हित नंद सुमति जथा भाषा कियो सुअर्थ ।।

कवि द्वारा इसमें पर्यायवाची शब्दों का ही संग्रह किया गया है यह एक कोष ग्रंथ है । इसमें कुल 172 दोहे हैं मंगलाचरण में शुद्धाद्वैत को प्रतिपादित किया गया है । मानमंजरी- ये भी पर्याय कोष ग्रन्थ हैं । ‘मानमंजरी’ ग्रन्थ नन्ददास के भाषा विषयक प्रौढ़ ज्ञान और पांडित्य का द्योतक माना जाता है। रसमंजरी- रसमंजरी का विषय नायक नायिका भेद को स्पष्ट करना है। इस ग्रंथ का आधार भानु कवि कृत रसमंजरी है । रूपमंजरी- यह लघु आख्यान काव्य है। इनकी एक प्रेयसी का नाम भी रूपमंजरी माना जाता है। विरहमंजरी- यह बारहमासा शैली में रचित इनका भाव्यात्मक काव्य है। श्याम सगाई - यह एक छोटा सा ग्रंथ है। इसमें 28 छंद हैं। इसमें राधा कृष्ण की सगाई का वर्णन बड़ी रोचकता से किया गया है । श्री उमाशंकर शुक्ल ने नंद दास कृत श्याम सगाई की 11 प्रतियों का उल्लेख किया है जिनमें से 10 प्रतियों पर नंददास की छाप है केवल एक पर तारापाणि की।10 सुदामा चरित- इसका कथानक श्रीमद्भागवत से ग्रहण किया गया है। रुक्मिणी मंगल- रुक्मिणी मंगल कवि की द्वितीय कृति कही जा सकती है। इसके रचनाकाल और गोवर्धन लीला की रचना काल में कुछ ही दिनों का अंतर प्रतीत होता है । इसमें रुक्मिणी का विरह वर्णन किया गया है । कवि की लेखनी ने सजीव रूप में नेत्रों के समक्ष रुक्मिणी के विरह को लाकर खड़ा कर दिया है।  इसमें 131 रोला छंद हैं ।11 भंवर गीत- यह नंददास के परिपक्व दर्शनज्ञान, विवेकबुद्धि, तार्किक शैली और कृष्ण भक्ति का परिचायक काव्य है । इसमें गोपी-ऊधो संवाद तथा गोपियों की विरह दशा का मार्मिक चित्रण है । इस रचना का मुख्य उद्देश्य निर्गुण निराकार ब्रह्म की उपासना का खण्डन तथा सगुण साकार कृष्ण की भक्ति की उपासना है। उदाहरण के लिए- ‘मो मैं उनमें अंतरौ एकौ छिन् भरि नाहि, ज्यों देखि मो माहि  वे त्यों मैं उनहीं माहि‘। रास पंचाध्यायी- यह इनकी सर्वश्रेष्ठ रचना मानी जाती है । इसमें आत्मारुपी गोपी रास लीला के माध्यम से परमात्मा (कृष्ण) से मिलने के लिये प्रयत्नशील है। यह रोला छंद में लिखित रचना है। इस रचना में उपयुक्त शब्द चयन एवं उसके यथा-स्थान प्रयोग के कारण उन्हें ‘जड़िया कवि’ की उपाधि प्रदान की गई। सिद्धांत पंचाध्यायी- यह कृष्ण के रास लीला से सम्बंधित रचना है । इसमें कृष्ण, वृन्दावन, वेणु, गोपी, रास आदि शब्द आध्यात्मिक प्रतीक हैं । दशम स्कंध भाषा - यह ग्रन्थ नंददास की प्रौढ़ावस्था का परिचायक है। गोवर्धन लीला - यह दोहे चौपाइयों का एक छोटा सा ग्रन्थ है। इसमें कुल 78 पंक्तियाँ हैं। नंददास-पदावली में भी नंददास के उत्कट विचारों का वर्णन मिलता है।

नंददास का सौंदर्य प्रेम सामान्य कवियों से बहुत बड़ा है । कृष्ण लीला में भी सुंदर तत्व की प्रधानता है संभवत यही कारण था कि वे राम भक्तों से खींचकर कृष्ण भक्ति में चले आए और रसिकता ने उन्हें उस में तल्लीन कर दिया। नंददास अपने सुंदर प्रेम के कारण ही रास पंचाध्यायी एवं भंवर गीत जैसी उत्कृष्ट कृति की रचना कर सके किंतु उनका यह सौंदर्य प्रेम केवल बाह्य सौंदर्य तक सीमित नहीं है बल्कि आंतरिक अभिव्यक्ति है । प्रभु चरणों में पूर्ण आत्मविश्वास के साथ वे समर्पित हो गए थे -

देखो रे नागर नट निरत कालिंदी तट नंददास गावे तथा निपट निकट  

नंददास की एक और महत्वपूर्ण विशेषता है कि वह संक्षिप्त वर्णन के समर्थक थे उनकी कृति भंवर गीत से यह स्पष्ट हो जाता है। वे भावना को अत्यधिक विस्तार देने के पक्षपाती नहीं थे बल्कि कवि की प्रवृत्ति सारग्रहणी प्रतीत होती है। वे केवल उतना ही वर्णन करते हैं जितना कथानक को आगे बढ़ाने व उसके रस का निर्वाह करने में सहायक होता है। भंवर गीत इसका उदाहरण है जिसके अंतर्गत इन्होंने सगुण और निर्गुण ब्रह्म का विवेचन करने के लिए जितने छंदों की आवश्यकता थी कवि ने उतने ही छंदों का प्रयोग किया है। रचना को व्यर्थ का विस्तार नहीं दिया। रास पंचाध्यायी भी इसी कोटि के अंतर्गत आता है ।

काव्य दर्शन

नंददास का काव्य दर्शन पुष्टिमार्ग दर्शन से प्रभावित है । इसी दर्शन के आधार पर नंददास के काव्य-दर्शन का मूल्यांकन किया जा रहा है -

    ब्रह्मा-ब्रह्म के स्वरुप के सम्बन्ध में विभिन्न दार्शनिक सिद्धान्तों की अपनी-अपनी मान्यताएं हैं। पुष्टिमार्ग में ब्रह्म अर्थात् कृष्ण जो सच्चिदानंद स्वरूप हैं वह सत, चित, आनंद का भंडार हैं। नंददास ब्रह्म की अभिव्यक्ति करते हुए कहते हैं -

एकै वस्तु अनेक है जगमगातजगधाम ।
जिमि कंचन ते किंकिनी, कंकन कुंडल नाम । ।

अर्थात् एक ही वस्तु है, वह अनेक रूप में विद्यमान है जैसे स्वर्ण एक ही तत्व है परंतु उसी स्वर्ण से करधनी, कंगन और कुंडल बनते हैं। ठीक उसी प्रकार मूल ब्रह्म है, संसार उसका ही स्वरूप है।

जीव- वल्लभाचार्य के अनुसार ब्रह्म का अंश है जीव । जीव ब्रह्म से अभिन्ना है । लीला के लिए जीव में से आनंद का अंश निकल जाता है, जिससे कि जीव बंधन और अज्ञान में पड़ जाता है । जीव का जन्म और विनाश नहीं होता बल्कि उसके शरीर का होता है । जीवरूप में ब्रह्म के आनंद तत्व का तिरोभाव है। वह काल, कर्म और माया के अधीन रहता है। नंददास कहते हैं-

कालकर्ममाया अधीन जीव बखाने ।

जगत- पुष्टिमार्ग में जगत को सत्य माना है न कि मिथ्या। ईश्वर के चिद अंश से जीव और सत अंश से जगत की उत्पत्ति होती है । नंददास कहते हैं-

ब्रह्म निरीह ज्योति अविकार ।
सत्ता मात्र जगत आधार ।

अर्थात ब्रह्म एक ज्योति स्वरूप है, अविकारी है । इस जगत में उनकी ही एकमात्र सत्ता है । अनेकार्थमंजरी में कहा गया है कि संसार का जो सृष्टिकर्ता वही ब्रह्म है । 

माया- माया के स्वरूप के विषय में पुष्टिमार्ग में कहा गया है- यह माया कोई आवरण नहीं वरन ब्रह्म की शक्ति है और यह शक्ति दो रूपों में प्राप्त होती है-

आदिशक्तिस्वरूपा-सृष्टि का सृजक,पालक व संहारक।

अविद्या रूपा माया- जीव के ईश्वरीय गुणों की आच्छादक(यह जीव के सत, चित, आनंद पर आच्छादित रहती है)। नंददास माया के आदि शक्ति स्वरूप को कृष्ण नाम देते हैं-

जदपि अगम ते अगम अति, निगम कहत है जाहि।
तदपि रंगीले प्रेम ते निपट निकट प्रभु आहि।

(रूपमंजरी पद 514)

मोक्ष- पुष्टिमार्ग में मोक्ष अवैध मुक्ति नहीं बल्कि भेद मुक्ति होती है । ब्रह्मा का सामीप्य,सारूप्य और आनंद की प्राप्ति ही मोक्ष है । नंददास मोक्ष संबंधी अपने विचार प्रस्तुत करते हुए लिखते हैं कि-

अरू अपने भक्त के हेतु।
दुर्लभ मुकति सुलभ कर देतु।।
पद पंकज के सान्निध्य मात्र।
तबही भये मुक्ति के पात्र।
(भाषा दशम स्कंध)

नंददास कृष्ण के सान्निध्य को ही मोक्ष मानते हैं। उन्होंने कृष्ण के सान्निध्य प्राप्ति के पदों में यही चर्चा की है। कृष्ण के समीप रहने का आनंद तथा कृष्ण के पद-पंकज के सान्निध्य को ही मोक्ष माना है । यही भेद मुक्ति है। जो ब्रह्म का स्वरुप है वही जीव का स्वरूप हो जाता है। 

कृष्णलीला- नंददास कृष्ण भक्त हैं । अतः कृष्ण-लीला से संबंधित अनेक पदों में उनके काव्य-दर्शन का स्पष्टतः रूप दिखाई देता है। पुष्टिमार्ग में ब्रह्म को लीला हेतु अवतरित माना गया है और भगवान का अनुग्रह पात्र इस लीला में सम्मिलित होता है। कृष्ण की लीला आनंद हेतु है। नंददास के आराध्य कृष्ण हैं और उनकी प्रेमाभक्ति आलंबन हैं । राधा इसी कृष्ण की प्रिया हैं । कवि कहता है कि-

दूलह गिरधर लाल छबीलो, दुलहिन राधा गोरी।
जिन देखि मन में अति लाजी, ऐसी बनी यह जोड़ी ।।
(पदावली)

गोकुल-वृंदावन- कृष्ण भक्त गोकुल वृंदावन कभी भी भूल नहीं सकता । पुष्टिमार्ग में कहा गया है कि कृष्ण अपनी लीलाएं गोकुल वृंदावन में ही करते हैं । नंददास इसका चित्रण अपने काव्य में करते हुए लिखते हैं -

जो रज ब्रज वृदावन आहि।
बैकुंठादिलोक में नाहि।।
जो अधिकारी होये सो पावे ।
बिन अधिकारी भये न आवे।।

जो रज गोकुल वृंदावन में है वह बैकुंठ में भी नहीं है। इस वृन्दावन की भूमि पर वही आ सकता है जिस पर ईश्वर की अनुकंपा है।

वेणु-‘वेणु’ को पुष्टिमार्ग में योग. माया एवं शब्द ब्रह्म के रूप में चित्रित किया गया है। नंददास कहते हैं-

तब लीनी कर कमल जोगमाया सी मुरली।
अघटित घटना चतुर बहुरि अधरा सब जुरली।।
जाकी ध्वनि ते निगम अगम प्रकटे बड़ नागर ।
नाद ब्रह्म की जननी मोहिनी सब सुख सागर ।।

सिद्धांत पंचाध्यायी में वेणु, वृंदावन, गोपी, रास आदि की आध्यात्मिक व्याख्या की गयी है। नंददास के काव्य में मर्यादा, ज्ञान और कर्म बांध है। भगवान की प्रेम शक्ति ही साध्य है।

    नंददास के काव्य दर्शन में काव्य की सरसता अपने चरम पर है । परिमार्जित ब्रज भाषा में संपूर्ण काव्य रचना करते हुए उसके भाषिक सौन्दर्य को और भी निखार दिया है। संगीत प्रवीण होने के कारण उनके काव्य में लय, स्वर आदि का प्रयोग काव्य को प्रांजलता और प्रवाह प्रदान करता है। सरस एवं मार्मिक प्रसंगों की उद्भावना में जैसी ललित एवं मोहक पदावली नंददास के काव्य में मिलती है, अष्टछाप के कवियों में सूरदास के अतिरिक्त कहीं और नहीं मिलती। 

    निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि कृष्ण के उपासक नंददास के काव्य दर्शन में ऐन्द्रियता एवं दार्शनिकता का पूर्णरूपेण समावेश है। इनकी काव्य चेतना मंगलकारी,आनंद प्रदायिनी एवं पीयूष वर्षिणी है। इनका समस्त साहित्य सौंदर्य की सुंदर छटा से दीप्तिमान है। इनका काव्य दर्शन अनूपमेय है तथा हिंदी साहित्य की अमूल्य धरोहर है।

सन्दर्भ ग्रन्थ सूची:

1. हिंदी साहित्य का इतिहासः डॉ. नगेंद्र
2. हिंदी साहित्य: आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी 
3. अष्टछाप और वल्लभ संप्रदायः डॉ. दीन दयाल गुप्त (भाग 2)
4. भक्ति का विकास: डॉ. मुंशी राम ‘सोम’
5. हिंदी साहित्य का उद्भव और विकासः रामबहोरी शुक्ल तथा डॉ. भागीरथ मिश्र
6. शिव सिंह सेंगर
7. दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता 
8. कैंब्रिज हिस्ट्री ऑफ इंडिया 
9. इस्त्वार द लिटरेत्युर एन्दोई ए ऐदुस्तानी



Comments

Popular posts from this blog

मूट कोर्ट अर्थ एवं महत्व

कोसी का घटवार: प्रेम और पीड़ा का संत्रास सुनील नायक, शोधार्थी, काजी नजरूल विश्वविद्यालय आसनसोल, पश्चिम बंगाल

विधि पाठ्यक्रम में विधिक भाषा हिन्दी की आवश्यकता और महत्व