कवि मन जनी मन
आदिवासी समाज अपनी जमीन और जमीर को बचाने के लिए कृत संकल्प है । अपने संघर्ष एवं सृजन दोनों स्तरों पर यह समाज लड़ाई लड़ रहा है । वर्तमान समय में जो हमारी चिन्तायें मुखर हो रहीं हैं, उन्हीं को लेकर आदिवासी समाज वर्षों से संघर्षरत है । आदिवासियों ने अपने जंगल ,पहाड़ और जमीन को बचाये रखने के लिए ना सिर्फ संघर्ष किया वरन आज भी अपनी चिंताओं को लेकर बहुत ही सजग हैं । इस सजगता को आदिवासी रचनाकारों द्वारा रचित साहित्य में भी देखा जा सकता है । आदिवासी साहित्य को हम अध्ययन की सुविधा की दृष्टि से तीन स्तरों पर देख सकते हैं, यह आधार भाषा का ही है – “पहला अंग्रेजी भाषा में ,दूसरा हिन्दी या अन्य भारतीय भाषाओँ और तीसरा आदिवासी भाषाओँ में लिखे जा रहे हैं।”
इन सब में आदिवासी जन की संवेदना को बहुत ही
मुखर रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है । आदिवासी कवियत्री
वन्दना टेटे ने बहुत ही गंभीर तैयारी के साथ आदिवासी कवियत्रियों की कविताओं को
संकलित कर एक काव्य संग्रह संपादित किया है । जिसका शीर्षक है “कवि जनी मन”(
आदिवासी स्त्री कविताएँ ) । इस संग्रह में ग्यारह कवियत्रियों की कविताओं में आज
के वैश्विक समय की चुनौतियों एवं इसके कारण उनके जीवन पर पड़ने वाले प्रभावों का
अंकन देखने को मिलता है । सामाजिक विषमता वह मूल है ,जो हमारी संस्कृति को व्यापक
स्तर पर प्रभावित कर रहा है । आदिवासी समाज अब यह बात बखूबी समझ चुका है कि बात
सिर्फ उनके हक़ की बात करते -करते लोग किस तरह उन्हें गुलाम बना रहे हैं । यह बात
हम निम्नलिखित पंक्तियों में देख सकते हैं –
“वह तुम्हारे हक़
की
बात बोलेंगे
तुम्हें अपने
हिसाब से
अपनी तराजू पर
तोलेंगे
............
कुछ बातों को
छोड़कर
बाकी बातें
होंगीं तमाम
समझना होगा उन
अनकहे
इशारों को
किसके मुंह में
छुरी
और बगल में है
राम
हर कोशिश होगी यह
कि-किसी-न-किसी-तरह
किसी-न-किसी के,
हर सदी ,हर काल
में
बस बने रहो गुलाम।”
‘जसिंता
केरकेट्टा’ की उपरोक्त पंक्तियों में आधुनिक तथाकथित सभ्य समाज द्वारा विकास के
नाम पर किये जा रहे कार्यों के विरूद्ध गहरा क्षोभ देखने को मिलता है । आदिवासी
समाज बखूबी समझ चुका है कि बात विकास की हो या उनके अधिकारों के संरक्षण की सबका
उद्देश्य उन्हें किसी न किसी तरह गुलाम बनाने की योजना है । इस गुलामी से बचने और
अपने अस्तित्व को बचाये रखने के लिए उन्हें संघर्ष करना ही होगा । ‘जसिंता
केरकेट्टा’ ने ‘पहाड़ों पर उगे असंख्य बाँसों का रहस्य’ शीर्षक कविता में लिखा
है कि –
“मैं कुरुआ में
सो रहा था
आचानक जमीन हिलने
लगी
जमीन का एक टुकड़ा
जेसीबी मशीन के
पंजों पर था
अपनी जमीन के
टुकड़े के साथ
मैं भी लटका था
मशीन पर
तब मुझे महसूस
हुआ मुझे
अपनी जमीन सहित उजड़ जाने का दर्द ।”
इस जमीन सहित उजड़
जाने के दर्द से ही उभरता है विरोध का स्वर जो अब धीरे-धीरे विद्रोह में बदल जाता
है –
“इस बार ये बाँस
बाजार नहीं जायेंगे
जंगलों के अन्दर
अब बाँस
बनेंगे हार हाथ
का तीर-धनुष
और तब
पहली बार समझ में
आया
मेरे पूर्वजों के
रक्त से सिंचित
पहाड़ों पर उगे
असंख्य बाँसों का रहस्य ।”
आज के वैश्विक
समय में तीव्र विकास की अवधारणा ने हमारे सामाजिक ताने-बाने को क्षतिग्रस्त कर
दिया है । आज हमारा विकास समग्र विकास से बहुत दूर होता जा रहा है, सभ्यता के नाम पर जो
कुछ भी निर्मित हो चुका है उससे हमारे समाज का एक बहुत बड़ा हिस्सा कोशों दूर है । विकास के बड़े-बड़े प्रोजेक्ट के बावजूद भी
समाज का एक व्यापक और कर्मठ वर्ग हासिये पर है । ‘ग्रेस कुजूर’ की
निम्नलिखित पंक्तियों में हम इस पीड़ा एवं क्षोभ को देख सकते हैं -
“झारखण्ड की
विशाल पट्टिकाओं
में रेंगते
तांबे के तार ।
क्या तुम्हारी
रगों में नहीं दौड़ते
लोहे की धरती का
पानी ?
पीने के बावजूद
हवा के एक झोकें
में उड़ जाते हो ।
आसाम-भोतांग,
ईंट-भट्ठा
और महानगर थर्मल
पावर के दुधिया प्रकाश
और
जादूगोडा के जादुई चिराग तले
कंजर तेल की
ढिबरी लिए
मन के किस अंधरे
में
भटक रहे हो संगी?”
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