तुलसीदास कृत रामचरितमानस और लोक नायक की वैश्विक प्रासंगिकता : एक विवेचन

 भारतीय जीवन में आध्यात्मिकता एवं भक्ति की धारा अनादिकाल से प्रवाहित होती रही है भारत में भक्ति का समारम्भ कब और कहाँ से हुआ यह पता लगा पाना अत्यंत कठिन कार्य है । हमारे आदिम जीवन से लेकर आज तक की जीवन पद्धति का अवलोकन करें तो यह स्पष्ट ही देखने को मिलता है कि प्राकृतिक अवयवों के पूजन से जो परम्परा आरम्भ हुई समयानुसार परिवर्तित होते हुए समाज की भाव-भंगिमा के अनुसार परिमार्जित होती रही है । अग्नि, वायु, सूर्य, जल एवं अन्य प्राकृतिक अवयवों के प्रति श्रद्धा का भाव हमारी चेतना का हिस्सा रही है । भक्ति और आध्यात्मिकता वह प्राणतत्व है, जो भारतीय जीवन को आलोकित करता रहा है । भक्ति और प्रतिमा पूजन की प्राचीनता को रेखांकित करते हुए राष्ट्र कवि एवं प्रसिद्ध चिन्तक रामधारी सिंह दिनकर जी ने अपनी पुस्तक ‘संस्कृति के चार अध्याय में लिखा है कि – “ प्रतिमा-पूजन के निशान मोहनजोदड़ो में मिले हैं, इससे यह अनुमान होता है कि भक्ति भारत का सनातन जन-धर्म थी और आर्यों के पहले से ही वह इस देश में प्रचलित थी । आर्यों के आगमन के बाद आर्य तो हवन- कर्म द्वारा ही अपने देवताओं को प्रसन्न करते रहे, किन्तु इतर जनता उस समय भी भक्ति और पूजा करती थी ।”


       भक्ति भारतीय जन-जीवन को अनादि काल से दिशा देती रही है, भारत के सामाजिक एवं सांस्कृतिक इतिहास को हम भक्ति और आध्यात्मिकता से अलग करके नहीं देख सकते हैं । इस सन्दर्भ में दिनकर जी ने अपनी पुस्तक ‘संस्कृति के चार अध्याय’ में फ्रांसीसी विद्वान सेनार्त(Senart) के कथन के माध्यम से भक्ति की गहराई को रेखांकित किया है कि- “भारत में भक्ति का मूल अत्यन्त गहराई में है । वह बहुत प्राचीन काल तक पहुँचता है । भारत में भक्ति किसी कट्टर पन्थ के रूप में नहीं उठी । वह एक शक्तिशाली भावना रही है, जिससे भारत का इतिहास और समस्त काव्य परिव्याप्त है । भारत के पुराने-से-पुराने आध्यात्मशास्त्र में किसी एक अदृश्य के लिए व्याकुल ईहा सर्वत्र मिलती है।”  

उपरोक्त कथनों से स्पष्ट है कि सनातन धर्म भारतीय अभिन्न अंग रहा है , और आम-जन के जीवन को संबल प्रदान करता रहा है । भक्ति के सूत्र विष्णु पुराण में , भागवत में और अन्य पुराणों में देखने को मिलते हैं । साथ ही साथ गीता, जो महाभारत का अंश है, भक्ति का प्रतिपादन बहुत ही स्पष्ट भाषा में करती है । वेदों से लेकर आजतक के धार्मिक एवं आध्यात्मिक ग्रंथों का अवलोकन करें तो स्पष्टतः यह देखने को मिलता है कि आध्यात्मिकता और भक्ति ही हमारे समाज के सभी वर्गों के जीवन का मेरुदण्ड है । चाहे वह शिष्ट समाज हो या लोक जीवन या आदिवासी जीवन । भक्ति आन्दोलन के माध्यम से लोक जागरण का कार्य संत-साधकों ने बखूबी किया ।

भक्ति की जो परम्परा भारतीयों के जीवन में सूक्ष्म रूप में अनन्त काल से प्रवाहित हो रही थी, उसे जन-मन के बीच स्थापित करने का श्रेय रामानुजाचार्य एवं उनके शिष्य रामानन्द को है । इस सन्दर्भ में साधू समाज में एक दोहा प्रचलित है –

“भक्ती द्राविड ऊपजी, लाए रामानन्द,

परकट कियो कबीर ने सात द्वीप नौ खण्ड ।”

उपरोक्त दोहे से स्पष्ट होता है कि दक्षिण में ‘रामानुजाचार्य’ ने श्री वैष्णव संप्रदाय के माध्यम से लोक में जिस चेतना का प्रसार कर रहे थे, उसे सम्पूर्ण भारत में स्थापित करने का कार्य रामानन्द एवं उनके शिष्यों ने किया । भारतीय भक्ति आन्दोलन पर रामानन्द के प्रभाव और उनके महत्व को रखांकित करते हुए आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी जी ने लिखा है कि – “रामानन्द में कुछ-न-कुछ ऐसी साधना अवश्य थी,जिसके कारण योग प्रधान भक्ति मार्ग, निर्गुण पंथी, भक्तिमार्गी और सगुनोपासक भक्तिमार्ग, तीनों ही के पुरस्कर्ता भक्तों ने उन्हें अपना गुरु माना है।”

नाभादास ने अपने ग्रन्थ भक्तमाल में रामानन्द के बारह शिष्यों का उल्लेख किया है । जिनके नाम हैं – अनंतानंद, सुखानंद, सुरसुरानंद, नरहर्यानन्द, भावानन्द, पीपा, कबीर, सेन, घना, रैदास, पद्मावती और सुरसुरी । इनके अधिकांश शिष्य समाज में छोटी समझी जानेवाली जातियों में उत्पन्न हुए हैं, जो रामानन्द की उदारता एवं औदार्य के साक्षी हैं । रामानन्द एक संत सुधारक थे भक्ति को सहज रूप से प्रवाहित करने की दिशा में जो सबसे महत्वपूर्ण कार्य वह है कि भक्ति का मार्ग समाज के सभी वर्गों के लोगों के लिए खोला दिया , इसके परिणामस्वरूप भक्ति एकाएक आन्दोलन के रूप में समग्र भारत में फ़ैल गयी ।

रामानन्द के साथ साथ बल्लभाचार्य ने भी भक्ति परम्परा को भक्ति आन्दोलन के रूप में व्यापक रूप से स्थापित करने में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन किया । इस सन्दर्भ में आचार्य हजारीप्रसाद जी ने लिखा है कि – “इन दो महात्माओं (श्री रामानन्द और बल्लभाचार्य) ने इस काल के साहित्य को प्रधान रूप से प्रभावित किया । हिन्दी भाषी प्रदेशों में जो धर्म साधनाएँ उन दिनों प्रचलित थीं, उन पर आचार्यों द्वारा प्रवर्तित भक्ति-भावधारा का प्रभाव पड़ा । निर्गुण भावापन्न योगप्रधान भावधारा के क्षेत्र में भक्ति का बीज पड़ा और निर्गुण मार्ग के रूप में प्रकट हुआ । प्रेम लीला-प्रधान सगुन भावधारा के क्षेत्र में वह श्री कृष्ण-अवतार को केन्द्र करके अपूर्व प्रेमाभक्ति के रूप में प्रकट हुआ और स्मार्त्तभावप्रधान पौराणिक विश्वासों के क्षेत्र में उसने राम-अवतार को केन्द्र करके अत्यंत विशाल रूप में आत्मप्रकाश किया । इस प्रकार यह भक्ति का अंकुर तीन रूपों में विकसित हुआ । यही भक्ति-साहित्य हिंदी की मुख्य भावधारा है । इसी ने उत्तर भारत के लोकचित्त को मथित और चालित किया है , इसी ने उसे नवीन लक्ष्य और नवीन आदर्श दिए हैं ।” 

रामानन्द और बल्लभाचार्य के शिष्य परम्परा में आने-वाले भक्त कवियों ने निगुर्ण राम, सगुन राम एवं कृष्ण की भक्ति को भारतीय जन और समाज के सभी वर्गों के लिए सुलभ करने की दिशा में महत्वपूर्ण कार्य किया । इसके साथ-साथ सूफी संतों ने भी अपने पदों के माध्यम से समाज में एक नए तरह की चेतना का संचार करने की दिशा में अपना योगदान दिया । भक्ति आन्दोलन के प्रमुख संत कवि हैं – कबीरदास, तुलसीदास, सूरदास, जायसी, नानक, मीरा, दादूदयाल, रैदास, नंददास, पीपा इत्यादि । इस सभी कवियों ने समाज में स्वबोध के जागरण की दिशा में महत्वपूर्ण योगदान दिया है । भक्ति कला को हिन्दी साहित्य के इतिहास में स्वर्ण काल की संज्ञा से अभिहित किया गया है ,इसके साथ ही प्रसिद्ध आलोचक रामविलास शर्मा ने भक्ति काल को लोकजागरण काल भी कहा है ।

इन सभी संतों ने अपनी वनियों के माध्यम से भक्ति का व्यापक प्रचार-प्रसार कर जन-जन में एक नयी चेतना का संचार किया । वर्षों से चली आ रही राम एवं कृष्ण की कथा को लोक के प्रांगण स्थापित कर इन्होंने ऐतिहासिक दायित्व का निर्वाह किया । वैष्णव भक्ति के प्रतीक पुरुष राम नाम का मर्म समाज के सभी वर्गों तक पहुँचाने वालों में कबीर एवं तुलसी का योगदान विशिष्ट है । कबीर के राम निर्गुण राम हैं, तो तुलसीदास ने राम लोक-रंजक एवं मर्यादित रूप की प्रतिष्ठा में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ा । कबीरदास ने राम नाम के महत्व को रेखांकित करते हुए लिखा है कि –

“दशरथ सुत तिहँ लोक बखाना !

राम नाम का मरम है आना !!”

अर्थात् राम नाम की महिमा तीनों लोकों में व्याप्त है, वे सिर्फ दशरथ के पुत्र ही नहीं हैं वरन अखिल विश्व के नायक हैं । तुलसीदास ने रामचरितमानस, विनयपत्रिका एवं अपनी रचनाओं के माध्यम से राम के पुरुषोत्तम रूप की प्रतिष्ठा लोक जीवन में किया । राम की कथा का मूलाधार बाल्मीकि रामायण है , लेकिन राम का जीवन एक आदर्श रूप में जन में प्रतिष्ठित करने का कार्य लोक भाषाओँ में लिखे रामकथाओं को है । इन लोक कथाओं ने रामकथा को भारतीय उपमहाद्वीप के सभी क्षेत्रों में फ़ैलाने का कार्य किया ।

बाल्मीकि कृत रामायण की रामकथा को लोक भाषा अवधी में रचकर गोस्वामी तुलसीदास ने ना सिर्फ प्रसार दिया वरन भगवत भक्ति को सर्वसुलभ भी कराने की दिशा में महत्वपूर्ण योगदान दिया । तुलसीदास कृत रामचरितमानस भारतीय मानस में राम के व्यक्तित्व की स्थापना का आधार ग्रन्थ है । इसके साथ ही साथ राम के प्रति अगाध श्रद्धा भाव का प्रस्फुटन्न अन्य भारतीय भाषाओँ में देखने को मिलता है । ‘तमिल’, ‘तेलुगु’, ‘मलयालम’, ‘कन्नड़’, ‘असमी’, ‘बंगाली’, ‘कश्मीरी’ भाषाओँ के साथ-साथ आदिवासियों की भाषाओँ में भी रामकथा देखने को मिलती है । इस तरह से कहें तो भारत की शास्त्रीय भाषाओँ से लोक भाषाओँ एवं बोलियों में रामकथा का प्रसार देखने को मिलता है ।

‘रामायण’ से लेकर ‘रामचरितमानस’ तक की यात्रा राम के व्यक्तित्व और जीवन के शास्त्रों से लोक तक पहुँचने की यात्रा है । राम के जिस व्यक्तित्व का अंकन तुलसीदास ने अपने मानस में किया है वह लोक के मानस पटल पर अंकित हो गया है। राम को मर्यादा पुरुषोत्तम के रूप में लोक  मानस में प्रतिष्ठित करके तुलसीदास ने समाज में एक आदर्श स्थापित किया । तुलसीदास संत कवि थे, कविता करने का उद्देश्य ही लोक कल्याण था। रामचरितमानस में तुलसीदास जी कविता के सन्दर्भ में लिखते हैं –

कीरति भनिति भूति भलि सोई । सुरसरि सम सब कह हित होई ।।

राम सुकीरति भनिति भदेसा । असमंजस अस मोहि अँदेसा ।।

 अर्थात कीर्ति, कविता और सम्पत्ति वही उत्तम है जो गंगा जी तरह सबका हित करने वाली हो । तुलसीदास एक ऐसे कवि हैं , जिन्होंने समाज में उच्च मानदण्ड स्थापित करने की दिशा में महत्वपूर्ण कार्य किया। वर्तमान समय पारिस्थितिक तंत्र के समक्ष जो संकट देखने को मिल रहा है उस संकट से राममय होकर मुक्त हुआ जा सकता है । तुलसीदास का मानना है कि समग्र सृष्टि राममय है, वे मानस में लिखते हैं कि –

जड़ चेतन जग जीव जत सकल राममय जाति ।

बंदऊँ सब के पद कमल सदा जोरि जगपानि।

लोक मंगल के जिस आदर्श को लेकर तुलसीदास जी चलते हैं, उसमें समस्त समाज का प्रतिनिधित्व देखने को मिलता है । राममय चराचर जगत में लोक के समस्त प्रतिमानों को तुलसीदास ने मानस में प्रतिनिधित्व प्रदान करते हैं । जाम्बवान, गीध,बानर,आदिवासी समाज, और समाज में पिछड़ी समझने जानेवाली जातियों के पात्र निषाद-राज एवं शबरी सभी को तुलसीदास ने अपने मानस में उस भूमि पर लाकर खड़ा कर दिया , जिसमें सब पर प्रभु कृपा बरसती रही और सभी प्रभु के काज में लगे हुए हैं । तुलसीदास जी अपने इस महाकाव्य के माध्यम से लोक जीवन में एक नयी चेतना जागृत करने का कार्य किया । राम का व्यक्तित्व और उसका प्रभाव ऐसा है कि राम के संगत सामान्य से सामन्य व्यक्ति विवेकवान हो जाता है –

बिनु सतसंग बिबेक न होई । राम कृपा बिनु सुलभ न सोई।।

सतसंगत मुद मंगल मूला। सोइ फल सिधि सब साधन फूला।।

तुलसी ने राम के जिस व्यक्तित्व का अंकन अपने मानस में किया है वह लोक जीवन में सहज ही व्यापत हो गया, रामायण के राम का लोक का राम बन जाना तुलसी की लेखनी द्वारा ही संभव हुआ है। लोक भाषा के साथ-साथ लोक विश्वासों और लोक-संस्कृति में राम के व्यक्तित्व को ढालने का जो कार्य किया उससे राम की वैश्विक व्याप्ति हो गयी और आम जन के जीवन यापन के निमित्त एक मर्यादा भी निर्धारित हो गयी। तुलसीदास ने राम के जीवन के विविध पक्षों का अंकन करते हुए लोक जीवन के सभी पक्षों का समावेश कर कथा को प्रमाणिक और रोचक बना दिया है, जिससे राम के व्यक्तित्व में लोक की आस्था और भी दृढ हो गयी है। राम के विवाह का वर्णन हो या सीता हरण या लक्ष्मण को शक्ति लगने का प्रसंग सभी घटनाओं में राम भगवान के रूप में नहीं वरन एक आम इन्सान के रूप में व्यवहार करते हैं, इसे रेखांकित करते हुए बच्चन सिंह ने लिखा है कि – “मानस की नींव गार्हस्थिक जीवन पर रखी गयी है । इस धुरी पर मानवीय रिश्ते भी घूमते रहते हैं। इस दृष्टि का जो प्रसार, मानवीय जीवन के उत्तर-चढ़ाव का जो अनुभव, जिन्दगी की जो व्याप्ति, गहराई और वैशिष्ट्य मानस में मिलता है वह हिन्दी साहित्य के किसी एक काव्य महाकाव्य में नहीं मिलेगा । यहीं पर वर्णाश्रम धर्म तिरोहित हो जाता है ,सामंती आभिजात्य गायब हो जाता है।

तुलसीदास ने अपने मानस के माध्यम से एक ऐसे मानव समाज की स्थापना पर जोर देते हैं जिसे सामंती और पूंजीवादी व्यवस्था ने तहस-नहस कर दिया है । मानस के ग्रामवासियों और जनजातियों के भोले प्रेम देखकर हम मनुष्यता की बुनियाद पहचानते हैं। आज के समय में जीवन और भविष्य की अनिश्चितता को लेकर हमारे मन में अनेकानेक तरह की शंका देखने को मिल रही है, ऐसे समय में राम में अटूट आस्था से सम्बंधित निम्नलिखित पंक्तियाँ हमें मानसिक संबल प्रदान करतीं हैं –

होइहि सोइ जो राम रचि राखा। को करि तर्क बढ़ावै साखा।।

अस कहि लगे जपन हरिनामा। गईं सती जहँ प्रभु सुखधामा।।

होगा वही जो राम ने रच रखा है, इसलिए अपने कर्म पर हमें यकीन रखना चाहिए । रामचरितमानस के माध्यम से तुलसीदास जी जीवन जगत के निमित्त सकारत्मक उपदेश देते हैं, राजा कैसा होना चाहिए इस बात पर भी जोर देते हैं और तुलसीदास जी जीवन के मर्म को पहचानते हैं ,मानस में अनेक ऐसे स्थल हैं जहाँ तुलसी ने राम के मर्म को लोक के मर्म के साथ एक धरातल पर ला कर खड़ा कर दिया है –

सुनि सीता दुख प्रभु सुख अयना भरि आए जल राजिव नयना ।।

बचन कायं मन मम गति जाही । सपनेहुँ बूझिअ बिपति की ताही ।।

       अपने आराध्य को एक सामान्य मनुष्य की तरह विलाप करते देखकर हमारे मन में उनके प्रति विश्वास उत्पन्न करता है, साथ ही साथ हमारी आस्था भी दृढ़ होती है । लोक में राम की व्यापती का आधार उनका वह चरित्र है, जिसे तुलसीदास ने अपने मानस के माध्यम से अभिव्यक्त किया है । एक ओर राम समग्र सृष्टि के नियंता हैं वहीँ दूसरी ओर एक आम इन्सान की तरह जीवन के सुख-दुःख से प्रभावित भी होते हैं । जब समुद्र से विनय करने के बाद भी उसने राम कहना नहीं माना तो राम लक्ष्मण जी से कहते हैं –

बिनय न मानत जलधि जड़  गए तीनि दिन बीति ।

बोले राम सकोप तब भय बिनु होइ न प्रीति ।।

तुलसीदास ने राम के चरित्र के माध्यम से लोक मन की उदारता और लोक व्यवहार को बखूबी रेखांकित किया है । निवेदन और आग्रह के बाद भी कोई ना बात ना माने तो उसके साथ हमारा लोक किस तरह व्यवहार करता है, इसे उपयुक्त पंक्तियों में देखा जा सकता है । राम का मानस में संसार के सभी जीव-जन्तु का ख्याल रखा गया है । तुलसीदास ने इस आख्यान के माध्यम से जो सन्देश दिया वह यह है कि सभी को साथ लेकर ही कोई भी युद्ध जीता जा सकता है । रावण पर राम का विजय इसका प्रमाण है ।

राम का चरित्र इस लिए भी अनुकरणीय है कि जीवन परिस्थितियां कैसी भी हों हमेशा उचित मार्ग का चयन करना चाहिए । राम-रावण के युद्ध का परिणाम तो सभी को पता है, लेकिन रावण नहीं मानता है और राम भी अपने देवत्व को अपने व्यक्तित्व हावी नहीं होने देते । मर्यादा पुरुषोत्तम राम के रूप अपने आराध्य को रूपायित करना अपने आप में विशिष्ट है । लोक-रंजक के रूप में राम के व्यक्तित्व का अंकन कर तुलसीदास ने राम को लोक नायक बना दिया । आज राम का व्यक्तित्व पूरी दुनिया के लोक में स्वीकृत हो चुका है। मानस की नीव ही सामान्य जन की प्रभुता की स्वीकृति में है , इस सन्दर्भ हिन्दी साहित्य के प्रमुख आलोचक बच्चन सिंह ने लिखा है कि –“मानस के ग्रामवासियों और जनजातियों के भोले प्रेम को देखकर हम मनुष्यता की बुनियाद पहचानते हैं, जिसे पूंजीवादी सभ्यता लील चुकी है । गाँव अपने संगीत का कंपन खो चुके हैं, सरलता का छंद तोड़ चुके हैं । ऐसी स्थिति में वनमार्ग में पड़ने वाले गाँवों की स्त्रियों का राम-लक्ष्मण और सीता के प्रति निर्हेतुक प्रेम देखकर आश्चर्यचकित रह जाना पड़ता है । कोल,किरात,भील,निषाद जैसी अस्पृश्य जातियाँ राम के लिए फलों की ढेर लगा देतीं हैं, पलक के पंवाडे बिछा देतीं हैं ।”

लोक मानस का जैसा विस्तृत और व्यापक अंकन मानस में में देखने को मिलता है वैसा अन्यत्र नहीं मिलेगा । आज के समय में राम के चरित्र की वैश्विक स्वीकृति के पीछे सर्वप्रमुख कारण यह है कि तुलसीदास ने राम लोक रंजक रूप को अपने मानस के माध्यम से लोक में स्थापित किया और लोक जगत के लोग जैसे- जैसे दुनियाभर में गये वैसे-वैसे राम का व्यक्तित्व भी दुनियाभर में ख्याति प्राप्त करता चला गया । मध्यकाल से लेकर आज तक राम के चरित्र के अंकन के लिए बहुत से ग्रन्थ लिखे गये लेकिन जो स्वीकृति तुलसीदास कृत्त राम चरित मानस को मिली वो किसी अन्य ग्रन्थ को नहीं । 

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