राष्ट्रभाषा हिन्दी के सन्दर्भ में गांधी का चिन्तन एवं दर्शन

 हम जिस भू भाग में रहते हैं, वह अत्यन्त प्राचीन संस्कृति एवं सभ्यता के संस्कार से परिपूर्ण भाग है। इस भू भाग की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि यह समाज प्राचीन परम्पराओं को पोषित एवं परिवर्द्धित करते हुए भी अपने आप मे जड़ नहीं वरन चेतन है। भारतवर्ष की सभ्यता एवं संस्कृति के समकालीन सभ्यताएॅं आज अपना अस्तित्व खो चुकी हैं, लेकिन अपने लचीले और ग्रहणशील स्वभाव के कारण हमारी सभ्यता आज भी विश्व समुदाय को दिशा देने में सक्षम है। हमारे वेदों में जो ज्ञान राशी संचित है वह आज के तकनीकी युग में भी प्रासंगिक एवं प्रभावी है । वेदों की रचना से लेकर आज तक के विकास एवं परिष्कार की प्रक्रिया में हमारे देश में अनेक ऐसे विद्वान, संत, महात्मा, विचारक, दार्शनिक  एवं गुरू हुए हैं, जिन्होंने समय-समय पर रूढ़ होते भारतीय समाज को अपनी श्रेष्ठ से श्रेष्ठत्तर परम्पराओं के प्रति जागरूक किया।

वेदव्यास से लेकर विवेकानन्द, महात्मा गांधी, विनोवा भावे, राजा राम मोहन राय, तक अनेकानेक महापुरूषों ने भारतीय परम्परा एवं समाज को परिष्कृत कर नये रूप में ढालने का कार्य किया। राम, कृष्ण, वामन, गौतम बुद्ध, महावीर स्वामी, गुरू नानक, गोरखनाथ, आदि ऐसे महापुरूष हुए हैं जिन्होने समाज का मार्गदर्षन एक मानव के रूप में किया, लेकिन हमारा समाज इन्हें भगवान के रूप में पूजता है। वेदव्यास, बाल्मीकी, कालिदास, कबीरदास, तुलसीदास, सूरदास, मीरा, केषवदास रसखान, रहीम आदि ऐसे अनेक विद्वान रचनाकार हुए जिन्होंने अपनी रचनाओं के माध्यम से भारतीय समाज को उसके प्राचीन गौरव का समय -समय ज्ञान कराते रहें हैं।


आधुनिक काल में भारतीय समाज को पुनः जागृत करने का आह्वान अनेक सामाजिक सुधार आन्दोलनों के द्वारा किया गया। हमारा वैभवशाली देश हमेशा से अक्रान्ताओं के निषाने पर रहा है। जिसके परिणाम स्वरूप लगभग 800 वर्षों तक अलग- अलग शासकों और जातियों ने हमारे देष पर न केवल शासन किया वरन् हमारी वैभवषाली परम्परा को क्षति पहुचाने का भी कार्य किया, और समय-समय हमारे समाज में ऐसे सन्त एवं विद्वान भी हुए जिन्होने हमारे प्राचीन वैभव एवं श्रेष्ठ परम्परा को आधार बनाकर समाज की चेतना का जगाने एवं नये रूप में प्रस्तुत करने का कार्य किया। 

भारतीय नवजागरण में समाज सुधारकों, साहित्यकारों और दार्शनिक  का विशेष योगदान रहा है। इस जागरण की पृष्ठभूमि में लोकजागरण की चेतना को भी लक्षित किया जा काता है। भारतीय इतिहास की परम्परा में मध्यकाल को लोक जागरण के रूप में भी देखा एवं समझा जाता है। यह जागरण देश के सभी क्षेत्रों एवं सभी जातियों में अर्न्तवर्ती चेतना के रूप में प्रवाहित होती रही है। यह प्रवाह लगभग 5000 वर्षों से अनवरत रूप में अपनी निरन्तरता बनाये हुए है। हमारी चेतना, संस्कृति एवं सभ्यता की निरन्तरता में एक विशिष्टता यह भी है कि हमारी भाषा अनेकानेक परिवर्तनों के बाद भी अपने मूल स्रोत से जुड़ी हुई है। संसार की सभी भाषाओं में सबसे प्राचीन भाषा के रूप संस्कृत प्रतिष्ठित रही है। नवजागरण एवं लोक जागरण के परिणाम स्वरूप जिस भाषा का व्यवहार हमारे देश एवं समाज में हो रहा है, उसे हम हिन्दी भाषा के रूप में जानते समझते हैं। आज जिस रूप में हिन्दी प्रयुक्त हो रही है, उसका विकास भारत में स्वाधीन चेतना के आरम्भ से जुड़ा हुआ है। भाषा विकास की दृष्टि से इसकी परम्परा निम्नलिखित है-

वैदिक संस्कृत - लौकिक संस्कृत - पालि- प्राकृत- अपभ्रंश -हिन्दी।

भारत में स्वाधीन चेतना के उदय के साथ-साथ हिन्दी भाषा भी नये रूप रंग कलेवर के साथ सार्वदेषिक रूप ग्रहण करती हैं सन् 1857 के स्वाधीनता आन्दोलन के पष्चात् एक भाषा के रूप में खड़ी बोली हिन्दी का विकास बहुत ही तेजी से हुआ। इस सन्दर्भ में भारतेन्दु हरिष्चन्द्र ने लिखा है कि-

हिन्दी नयी चाल में ढली।

हिन्दी भाषा के विकास एवं विस्तार में अनेकानेक सामाजिक, साहित्यिक संगठनों के साथ-साथ विद्वानों का विशेष योगदान रहा है। प्रथम स्वाधीनता आन्दोलन के विफल होने के बाद एक राष्ट्र्रभाषा के रूप में हिन्दी प्रतिष्ठित होती गयी। हिन्दी के विकास मे सर्वाधिक योगदान साहित्यकारों, पत्रकारों एवं स्वाधीनता आन्दोलनों का रहा है। भारतीय राष्ट्रीय स्वाधीनता को सर्वाधिक सर्वागीणपूर्ण बनाने में महात्मा गॉंधी का विशेष योगदान रहा है। महात्मा गांधी का व्यक्ति अपने आप में प्रेरक रहा है। प्रेरक होने के साथ-साथ गांधी जी एक व्यक्ति ही नहीं वरन् एंक संस्था के रूप में हमारे समय एवं समाज का मार्गदर्षन करे रहे हैं। महात्मा गांधी ने हिन्दी भाषा के विकास में विशेष योगदान दिया है। हिन्दी के विकास भारत को एक सूत्र में पिरोने के लिए अत्यन्त आवष्यक था। इसके निमित्त गांधी जी ने स्वयं तो प्रयास किया ही और लोगों को भी हिन्दी भाषा के प्रति जागरूक किया । भाषा संबधी महात्मा गांधी के विचारों को जानने  समझने से पहले हम गांधी जी के व्यक्तित्व एवं कृतिव को जानना श्रेयष्कर होगा।

महात्मा गांधी आधुनिक समय के विचारकों में एक ऐसे विचारक, दार्शनिक  एवं राजनेता के रूप में जाने जाते हैं जिसने विश्व  वातायन को बहुविध प्रभावित किया। यह सर्वविदित है कि गांधी के विचारों ने विष्व इतिहास को बदल दिया। भारत, पाकिस्तान, ग्रेट ब्रिटेन, रूस और दक्षिण अफ्रीका के जिन देशों  में उनकी गतिविधि जुड़ी हुई थी। उनमें अभी भी गांधी जी के ज्ञान और विचारों के प्रभाव फैले हुए हैं। महात्मा गांधी जी के सामाजिक जीवन और सरोकारों आरम्भ दक्षिण अफीका से हुआ। वे दक्षिण अफ्रीका में अल्पसंख्यक लोगों के रक्षक प्रगतिशील विचारों के प्रेरक और महान आत्मा वाले व्यक्ति के रूप में अपना काम करने लगे और वहा के भारतीय प्रवासियो के अधिकारों रक्षा करते रहे। (गर्भनालः अक्टूबर 2019)

भारत लौटकर उन्होंने अपनी मानवाधिकारिक गतिविधि जारी रखी। महात्मा गांधी जी ने भारत को औपनिवेषिक शासन से स्वतंत्रता दिलाने के लिए अहिंसा का रास्ता अपनाया। गांधी जी भारत की प्राचीन परम्पराओं और जमीनी वास्तविकताओं से अपनी विचारों की प्रेरणा लेते थे। गांधी जी सैद्धान्तिक  दार्होशनिक ने के साथ साथ  व्यवहारिक दार्शनिक  भी थे। उन्होंने समान विचारधारा वाले लोगों को एकजुट करने के लिए अहिंसक विधि का नारा दिया और भारतीयों के सर्घष का नेतृत्व किया। 

महात्मा गांधी भारतीय समाज की वास्तविकाताओं से भलि भांति परिचित थे। अपने अनेक आन्दोलनों के दौरान वह भरतीय समाज से जुड़े और भारतीय जनमानस के मनोभावों को प्रदिप्त करने का कार्य किया। गांधी जी के व्यक्तित्व का प्रभाव भी हमारे समाज पर पड़ा। युवा, नौकरी पेषा लोग, और साहित्य एवं सामाजिक जीवन में संलग्न लोग भी गांधी जी के आह्वान पर स्वाधीनता आन्दोलन से जुड़े  और सक्रिय रूप से अपनी सहभागीता भी सुनिश्चित  किया। अपने स्वाधीनता आन्दोलन के दौरान गांधी जी को एक ऐसी भाषा की आवश्यकता  महसूस हुई जिससे सम्पूर्ण भारत में वार्तालाप हो सके । महात्मा गांधी का इस संन्दर्भ मंे विचार था कि अखिल भारत के परस्पर व्यवहार के लिए ऐसी भाषा की आवष्यकता है, जिसे जनता का अधिकतम भाग पहले से ही जानता समझता है, और हिन्दी इस दृष्टि से सर्वश्रेष्ठ है।’ 

हिन्दी भाषा और स्वाधीनता आन्दोलन का बहुत गहरा नाता है। नव जागरण के साहित्यिक प्रयासों औेर सामाजिक आन्दोलनों ने भारतीय जनमानस में स्वाधीनता चेतना के भाव को जगाया और इसके लिए हिन्दी एक माध्यम भाषा के रूप में प्रतिष्ठित हुई। हिन्दी न केवल माध्यम भाषा हुई वरन् हिन्दी राष्ट्रभाषा के रूप में भी प्रासंगिक होने लगी। इस संन्दर्भ में हिन्दी के महत्व के रेखंकित करते हुए कहा गया है कि- 

‘उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में सामाजिक, धार्मिक ही नहीं, राजनीतिक आन्दोलनों की भाषा हिन्दी सिद्ध हुई, इस प्रकार हिन्दी को व्यापक जनाधार मिला। उन्नीसवी शताब्दी में भारत में भावनात्मक सन्दर्भ की क्रान्ति शुरू हुई। उसे वाणी देने में हिन्दी ने अपनी अहम भूमिका निभाई। स्वाधीनता आन्दोलनों के उदय एवं प्रसार के साथ-साथ हिन्दी पत्रकारिता का भी उदय हुआ।

स्वाधीनता आन्दोलन एवं हिन्दी पत्रकारिताः- हिन्दी का पहला समाचार पत्र उदन्त मार्तण्ड  सन् 1826 में प्रकाशित हुआ, और प्रथम स्वाधीनता आन्दोलन 1857 में। दोनों घटनाओं के बीच 31 वर्ष का अन्तर है। जिस स्वाधीन भावबोध को हिन्दी पत्र-पत्रिकायें भारतीय जनमानस में जाग्रत कर रही थीं, उसका प्रथम उत्थान 1857 में देखने को मिला।  हिन्दी पत्रकारिता का जुड़ाव स्वाधीनता आन्दोलन से अकारण नहीं हैं यह भारतीय राष्ट्रीयता से गहरे स्तर पर जुड़ी हुई  है 1826 से 1873 तक के समय को हम हिन्दी पत्रकारिता का पहला चरण कह सकते हैं। भारतेन्दु युग को हिन्दी पत्रकारिता का दूसरा चरण कह सकते हैं। इस समय में प्रकाशित होने वाली प्रमुख पत्र- पत्रिकाएं हैं- प्रजामित्र, बनारस अखबार, प्रजाहितैशी, प्रजाहित, हिन्दू प्रकाश, आगरा अखबार, हरिश्चंद्र  मैगजीन, कविवचन सुधा, बालबोधनी इत्यादि। 

भारतेन्दु युग के पश्चात्  हिन्दी पत्रकारिता का विकास एवं प्रसार सामाजिक धरातल पर और भी व्यापक हुआ। इस समय में ‘सरस्वती’ पत्रिका का विशेष स्थान है। परन्तु राजनीतिक क्षेत्र में हिन्दी पत्रकारिता को नेतृत्व प्राप्त नहीं हो सका। हिन्दी प्रदेश का पहला दैनिक पत्र राजा रामपाल सिंह का द्विभाषीय ‘हिन्दुस्तान’ है जो अंग्रेजी और हिन्दी दोनों भाषाओं में प्रकाशित होता था। तत्पश्चात  कानपुर से भारतोदय नाम से एक दैनिक पत्र निकलना आरम्भ हुआ। इसके बाद अभ्युदय, प्रताप, कर्मयोगी, हिन्दी केसरी, आदि के रूप मे राजनीतिक एवं सामाजिक पत्रकारिता का विकास हुआ। प्रथम विश्वयुद्ध  के पश्चात्  कलकता समाचार,  स्वतंत्र विश्वमित्र जैसे पत्रों ने समाज में राजनीतिक चेतना को जगाने का कार्य किया। 1921 में काशी से आज, और कानपुर से वर्तमान का  प्रकाषन आरम्भ हुआ। इस प्रकार हम देखते हैं कि 1921 में हिन्दी के क्षेत्र मे भी नई प्रवृत्तियों का आरम्भ इसी समय से होता है।

महात्मा गांधी और हिन्दी पत्रकारिताः- महात्मा गांधी ने बीसवीं सदी के आरम्भ में सम्पूर्ण भारत में एक राष्ट्रीय व्यक्तित्व के रूप मंे ख्याति अर्जित कर चूके थे। 1921 तक गांधी जी के नेतृत्व में राष्ट्रीय आन्दोलन मध्यवर्ग तक सीमित न रहकर ग्रामीणों और श्रमिकों तक पहंुच गया और उसके इस प्रसार मंे हिन्दी पत्रकारिता ने महत्वपूर्ण योगदान किया। सच तो यह है कि हिन्दी के पत्रकार राष्ट्रीय आन्दोलनों की अग्र पंक्ति में थे। और उन्होने विदेषी सत्ता से डटकर मोर्चा लिया। अंग्रेजी हुकूमत ने अनेक बार नए- नए कानून बनाकर समाचार पत्रों की स्वतंत्रता पर कुठाराघात किया, परन्तु जेल, जुर्माना और अनेकानेक मानसिक और आर्थिक कठिनाइयों के बाद भी हिन्दी पत्रकारों ने स्वतंत्र विचारों की ज्योति जलाए रखां

गांधी जी ने भी हिन्दी पत्रकारिता की समृद्धिमें अपना विशेष योगदान दिया। उनके द्वारा प्रकाशित पत्र हैं - हरिजन, नवजीवन, हरिजन सेवक, सत्याग्रह, यंग इण्डिया इत्यादि। 

गांधी जी की पत्रकारिता का मूल उद्देष्य सामाजिक एवं सांस्कृतिक दृष्टि से भारतीय जनमानस को एक- दूसरे से जोड़ना और भारत की राष्ट्रीय स्वाधीन चेतना का प्रसार करना। गांधी जी के आधिकांश विचार उनके द्वारा  प्रकाषित पत्रों के माध्यम से लोगों तक पहुॅंचते रहे। उपरोक्त पत्रों के माध्यम से गांधी जी ने हिन्दी को राष्ट्रीय स्तर पर प्रचारित एवं प्रसारित करने का कार्य किया। हिन्दी भाषा के प्रति गांधी जी का विशेष झुकाव रहा है। हिन्दी के विषय में गांधी ने कहा था कि -ह्रदय  की कोई भाषा नहीं है, हृदय हृदय से बातचीन करता है और हिन्दी हृदय की भाषा है’। इसी क्रम में गांधी जी ने हिन्दी पत्रकारिता के माध्यम से एक राष्ट्रभाषा के रूप में हिन्दी को प्रतिष्ठत करने के निमित्त प्रेरित करते हुए कहा - राष्ट्रभाषा के बिना राष्ट्र गूंगा है।

भारतीय स्वराज की स्थापना के निमित्त गांधी जी ने हिन्दी भाषा के प्रचार-प्रसार को नितान्त आवश्यक  मानते थे। पत्रकारिता के अलावा गांधी जी ने हिन्दी के प्रसार के लिए और भी कार्य किया। इस सन्दर्भ में गांधी जी ने कहा है कि - ‘हिन्दी भाषा के लिए मेरा प्रेम सब हिन्दी प्रेमी जानते हैं। हिन्दी भाषा का प्रश्न  स्वराज्य का प्रश्न है।’

राष्ट्र् भाषा हिन्दी और महात्मा गांधीः- राष्ट्रभाषा  के रूप में हिन्दी को गांधी जी विशेष महत्व देते थे। राष्ट्रीय व्यवहार में हिन्दी को काम में लाना देष की शीघ्र उन्नति के लिए आवष्यक है। स्वाधीनता आन्दोलन के दौर में हिन्दी के विशेष योगदान देने वालों में प्रमुख हैं- पं0 गोपाल कृष्ण गोखले, सुभाष चन्द्र बोस, सी राजगोपालाचारी, लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक, लाला लाजपतराय, पं0 मदनमोहन मालवीय, महात्मा गांधी, राजर्षि पुरूषोतमदास टंण्डन, काका कालेलकर, सेठ गोविन्ददास इत्यादि। हिन्दी के विकास में व्यक्तियों के अलावा संस्थाओं का विषेष योगदान रहा है।- भारतेन्दु मण्डल, नागरी प्रचारिणी सभा, हिन्दी  साहित्य सम्मेलन प्रयाग,  दक्षिण भारत हिन्दी सभा मद्रास इत्यादि।

सन् 1918 में महात्मा गांधी ने इंदौर अधिवेषन में भारत के दक्षिणी क्षेत्र में हिन्दी के प्रचार-प्रसार के लिए दक्षिण भारत  हिन्दी प्रचार सभा मद्रास के स्थापना के घोषणा की। दक्षिण में हिंदी के प्रसार के लिए गांधी जी ने अपने पुत्र देवदास गांधी और  श्री सत्यदेव परिब्राजक को प्रचारक के रूप में भेजा। ये लोग दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा मद्रास के माध्यम से दक्षिण के सभी राज्यों में हिन्दी का तेजी प्रचार करने में लग गये। समय-समय पर गांधी जी भी अपने प्रवास के समय में हिन्दी के अखिल भारतीय रूप में प्रतिष्ठित करने के लिए लोगों को प्रेरित करते रहे।

महात्मा गांधी ने अनेक स्थानों ओर अवसरों पर अनेक माध्यमों से हिन्दी भाषा के उत्थान के लिए उद्बोधन देते रहे। उनके भाषणों ओैर ’हरिजन‘ तथा ’लोक सेवक‘ नामक पत्रों में हिन्दी के बारे में उनके मन्तव्य प्रकाशित होते रहते थे।  जो निम्नलिखित है-

कोई भी देश तब तक सच्चे अर्थों में स्वतंत्र नहीं हो सकता, जब तक वह अपनी भाषा नहीं बोलता है।

हिन्दी के महत्व और आत्मीयता के सन्दर्भ में गांधी जी के विचार जितने प्रासंगिक तब थे उतने ही प्रासंगिक आज भी हैं। उनका विचार था कि- ’मैं यह तो चाहता हूॅं कि मेरे घर के आस-पास देश-विदेश की संस्कृति की हवा बहती रहे, पर मैं यह कभी नहीं चाहता कि उस हवा के कारण जमीन पर से मेरे पैर ही उखड़ जाए और मै औंधे मुॅंह गिर पडूॅं। मैं अपने देशवासियों पर अंग्रेजी का नाहक बोझ डालने से इन्कार करता हूॅं। मुझे यह कतई सहन नहीं होगा कि हिन्दुस्तान का एक भी आदमी अपनी मातृ भाषा  को भूल जाय या उसकी हॅंसी उड़ाए, उससे शर्माए या उसे ऐसा लगे कि वह अपने अच्छे से अच्छा विचार अपनी भाषा में प्रकट नहीं कर सकता।’’

महात्मा गांधी का भाषा विषयक दृष्टिकोण अत्यन्त व्यापक था। वे स्वयं गुजरात से थे एवं उनकी मातृ भाषा गुजराती थी । विदेशों में रहने एवं वहॉं अध्ययन करने के कारण उन्हें अंग्रेजी भाषा पर भी अच्छा अधिकार था। भारतीय परिवेश के अनुरूप उन्हें हिन्दी भाषा से विशेष लगाव था। और उसके साथ-साथ गांधी  जी यह भी जानते थे कि हिन्दी एक ऐसी भाषा है जो सम्पूर्ण भारत का भाषाई नेतृत्व करने में सक्षम है। भारतीय स्वाधीनता आन्दोलन के साथ-साथ गांधी जी ने भारतीय राष्ट्रीय  का भाव-बोध जागृत किया और हिन्दी को राष्ट्र भाषा के रूप में स्थापित भी किया। गांधी जी के आहवान पर पूरे देश में हिन्दी में लेखन एवं प्रकाशन का कार्य तेजी से हुआ। गांधी जी ने अपने भाषा विषयक विचारों को समय समय अपनी पत्रकारिता के माध्यम से लोगों तक पॅंहुचाते रहे। उनका यह भी विचार था कि-

एक राष्ट्र भाषा हिन्दी हो

एक हृदय हो भारत जननी।

गांधी जी हिन्दी को भारत जननी के रूप में स्वीकार करते थे। राजनीतिक कारणों एवं क्षेत्रीय आकांक्षाओं के कारण हिन्दी आज भी भारत में वह स्थान नहीं प्राप्त कर सकी है, जिसकी आकांक्षा हमारे राष्ट्र्पिता को थी। राष्ट्रपिता के प्रति हमारी सच्ची श्रद्धांजली हिन्दी को सम्पूर्ण भारत में राज भाषा के रूप में स्वीकृत करने पर ही होगी। हिन्दी भाषा का प्रसार आज विश्व के अधिकांश देशों  में हो रहा है। वैश्वीकृत  दुनिया में हिन्दी का प्रभाव निरन्तर बढ़ता जा रहा है। संयुक्त राष्ट्र संघ की आधिकारिक भाषा के रूप में हिन्दी को मान्यता मिलने वाली है। हिन्दी के इस प्रसार में महात्मा गांधी के विचारों एवं चिन्तन का विशेष महत्व है। 


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