गीता दर्शन और वर्तमान वैश्विक सन्दर्भ

शान्ति और युद्ध के बीच मानव सभ्यता अनादि काल से संघर्षरत रही है | अनादि काल से लेकर अब तक यही देखने को मिलता है कि व्यक्ति के अधिकार की अनाधिकार चेष्टा ने हमेशा से मनुष्यता को कलंकित करने का कार्य किया है | मानव मात्र पूर्णतः समानता  या अधिकांशतः समानता स्थापित हो , यही लक्ष्य हमेशा से हमारे समाज का ध्येय रहा है | इसी ध्येय की स्थापना को लेकर महाभारत से लेकर अनेकानेक युद्ध लडे गये, लेकिन हमेशा से व्यक्ति की व्यक्तिगत लालसा ने समतामूलक समाज की स्थापना का मार्ग प्रशस्त नहीं होने दिया | महाभारत का युद्ध सम्मुख था, कृष्ण के बहुत कोशिश करने के बाद भी जब युद्ध टाला नहीं जा सका तो युद्ध भूमि अपने परिजनों और परिवारजनों के समक्ष जब अर्जुन का धैर्य जबाब देने लगता है, उनके और विश्व के सारथी श्री कृष्ण ने जो उपदेश दिया , उसे गीता के नाम से जाना जाता है|
गीता दर्शन की प्रासंगिकता समयकाल के साथ -साथ बहुत ही बढती जा रही है | लगभग सभी देशों का सर्वाधिक व्यय रक्षा  बजट पर किया जा रहा है, करोना  काल में हमने देखा कि  स्वास्थ्य उपकरणों का किस तरह  का आभाव रहा |  ऐसे समय में जो युद्ध और शांति की स्थापना के निमित्त हमें गीता जो दर्शन दिया गया है,उसकी ओर उन्मुख होना ही होगा | तभी हम एक स्वस्थ और समतामूलक समाज की स्थापना कर सकेंगे|
सभ्यता के विकास के साथ- साथ मनुष्यता को बचाना हमारे समक्ष एक विशद चुनौती के रुप में व्याप्त है | युद्ध और युद्ध जीतने के लिए विश्व घातक हथियारों को जुटाने के होड़ में हम यह भूल ही गये कि मानव जीवन रक्षक अविष्कार घातक हथियारों से ज्यादा जरूरी है| हमें करम परायण समाज के स्थापना पर विशेष बल देना चाहिए न कि प्रभुता और अधिकार प्रधान समाज की ओर उन्मुख होना है|

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