मीडिया का बदलता स्वरूप और हिन्दी भाषा: डॉ. पूजा वैष्णव

 


आधुनिक युग सूचना प्रौद्योगिकी का युग है, जिसका महत्त्वपूर्ण आधार ‘मीडिया’ है। मीडिया अर्थात् ‘मीडियम’ या ‘माध्यम’। जो समाचार पत्र, रेडियों, टेलीविजन, कम्प्युटर, इंटरनेट आदि विविध रूपों में आमजन तक सूचना को प्रसारित करता है। अतः मीडिया एक ऐसी शक्ति है जो मानव युक्ति के सारे पर्याय प्रस्तुत करती है।  सम्भवतः इसलिए मीडिया समाज के विभिन्न वर्गों, शासन की प्रमुख इकाईयों, व्यक्तियों और संस्थाओं के बीच सेतु का कार्य करता हैं क्योंकि वह समाज, साहित्य, संस्कृति, दर्शन, विज्ञान और प्रौद्योगिकी के व्यापक प्रसार, मानव संघर्ष और प्रगति का वक्ता है और वही समाज में संवाद वहन करने की भूमिका भी अदा करता हैं। दूसरे शब्दों में मीडिया उस व्यापक सत्ता का नाम है, जो अत्यन्त प्रभावशाली और अधिकार सम्पन्न है। जिसके बिना सामाजिक जीवन के उत्थान की कल्पना तक नहीं की जा सकती हैं। 

मीडिया की संवाद वहन करने की इस शक्ति का प्रमुख हथियार उसकी भाषा है, जिसके माध्यम से वह समाज को आईना दिखाने, जरूरत के वक्त मशाल बनकर बेहतर की ओर संकेत करने, नयी ऊर्जा और शक्ति के  नये स्रोतों की ओर जनमानस को मुख़ातिब करने का कार्य करती है। अतः ऐसे में मीडिया की भाषा का शुद्ध, परिष्कृत, अर्थवान एवं प्रभावशाली होना अत्यावश्यक हैं क्योंकि मीडिया की भाषा बहुसंख्यक लोगों की भाषा का स्वरूप निर्धारित करने की क्षमता रखती हैं। 

वर्तमान समय में तकनीकी परिवर्तन के कारण जैसे-जैसे मीडिया का स्वरूप बदल रहा है, वैसे-वैसे उसके भाषायी सन्दर्भ भी बदलते जा रहे है। आज मीडिया की भाषा ‘वैश्विक’ होती जा रही है, जिसके कारण उसकी भाषा विवादों के घेरे में आ गई है और यही विवाद हिन्दी मीडिया के सम्बन्ध में भी उठ रहे है। जिसका प्रमुख कारण हिन्दी भाषा में फैलता अंग्रेजी भाषा का संक्रमण है, जिसके कारण हिन्दी अपना रूप-रंग और मूल प्रकृति ही खोती जा रही है।

यद्यपि मीडिया ने हिन्दी भाषा के प्रचार और प्रसार में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की है। आकाशवाणी, दूरदर्शन जैसे माध्यमों ने हिन्दी को न सिर्फ लोकप्रिय बनाया बल्कि उसे क्षेत्रीय सीमाओं को लाँघकर देश के कोने-कोने में पहुँचाया हैं किन्तु यहाँ प्रश्न मीडिया के माध्यम से हिन्दी की लोकप्रियता का नहीं है वरन् भाषागत संक्रमण का है। वह संक्रमण चाहे अन्य भाषा में हिन्दी का हो या हिन्दी में अन्य भाषाओं का विशेषकर अंग्रेजी का। यह संक्रमण कहाँ तक उचित कहाँ जा सकता है? जो भाषा के मूल ढाँचे को ही बिगाड़ दे, यह विचारणीय प्रश्न है। इस सम्बन्ध में चिंतक गिरधर राठी का कथन द्रष्टव्य है, जिसके अनुसार - ‘‘टेलीविजन और रेडियो में हिन्दी भाषा की भ्रष्टता की शुरूआत तभी हो गई थी, जब हिन्दी को अनुदित करके पेश किया जाने लगा तब से शायद अभी तक टी.वी., रेडियों में समाचार सबसे पहले अंग्रेजी में बनते है और फिर उनका अनुवाद करके भारतीय भाषाओं में प्रसारण किया जाता है। यह एक भयानक तथ्य है कि इस बात को लेकर कही कोई आन्दोलन नहीं हुआ है। इस कथन के पीछे छिपी चिंता भाषा के निजत्व को खो देने की है। होना तो यह चाहिए कि कोई भी भाषा चाहे वह हिन्दी हो या अंग्रेजी या अन्य कोई भाषा वह अपने समर्थतम रूप में प्रयोग में आनी चाहिए, क्योंकि भाषा के प्रति की गई लापरवाही हमारी अस्मिता को तो खतरे में डालेगी ही, व्यावहारिक जगत में हमें गूँगा बना देगी।  

अतः भाषा और शब्दों के सौन्दर्य, मर्यादा, गरिमा और स्वरूप की चिंता करने वाले सभी इस नई भाषा के प्रभाव और भविष्य पर तो चिंतित है ही, उनकी चिन्ता का कारण यह भी है कि इस खिचड़ी, विकृत, कई बार लंगड़ी भाषा की खुराक पर पल बढ़ रही किशोर और युवा पीढ़ी वयस्क होने पर किसी भी एक भाषा में सशक्त और प्रभावी संप्रेषण के योग्य बचेगी या नहीं।  जो गम्भीर चिन्तन का विषय है। 

हम जानते है कि भाषा परिवर्तनशील होती है, वह अपने साथ अन्य भाषा के शब्दों को स्वीकार करती हुई चलती है, किन्तु यदि भाषा अन्य भाषा के शब्दों को स्वीकार करती हुई, अपनी मूल प्रकृति को ही खोने लगे जो वास्तव में यह गम्भीर समस्या है और हिन्दी भाषा के साथ कुछ ऐसा ही हो रहा है, हिन्दी में अंग्रेजी की मिलावट ने हिन्दी की भाषागत संरचना को ही बदल दिया है, जिसने हिन्दी को बहुसंख्यक लोगों की भाषा बनाने में महŸाी भूमिका निभायी है। मीडिया विशेषज्ञ और टेलीविजन प्रवक्ता की विनोद हुआ एक बानगी को प्रस्तुत करते हुए कहते है कि - ‘‘कांग्रेस के कॉन्वेशन में रिबेल्स ने ये डिसीजन लिया है‘‘ यह वाक्य न तो हिन्दी भाषा का है और न अंग्रेजी का। कुल मिलकर यह प्लास्टिक का मुहावरा है जिसकी जडं़े कहीं नहीं है।’  भारतीय हिन्दी मीडिया का आधुनिक रूप विनोद दुआ के इस कथन में दृष्टिगत होता है। वाक्य की कोई जडे़ं न हो तो उसका महत्त्व भी नहीं होता, परन्तु आज जानबूझ कर ऐसे वाक्य बनाये जा रहे है, जो जनता के दिमाग पर तुरन्त असर कर दे, भले फिर उस वाक्य में व्यावहारिकता न हो। ‘आज तक’ चैनल ने दावा किया था कि उनकी खबरे हिन्दी भाषा के साथ ही प्रसारित होगी, लेकिन उसकी भाषा की हेड लाइन्स अंग्रेजी के शब्दों के साथ प्रस्तुत होती है तो दूसरी ओर ‘जी न्यूज’ की भाषा तो अंग्रेजी-हिन्दी का मिला-जुला प्रयोग ही रही है। इस पर अश्विनी चौधरी का कथन है कि-‘‘ ‘जी न्यूज’ की भाषा को खिचड़ी कह सकते है, क्योंकि यह न तो हिन्दी है, न अंग्रेजी। ‘जी‘ टी.वी. वाले इस भाषा को ‘व्यूज फ्रेंडली’ कहते है अर्थात् दर्शकों से तादात्म्य स्थापित करने वाली भाषा पर मुझे लगता है कि उन्हें अपने दर्शकों की ठीक-ठीक पहचान नहीं हैं। वे आम आदमी की भाषा का उपयोग नहीं करते है। ‘जी’ की खबरों में जिस भाषा का प्रयोग हो रहा है। उसका लोग बहुत खतरा भी नहीं मान रहे है क्योंकि इसका वास्तविक खतरा तो दस साल बाद दिखाई देगा।’’  जब हम अपनी भाषा की संप्रेषणीयता की क्षमता को ही खो देंगे। यह स्थिति न केवल इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की है, वरन् प्रिंट मीडिया में भी उत्पन्न हो गयी है। आज देश में प्रकाशित होने वाले ज्यादातर हिन्दी समाचार पत्रों की भाषा हिंग्लिश हो गयी है। शीर्षक आधा हिन्दी और आधा अंग्रेजी में दिया जा रहा है। ‘कौन बनेगा पीएम’, ‘जेडीए ने अनियमिता करने वाली दो फर्मों को किया ब्लैक लिस्ट’ जैसे समाचार शीर्षकों ने हिन्दी को हाशिए की स्थिति में धकेल दिया है। जिसके पीछे बाजारवाद में फँसी पत्रकारिता की नम्बर वन बनने की होड़ है। फिर चाहे उससे हिन्दी का मूल ढाँचा बिगड़ जाये, इससे उन्हें कोई सरोकार नहीं है। इस सन्दर्भ में डॉ. रमेशचन्द्र त्रिपाठी का कथन बिल्कुल सटीक है कि-‘‘तकनीकी विकास की तीव्र गति आज भाषा, साहित्य और समाज के लिए अभिशाप के रूप में उपस्थित हुई है। जनसंचार माध्यमों में भाषा साहित्य के ये प्रहरी और समाज के निर्माता आज भी है, किंतु तकनीकी विकास के कारण समय के साथ-साथ जैसे नयी-नयी चुनौतियाँ रोज खड़ी हो रही है, वैसे-वैसे भाषा साहित्य के ये प्रहरी उनका सामना करने में निस्तेज साबित हो रहे है। यही कारण है कि मीडिया आज के समाज के प्रश्नों से घिरा हुआ है।  

अतः आज आवश्यकता है कि हम इस विषय पर विचार करे कि मीडिया की हिन्दी भाषा हिंग्लिश क्यों होती जा रही है? क्यों उसकी भाषा आधारहीन हो गई है? जबकि इसी देश की हिन्दी पत्रकारिता ने हिन्दी भाषा को संवैधानिक दर्जा दिलाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी है। इन प्रश्नों के सन्दर्भ में विचार करके देखे तो हमें ज्ञात होगा कि मीडिया एक समाज सापेक्ष संस्था है, जिसका निर्माण समाज ने अपनी आवश्कयकता के अनुरूप किया है। अतः उसकी भाषा का भी समाज-सापेक्ष होना स्वाभाविक ही है। इस बात को श्री अननि चमडिया के कथन से सिद्ध किया जा सकता है - ‘‘भाषा का अपना एक चरित्र होता है और यह उस भाषा के सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक और राजनीतिक आधार पर बनता है।’’  इस दृष्टि से विचार करे तो हिन्दी भाषा का चारित्रिक आधार एक ऐसी शहरी मध्यम वर्ग की भाषा है, जो स्वयं अपनी अस्मिता की खोज करने की बजाय अंग्रेेजी के भूमण्डलीय छवि से आतंकित है और यही वर्ग संचार माध्यमों का कर्त्ता-धर्ता बना बैठा है। अतः ऐसे में मीडिया की भाषा में अंग्रेजी शब्दों की प्रधानता दिखायी दे तो कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए। 

ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में देखा जाए तो शुरू से ही हमारे देश में महानगरों के छोटे शहरों, कस्बों और फिर गाँव तक प्रभुत्वशाली संस्कृति का अविच्छिन्न प्रवाह बना हुआ है। उत्पादन और उपभोग के नए सामाजिक तन्त्र ने गाँवों को नगरों से जुड़ने और नगरों का महानगरोन्मुख होने को विवश कर दिया है। महानगरों के औद्योगिक केन्द्रों से सिर्फ तैयार माल नहीं आ रहा है बल्कि भाषा और संस्कृति भी आ रही है।  जिसमें कृत्रिमता, दिखावेपन का तत्व प्रभावशाली भूमिका निभा रहा है। जिसके कारण आज देश का सामान्य नागरिक भी अपनी संतानों को कन्वेंटीयन स्कूल में पढ़ाने की ख्वाहिश रखता है। जहाँ पूरा वातावरण ही अंग्रेजियत का होता है। ऐसे स्कूलों में हिन्दी को दोयम दर्जे में रखा जाता है। ऐसी पढ़ाई करके निकलने वाले छात्र-छात्राओं में अपनी हिन्दी भाषा के लिए कितना मान-सम्मान होगा? यह हम समझ सकते है। दिखावेपन की इस अंधी दौड़ में हम अपनी भाषा के निजत्व को खो रहे है। जिसके लिए हमें प्रयास करने होंगे। हिन्दी में फैलते अंग्रेजी भाषा के संक्रमण को रोकने की जिम्मेदारी हमारी स्वयं की है मीडिया तो मात्र समाज का आईना है और आईना वही दिखाता है, जो उसके समक्ष घटित होता है। यह समाज हम सब लोगों से मिलकर बना है। अतः भाषागत संक्रमण को रोकने की जिम्मेदारी मीडिया से पूर्व हमारी स्वयं की है। हम मीडिया के बदलते परिवेश और उसके भाषायी सदंर्भों पर उँगली उठाकर अपने कर्Ÿाव्य से कदापि विमुक्त नहीं हो  सकते। 

यदि सोच कर देखे तो हमारी भाषा यदि अंग्रेजी के संक्रमण का शिकार हुई है, तो उसके पीछे मीडिया से पूर्व हमारी स्वयं को मोडर्न (आधुनिक) सिद्ध करने की मानसिकता है। इसमें मीडिया की भूमिका तो मात्र इतनी भर है कि उसने इस मानसिकता को प्रसारित करने में अपना योगदान दिया है। अतः हमें स्वयं से इस मानसिकता को बदलने की शुरूआत करनी होगी, क्योंकि कोई भी राष्ट्र अपनी भाषा को छोड़कर राष्ट्र नहीं कहला सकता। सरदार वल्लभ भाई ने कहा है कि‘‘हर व्यक्ति का कर्त्तव्य है कि राष्ट्रभाषा की उन्नति बढ़ाये और उसकी सेवा करे जिससे सारे भारत में वह बिना संकोच या सन्देह के स्वीकृत हो सके..........।  वर्तमान संदर्भ में उनके कथन की सार्थकता मीडिया से जुड़कर ही सिद्ध हो सकती है।

अतः यह हम सबका नैतिक कर्त्तव्य है कि हम अपनी हिन्दी भाषा का सम्मान करे। उसी में सोचे-समझे, संप्रेषण करे एवं इस प्रकार की मिली-जुली (हिंग्लिश) भाषा से परहेज करे, जिसका अपना कोई ठोस आधार ही न हो।

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