स्वच्छन्दतावाद और पन्त : डॉ. अमरेन्द्र कुमार श्रीवास्तव

 

(चित्र -साभार ,गूगल )
साहित्य-आन्दोलन अपने भूखण्ड के सामाजिक दबावों की उपज होते हैं और उनके रूपायित होने में वहाँ की परिस्थितियाँ अपना विशेष प्रभाव डालती हैं। इसलिए जब कभी रचना-आन्दोलन के आरम्भिक दौर को जानना हो, तो ईमानदारी से उन परिस्थितियों की तलाश करनी चाहिए, जिन्होने एक विशेष भाव जगत को जन्माया। हिन्दी का छायावादी काव्यान्दोलन एक ऐसा आन्दोलन है जिसके सन्दर्भ में स्वच्छन्दतावाद शब्द का प्रयोग भी किया जाता रहा है। वैसे तो हिन्दी स्वच्छन्दतावाद का आरम्भ घनानन्द के काव्य से माना जा सकता है, लेकिन जिस रूप में आधुनिक  युग में स्वच्छन्दतावाद का प्रयोग हुआ है वह इस युग की विशेष उपलब्धि है। इसकी आरम्भिक प्रेरणा पाश्चात्य स्वच्छन्दतावाद से रही है, लेकिन उसका विकास भारतीय समाज की राजनीतिक, सामाजिक परिस्थितियों में हुआ ।

             स्वच्छन्दतावाद की चर्चा करते हुए हिन्दी में उसे प्रायः छायावाद तक सीमित कर दिया जाता है, और इन दोनों को लगभग समानार्थी स्वीकारने की पद्धति-सी चल पड़ी किन्तु उसके सम्पूर्ण आशय को समझना होगा। स्वच्छन्दतावाद एक व्यापक शब्द है और हिन्दी का छायावादी काव्य उसकी सम्पूर्ण व्याप्ति का प्रतिनिधित्व तब तक नहीं कर सकता, जब तक उसके सम्पूर्ण परिवेश को न समझ लिया जाय। स्वच्छन्दतावाद की मूल प्रवृत्ति  विद्रोह है जो आगे चलकर वैयक्तिक भूमियों पर फैल जाती है, स्वच्छन्दतावाद एक नयी  जीवन - दृष्टि की तलाश है। हिन्दी का छायावादी काव्य स्वच्छन्दतावाद की सर्वोत्तम अभिव्यक्ति है।

             छायावाद और स्वच्छन्दतावाद को अलग करने का कार्य आचार्य रामचन्द्र शुक्ल नें किया है और उसमें अंग्रेजी और बंगला का प्रभाव स्वीकार किया। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल की गलतफहमी है कि बंगला में छायावादी काव्य जैसी  कोई चीज थी, यदि ऐसा होता तो रवीन्द्र को इसका आदि कवि घोषित किया जाता है। इस भ्रान्ति कि


 छायावाद ने सर्वप्रथम बंगला में प्रवेश किया को तोड़ने का कार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने किया। उनका उल्लेख करते हुए प्रेमशंकर ने लिखा है- वे वर्षो शान्ति निकेतन में रहे है और रवीन्द्र के निकट सम्पर्क में आने का अवसर भी उन्हे मिले हेैं। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी  आचार्य रामचन्द्र शुक्ल की ओर संकेत करते हुए लिखते है कि- ‘‘हिन्दी के कुछ बृद्ध आचार्यों को इस प्रकार की योजना  पसन्द नहीं आयी थी।’’ इसी क्रम में वे आगे कहते हैं ‘‘ इसी नवीन प्रकार की कविता को किसी ने ‘छायावाद’ नाम दे दिया। यह शब्द बिल्कुुल नया है। यह भ्रम ही है कि इस प्रकार के काव्यों को बंगला में छायावाद कहा जाता था और वहीं हिन्दी  में आया है, छायावाद शब्द केवल चल पड़ने के जोर से स्वीकारणीय हो सकता है, नही ंतो इस श्रेणी की कविता को प्रकट करने  में यह शब्द एकदम असमर्थ है।

             इस सन्दर्भ में यदि हम छायावादी कवियों के साहित्य पर दृष्टिपात करें तो  छायावादी परिधि के बाहर जान पड़ते हैं। यदि छायावाद को स्वच्छन्दतावादी  काव्य नहीं स्वीकारा जायेगा तो निराला की प्रगतिशील रचनाएं और व्यंग्य प्रयोग को कहाँ रखा जायेगा, इसी प्रकार सुमित्रानन्दन युगान्त, युगवाणी और ग्राम्या काल में जब यथार्थ जगत से कुछ समय के लिए सम्पृक्त होने की  चेष्टा करने लगे, तब उनके काव्य को किस वर्ग में रखा जायेगा। इस सम्बन्ध में प्रेमशंकर छायावाद के स्थान पर स्वच्छन्दतावाद स्वीकार करते हुए लिखा है कि - ‘स्वच्छन्दतावाद छायावादी काव्य के लिए अधिक उपयुक्त शब्द है, क्यों कि उसमें इस काव्य की विविध भूमियाँ समाहित हो सकती हैं। इतना ध्यान अवश्य रखना होगा कि हिन्दी स्वच्छन्दतावादी काव्य  छायावाद पर विचार करते हुए उसे केवल शब्द-भ्रम के कारण पाश्चात्य, विशेषतया अंग्रेजी रोमानी काव्य का अनुचर समझने की भूल न की जाय और कुछ नही ंतो उन  दोनों में एक शताब्दी से आधिक का अन्तर है। पश्चिम का रोमानी काव्य अठारहवीं शती की सांध्यवेला का शशांक है, जब कि हिन्दी  का छायावादी काव्य बीसवीं शताब्दी के प्रभात का किरणाधार है। एक  ने उस समय को वाणी दी, जब यूरोप प्रजातंत्र का सुख भोगने लगा था और दूसरा कारागृह में संघर्ष करते हुए राष्ट्र का स्वर है दोनों की मनोभूमियों में जो अन्तर है, वह स्पष्ट है।

            कवि सुमित्रानन्दन पंत को हिन्दी स्वच्छन्तावादी काव्य के मुख्य हस्ताक्षरों में सम्मिलित किया गया है। उन्हें एक लम्बी यात्रा और अनेक काव्य- आन्दोलनों को देखने का अवसर उन्हें मिला है। वे 1900 ई0 में कुमायूँ क्षेत्र (अल्मोड़ा) के कौसानी गाँव में जन्में थे, जो अपने अछूते प्राकृतिक सौन्दर्य  के लिए विख्यात है और जिसने उनकी आरम्भिक कविताओं के आधार पर उन्हें ‘प्रकृति का कवि’ कहलाने का गौरव दिया। सामने दिखयी पड़ने वाले हिमालय के बर्फ-ढके पर्वत शिखर और आस-पास देवदारू, चीड़ की सघन वनखण्डी, मौका पाकर घर में घुस जाने वाले बादल और कड़कती बिजली से निकट की मुलाकात, पन्त ने प्रकृति को अपने इतने समीप पाया कि वह उनके अवचेतन में प्रवेश कर गयी और उनके व्यक्तित्व का एक महत्वपूर्ण हिस्सा बन गयी।

                कुमायूँ की नैसर्गिक प्राकृतिक छवि के साथ-साथ पारिवारिक संस्कारों का भी पन्त के व्यक्तित्व को गढ़ने में अपना रोल है। जन्म के छः-सात घण्टों के भीतर ही अपनी माँ को खोकर पन्त उस वात्सल्य से वंचित हो गये, जिसे भारतीय सन्तान का रक्षा कवच कहा जा सकता है। सम्भवतः इसीलिए उनके मन में नारी के प्रति एक ‘पूजा-भाव’ विद्यमान रहा है और उन्होेंने सदैव उसे आदर की दृष्टि से देखा है, पर मनोवैज्ञानिक स्तर पर स्नेहशीला माँ से वंचित होकर कवि धीरे-धीरे और भी अन्तर्मुखी होता गया इसमें शक नहीं। इसने उनकी एकान्त प्रियता को निश्चित ही और गहरा किया और उनकी संकोचशील प्रवृŸिा इससे जुड़ी हुई है। इस सन्दर्भ में पन्त जी ने स्वयं लिखा है- ‘‘प्रकृति के ऐसे मनोरम वातावरण में मेरा मन अपने आप उस निर्मिमेष नैसर्गिक शोभा में तन्मय रहना सीख कर एकान्त प्रिय तथा आत्मस्थ हो गया। मेरे प्रबुद्ध होने से पहले ही प्राकृति सौन्दर्य की मौन रहस्य भरी अनेकानेक मोहक तहें, अनजाने ही एक ऊपर एक अपने अनन्त वैचित्य में मेरे मन के भीतर जैसे जमा होती गयीं।

                 पंत के साहित्यिक संस्कारो के बनने में आरम्भ की संस्कृत-शिक्षा का भी योग रहा है। 1907-1909 ई0 के बीच उन्हांेने अमर कोश, मेघदूत रामरक्षा , स्त्रोत्र, चाणक्यनीति आदि के अतिरिक्त अन्य अनेक श्लोकों से परिचय प्राप्त कर लिया था। कौसानी से अल्मोड़ा और वहाँ से 1918 ई0 में काशी आने पर पंत को एक अधिक बडे़ ज्ञान क्षेत्र से परिचित होने का अवसर मिला और यहाँ उन्होेंने साहित्य की अच्छी जानकारी प्राप्त की। प्रयाग के विद्यार्थी काल में पन्त अंग्रेजी साहित्य, विशेषतया रोमानी कविता से प्रभावित हुए। उन्होंने स्वयं स्वीकारा है- ‘‘ उन्नीसवीशती के कवियों में कीट्स, शेली, वर्डसवर्थ तथा टेनिसन ने मुझे गम्भीर रूप से आकृष्ट किया।कीट्स के शिल्प-वैचित्य, शैली की सशक्त कल्पना, वर्ड्सर्थ का प्रांजल प्रकृति प्रेम, कॉलरिज की असाधरणता तथा टेनिसन के ध्वनिबोध ने मेरी कविता-सम्बन्धी रूप- विधान के ज्ञान को अधिक पुष्ट, व्यापक तथा सूक्ष्म बनाया।’’ (पंत, साठ वर्ष: एक रेखांकन, 32,33)

                   पंत ने एक लम्बी काव्य यात्रा की है और बीसवीं शताब्दी का लगभग तीन चौथाई भाग उनके सामने से गुजरा। परिणाम में उनके काव्य का विपुल आकार है और ‘लोकापतन’ जैसे दीर्घ आकार वाले प्रबन्धकाव्य के अतिरिक्त उनके लगभग दो दर्जन काव्य-ग्रन्थ उपलब्ध हैं। हम पंत के समस्त काव्य और काव्य-चिन्तन के छोर पर खडे़ होकर उनकी मान्यताओं पर विचार करते हैं तो हम देखते है कि उनके काव्य ने तो कई करवटें ली ही है, उनके काव्यदर्श भी बदलते रहे है। लेकिन उनकी मूल भूमि स्वच्छन्दतावाद ही है।

                    पंत ने ‘पल्लव’ में हिन्दी स्वच्छन्दतावादी काव्य-प्रवृतियों के विषय में नयी सौन्दर्यवादी घोषणाएं की और रचना के बदलते जगत का विस्तृत विवेचन किया, उसके कारण ‘पल्लव’ की प्रवेश नामक भूमिका को हिन्दी स्वच्छन्दतावाद का घोषणा पत्र होने का गौरव दिया जाता है। पल्लव की भूमिका में पंत ने भाषा को संसार का नादमय चित्र घोषित करते हुए ‘राग’ को कविता का प्राण कहा। इस राग  की उन्हांेने अपनी व्याख्या की। कविता हमारे परिपूर्ण क्षणें की वाणी है’ या कविता विश्व का अन्तरम संगीत है, उसके आनन्द का रोमाहास है, उसमें हमारी सूक्ष्मतम दृष्टि का प्रकाश है। ये वक्तव्य पंत के काव्य की आरम्भिक स्वच्छन्दतावादी दृष्टि को स्पष्ट करते हैं। पंत अपने काव्य में कल्पनातत्व की महत्वपूर्ण स्थिति स्वीकारते हुए ‘आधुनिक कवि’ की भूमिका में लिखते है - ‘‘कल्पना के सत्य को सबसे बड़ा सत्य मानता हूँ।’’ उन्होंने स्वयं स्वीकारा कि ‘वाणी’ से ‘ग्राम्या’ तक कल्पना को ही वाणी दी गयी है--। छायावाद के विवेचन में  पंत ने भावात्मक सŸाा की महत्वपूर्ण स्थिति स्वीकारी और उसे कोमल संवेदनों से जोड़ा। छायावाद के संस्कार पंत के व्यक्तित्व को तृप्त नहीं कर सके। इस सन्दर्भ में पंत ने आधुनिक कवि के पर्यालोचन में लिखा है- ‘‘पल्लव और गुंजन काल के बीच मेरे किशोर भावना का सौन्दर्य स्वप्न टूट गया। पल्लव की ‘परिवर्तन’ कविता दूसरी दृष्टि से मानसिक परिवर्तन का भी द्योतक है।’’ इसे कवि अपना मोहभंग मानता है और उसका कथन है कि, रचनाएं भावनात्मक न रहकर बौद्धिक बनती गयीं या भावना का मुख प्रकाशमान हो गया।’

                पंत के काव्य जगत में भावनात्मक स्तर पर परिवर्तन होते रहे। प्रेमशंकर ने पंत के तीन काव्य चरण मुख्यतः स्वीकारे है। प्रथम सौन्दर्यवादी काव्य, वीणा से लेकर ज्योत्सना तक दूसरा चरण युगान्त (1936) से ग्राम्या (1940) तक गांधी-मार्क्स से प्रभावित होकर जीवन की वास्तिकता के साक्षात्कार का काव्य है, जिसे यथार्थ पर काव्य भी कहा जा सकता है। तीसरा काव्य चरण स्वर्ण किरण (1947) से आरम्भ होकर लोकायतन (1964) तक  इसे हम दर्शन-आध्यात्म काव्य कह सकते है। अन्तिम काव्य चरण को दो भागों में बाँट कर देख सकते हैं। जिससे प्रयोगवादी लक्षण में देखने को मिलते हैं- विशेषतया कला और चाँद (1959) में ।

                अधिकांश आलोचक उनके पल्लव काल के मुरीद हैं और मानते है कि पंत काव्य के स्तर का वहाँ सर्वोतम रूप में देखा जा सकता हैं। प्रगतिवादी उनके यथार्थ परक काव्य के हिमायती हैं, पर उनके आध्यात्मिकता से उन्हें असन्तोष है। इस सन्दर्भ में एक वर्ग ऐसा भी है जो उनके आध्यात्म-काव्य को महान काव्य घोषित करता है। प्रेमशंकर पंत के काव्य के  इन विभिन्न चरणों को स्वच्छन्दतावादी काव्य की तीन मुद्रा मानते है और कहते है कि वे अपनी काव्य-यात्रा की शुरूआत से ही अधिक अन्तर्मुखी तथा कल्पना प्रिय रहे हैं। इस सन्दर्भ में प्रेमशंकर यह भी स्वीकार करतें हैं कि पंत के भावजगत में परिवर्तनों के कारण उनकी विचार धाराएं मोड़ लेती रहीं  पर शिल्प के क्षेत्र में कम तबदीलियाँ हुई आगे वे पंत को स्वच्छन्दतावादी कवि मानते है। उनकी ‘पल्लव’ काल की रचनाएं जिसे सौन्दर्यवादी काव्य कहा जाता है काफी महत्वपूर्ण है ‘पल्लव’ के पूर्व की रचनाएं है- उच्छवास, ग्रन्थि, आदि। ‘पल्लव’ 1926 में प्रकाशित पंत का प्रौढ़ काव्य-चरण है और उनकी लम्बी सृजनयात्रा में अनेक दृष्टियों से वह उनके काव्य का सर्वोŸाम प्रतिनिधि भी हैं। इसमें पंत ने काव्य की पुरानी मान्यताओं के स्थान पर नये प्रतिमान स्थापित किये और रचना सम्बन्धी अपनादृष्टिकोण स्पष्ट किया। ‘पल्लव’ शीर्षक पहली कविता के माध्यम से हम पंत की स्वच्छन्दतावादी दृष्टि का आरम्भिक पर प्रौढ़ स्वरूप पहचान सकते हैं। प्रकृति के प्रति उनकी रागात्मक के साथ उनके निजी संवेदना का संकेत भी इस कविता में मिल जाता है। जिस कल्पना तत्व को पंत के काव्य का मूलाधार माना जाता है, वह इस संग्रह की कविताओं में है।

                  प्रकृति से अपनी काव्य का आरम्भ करते हुए पंत ने उसे विभिन्न दिशाओं में मोड़ा और उसका अनेक प्रकार से उपयोग किया। पल्लव में छाया, मौन निमंत्रण बादल आदि कविताएं प्रकृति दृश्यों की दृष्टि से हिन्दी स्वच्छन्दतावादी काव्य की उपलब्धि है और इसमें संदेह नहीं कि प्रकृति को उसकी समग्रता में पा लने और उसे एक सचित्र सभार के रूप में प्रस्तुत कर सकने में पंत बेजोड़ है।

              ’पल्लव की लम्बी कविता परिवर्तन पंत की बदलती मनोदशा बताती है। 1924 में इसकी रचना हुई थी, जिसके पहले संसार प्रथम विश्वयुद्ध की विभीषिका देख चुका था। देश में भी राजनीतिक हलचलें तेज हो रही थी। ऐसे में पंत का प्रकृति लोकवादी रोमानी दुनिया में कैद रह पाना सम्भव नहीं था। निराला ने जब ‘परिवर्तन’ को ‘पूर्ण कविता’ कहा तब उनका आशय सम्भवतः यही था कि इसमें जीवन को समग्रता में पकड़ा गया है। इस कविता को प्रेमशंकर ‘यथार्थ के संस्पर्श की कविता मानते हैं और हिन्दी स्वच्छन्दतावाद की नयी भंगिमा स्वीकारते हैं। इस कविता में इतिहास समाज और आध्यात्म तीनों के साथ-साथ परिवर्तन को व्यापक स्वीकृति मिली है। यही परिवर्तन की प्रक्रिया पंत के काव्य में निरन्तर चलती रहती है। 

               इस निरन्तर चलती रहने वाली परिवर्तन की प्रक्रिया में पंत की संवेदनशीलता और ग्रहणशीलता की विशेष भूमिका रही है। इस सन्दर्भ में प्रेमशंकर का विचार है कि - पंत आरम्भ से ही संवेदनशील और काफी ग्रहणशील कवि रहे हैं। निराला की तरह उनमें विद्रोह चेतना के बीज नहीं रहे। इसी कारण पंत ने इधर-उधर के प्रभावों को ग्रहण किया और उनके सहारे आगे बढ़ते रहे। उनकी अन्तर्मुखी वृति और कल्पना प्रियता ने उन्हें एक आदर्श वादी आध्यात्मिक जीवन दृष्टि की ओर मोड़ा और किसी सीमा तक पैगम्बरी मुद्रा में आ गये। इन सब का संयोजन पन्त काव्य में नहीं कर सकें।

               इसके साथ-साथ प्रेमशंकर यह भी रेखाकिंत करते है कि- हिन्दी  स्वच्छन्दतावादी काव्य में पंत का स्थान महत्वपूर्ण है। उन्होंने ‘पल्लव’ की भूमिका में काव्य के नये स्वरूप के विषय में जो स्थापनाएँ की थीं, उन्हें कम से कम ‘पल्लव’ में तो प्रमाणित किया ही। एक प्रकृति के रूप में हिन्दी काव्य में लगभग अप्रतिम हैं। कल्पना की एक विस्तृत भूमि उनके पास है और उन्होंने क्रमशः अपने शब्द-सामर्थ्य में बृद्धि की है।

                 पंत छायावाद के श्रेष्ठ कवि हैं इसकी व्यापक स्वीकृति प्रेमशंकर ने अन्य आलोचकों के समान की है। लेकिन पंत को स्वच्छन्दतावादी कवि घोषित प्रेमशंकर ने पंत के समग्र काव्य को उचित आधार प्रदान किया है।

                

1. हिन्दी स्वच्छन्दतावादी काव्य: प्रेमशंकर

2. पल्लव: पंत

3. हिन्दी साहित्य का इतिहास: आचार्य रामचन्द्र शुक्ल

4. हिन्दी साहित्य: हजारी प्रसाद द्विवेदी

5. आधुनिक कवि: पंत

6. छायावाद की प्रासंगिकता: रमेशचन्द शाह

7. साठ वर्ष: एक रेखांकन - पंत

                             


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  1. अति सुंदर लेख ।

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    1. 🙏🏻🙏🏻🙏🏻🙏🏻🙏🏻🙏🏻

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