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इंतज़ार : प्रीति

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 तेरा इंतज़ार एक गोधुलि सी शाम  वो भोर की धूप सी निकली उजली चमकीली चांदनी सी केशर घुले दूध सी रंगत वाली गुलाब की पंखुड़ियों से होठ काली घटाओं से केश ऐसा लगे जैसे बादल के बिच खिला हो कोई चंद्र कमल हाथों में ताम्र घट लिए  वो उतर रही थी गंगा में  जैसे आकाश गंगा समा रहा हो साफ नीले पानी में  देखता निहारता रहा मैं  और वो लौटने भी लगी घट भर गंगा जल भरकर  भींगे नंगे पांव में पैंजनी  टुन टुन कर चढ़ रही थी गंगा घाट की सीढ़ियां  वो सुकोमल पांव ना जाने कैसे उठा रहे थे इतना बोझ सुंदर घट में पानी का और चेहरे के पानी का भी आंखो में समा गईं थीं मेरी उसका कोमल रूप श्रृंगार  बहुत भारी से हो रहे थे नयन मेरे  मैं खाली होना चाहता था मैं उसको छूना चाहता था मैं मुट्ठी में भर लेना चाहता उसका रूप आलिंगन कर भर लेना चाहता था उसका कोमल देह खुद में  पर सहसा सहम गया मैं खुद ही कैसे कसूं मैं इतना कोमल तन अपने पाषाण बाजुओं में  कहीं टूट ना जाए वो फूल मनोहर कहीं बिखर ना जाए पंखुड़ियां  मैं सोचता रहा निहारता रहा कि ना जाने कब उड़ गई  वो रूपसी सोन तितली बन मेरी आंखें खोजती रहीं  उसे ऊंचे आकाश तक छुप गई वो ना जाने कहां 

इन्सानियत :प्रीति

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आज एक लम्बी कहानी छोटी करके आपके सामने लाई हूॅं।एक पुरूष हैं जो बहुत गुणी हैं(मैं नाम नही लूंगी क्योंकि किसी का भेद खोलना नही चाहती)।शहर में घर हैं उनका।शहर के बीचों बीच एक ऐसा घर जिसकी चारदिवारी पागलखाने की चारदिवारी जितनी ऊंची है। लगभग एक एकड़ का कैम्पस है।उस कैम्पस के अंदर एक घर है जो बहुत छोटा है।एक मंजिल मे चार कमरे और दूसरी मंजिल में तीन कमरे। बहुत बड़ा सा बरांडा है। बहुत पुराना सा मकान लेकिन एकदम मजबूत और पूरी तरह से मेंन्टेंड।उनके घर की उपरी मंजिल में सिर्फ किताबें हैं। तीनों कमरों में सिर्फ एक टेबल एक कुर्सी और बाकी किताबें। दुनिया जहान की किताबें।और हां बहुत सारी या यूं कहें कि अनन्त तस्वीरें।ये सारी तस्वीरें उस पुरुष ने स्वयं खींचे हैं। कुछ पेंटिंग्स भी थी कमरे में।वो सब भी इसी इंसान का बनाया हुआ है।एक बात और है कि इन्हे अपनी सारी किताबें याद हैं।किस किताब के लेखक कौन हैं और क्या लिखा है उसमें उन्हे सब याद है।लगभग हर धर्म की सारी किताबें हैं उनके घर में।कुल मिलाकर ये एक बहुत प्रतिभाशाली व्यक्तित्व हैं। बिल्कुल अकेले हैं। ध्यान अध्यात्म में भी परांगत हैं।एक महिला प्रशसंक हैं

आखिर क्यों : सारिका साहू

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  आखिर क्यों ? कितनी खुश होकर आज नया सपना देखा, नई राह  की मंजिल को पास आते देखा,  कदम ज्यों ही बढ़ाए आगे, टूट कर रह गई, आख़िर क्यों? मुझे पिछे धकेल दिया जाता।। अब तो कोई लिंग भेद नहीं किया जाता, नर नारी को समान अधिकार दिया जाता , यह अधिकार का ज्यों ही लाभ उठाती,  आख़िर क्यों? मुझे पिछे हटा दिया जाता।। समाज में जिम्मेदारियों में समानता होगी, हर वर्ग में पूर्ण रूपेण सदभावना होगी, लेने जो निकली अपने मौलिक अधिकार , आख़िर क्यों ? मुझे उनसे वंचित किया जाता ।। क़दम दर कदम साथ साथ चलते जाएंगे  हर बहु बेटी को  स्वावलंबी बनाएंगे  जो स्वयं  का  सामर्थ्य  दिखाने  चली आख़िर क्यों ? मेरी अस्मिता  पर प्रश्न किया जाता।। समाज में रहकर भी, सामाजिक न्याय नहीं मिलता  अधिकारों को त्याग कर भी सम्मान नहीं मिलता  संघर्ष ही करती रही, ख़ुद से यही कहती रही आख़िर क्यों ? मेरे वजूद को ऐसे मिटाया जाता।।

मैं अब तक :सारिका साहू

मैं अब तक  उसके साथ की गई मुलाकातों में सोई हुई थी । महज़ एक मुलाकात में उसको जानने के ऊहापोह में खोई हुई थी।  क्या यह वही शख्स  था, जिसको  पाने की ज़िद की हुई थी । या महज़  दिल ने उस को ही हबीब मानने की ज़िद की हुई थी।। वो जाना है या अनजाना,ये कैसे पशोपेश में उलझ कर रह गई थी  कुछ जानकर कुछ अनजाने में ही धीरे धीरे सुलग कर रह गई थी। उसकी आंखों में मैंने,अपने लिए बेइंतहा मोहब्बत पाई थी।। दिल मेरा उफ़क में था, और मैं  तबाह-ओ-बर्बाद   हो गईं थी।

उपन्यास का अर्थ एवं कथा साहित्य का विकास

 उपन्यास का अर्थ एवं कथा साहित्य का विकास उपन्यास विशद् गद्य कथा है। यह कथा साधारण जीवन जैसी, पर प्रकृति में संवेदना एवं प्रभावकारिणी होती हैं इसके पात्र मनुष्य सरीखें होते हुए भी विलक्षण होते हैं। साधारण जीवन में वैविध्य व बिखराव है और कार्य-कारण सम्बन्ध अस्पष्ट सा होता है, उपन्यास में व्यक्त जीवन अनुभूत ओर विश्लेषित होता है। हर उपन्यासकार अपने निजी अनुभव को विस्तृत सामाजिक परिदृश्य देना चाहता है जहाँ निजी अनुभव को वह ऐतिहासिक सामाजिक परिस्थिति से जोड़ने की जरूरत होती है। मनुष्य जीवन जीता है अकेला नहीं दूसरों के साथ, कभी वह दूसरों के साथ सहयोग करता है और कभी असहयोग, कभी उसकी संगति समाज से वही बैठती है, और कभी मन से इन उलझनों से उसके जीवन में गतिरोध उत्पन्न होता है। गतिरोध को दूर करने के लिए उसे विशेष गतिशील होना पड़ता है। उपन्यास मुख्यतः जीवन के ऐसे पक्ष या ऐसे गतिमय जीवन को उभारता है, जो उपन्यास में जीवन के उलझनों को चुनौती और पत्रों के पुरूषार्थ को गति देता हैं। ऐसा जीवन ही उपन्यास में काल के आयाम में फैलकर कथा बनता है, और पात्रों का चरित्र उद्घाटित करता है। उपन्यास साधारण जीवन