मृदंग के संगीत पर जीवन के अभिनव राग का आख्यान : रसप्रिया
‘फणीश्वर नाथ रेणु’ की ख्याति हिन्दी के आंचलिक
कथाकार के रूप में है । रेणु के कथा साहित्य में लोक जीवन सरसता और सहजता सर्वत्र
देखने को मिलती है । मैला आँचल इनके द्वारा रचित बहुचर्चित आंचलिक उपन्यास है,
जिसमें कथाकार ने अंचल को नायक बनाकर अपने कथा के तानबाने की संश्लिष्ट बुनावट
हमारे समक्ष प्रस्तुत किया है । मैला आँचल के साथ ही साथ ‘तीसरी
कसम’ उर्फ़ ‘मारे गये गुल्फाम’ इनकी चर्चित कहानी है। इन
दोनों पर कृत्तियों पर फ़िल्में भी बन चुकीं हैं और इसके आधार पर इन्हें ख्याति भी
खूब मिली । इसके अलावा इनके कथा-साहित्य में लोक का चटक रंग और राग देखने को मिलता
है । लोक के अभिनव राग की दृष्टि से आपकी रसप्रिया कहानी अपने आप में विशिष्ट है,
इस कहानी की मूल विषय-वस्तु तो मिरदंगिया और रामपतिया की प्रेमकथा है लेकिन
कहानीकार ने इसके माध्यम से लोक जीवन के गीत-संगीत की सुदृढ़ परम्परा को हमारे
समक्ष प्रस्तुत कर मिथिलानंचल के परिवेश को जीवन्त कर दिया है । लोक गायन,वादन और
नर्तन की परम्परा के साथ जीवन में उसकी उपयोगिता के अंकन की दृष्टि से यह कहानी
महत्वपूर्ण है ।
संगीत हमारे मनोतंत्रियों को सुलझाता है और हमें मानसिक सुकून प्रदान करता है । ‘विद्यापति’ के पदों को गाते हुए मोहना, मिरदंगिया और लोक का लीन हो जाना एक मनोदशा है , जिसे गूंगे के गुड के सामना महसूस किया जा सकता है । इस कहानी का आस्वादन करते हुए हमारे समक्ष वह लोक ही जीवन्त हो उठता है । मोहना और मिरदंगिया की कथा का विवेचन करते हुए यह देखने को मिला है कि इसमें मृदंग का संगीत , विद्यापति का गीत है और प्रकृति का राग है ।
भारतीय जीवन परम्परा में
गीत-संगीत का विशेष स्थान रहा है। हमारी संस्कृति एवं सभ्यता की यदि गहराई से
पड़ताल करें तो यह सहज ही देखने को मिलता है कि संगीत वह प्राण-तत्व है जिससे जीवन
में उल्लास एवं उत्साह का संचार होता रहा है। संगीत ही वह राग है जो ना सिर्फ
हमारे मानसिक स्वास्थ के लिए आवश्यक है वरन हमारे चिन्तन के लिए भी अपरिहार्य है ।
भारतीय समाज का एक बहुत बड़ा हिस्सा गावों में जीवन यापन करता है या गाँवों से जुड़ा
हुआ है । ग्राम्य जीवन में संगीत की जो विविधता देखने को मिलती है, उससे लोक जीवन
में जीवन्तता देखते ही बनती है, लोग अपनी सीमाओं में रहकर भी संगीत की विशिष्टता
बनाये हुए हैं । यदि हम समग्र भारत के गाँवों का अवलोकन करें तो सहज ही यह देखने
को मिलता है कि भारत के सभी क्षेत्रों में अपनी-अपनी विशिष्ट संगीत परम्परा सदियों
से चली आ रही है । इसी विशिष्टता के कारण अलग-अलग क्षेत्रों के अपने-अपने
वाद्ययंत्र भी देखने को मिलते हैं । भारतीय समाज में
वाद्ययंत्रों की परम्परा पर पर दृष्टिपात करे तो यह देखने को मिलता है कि यह
परम्परा आदि काल से चली आ रही है ।
वाद्ययंत्र
हमारे जीवन में अलग-अलग आवश्यकता की पूर्ति भी करते रहे हैं ,जैसे – दूर बैठे
व्यक्ति को संकेत देने के लिए, जंगली जानवरों को भगाने के लिए, शिकार के लिए और
जीवन में विविध उत्सव के समय पर । इसके साथ-साथ हमारे देवताओं का भी वाद्ययंतत्रों से विशेष लगाव रहा है –
श्री कृष्ण का बाँसुरी से , माँ सरस्वती का वीणा से ,महादेव शंकर का डमरू से और
गणेश जी का मृदंग से । इसके अलावा घंटा और शंख का भी प्रयोग हमारे
समाज में अनादि काल से चला आ रहा है । संगीत और वाद्ययंत्रों का महत्व कंठ गीत, नृत्य और नाटक
में विशेष आकर्षण पैदा करने के लिए होता रहा है । वाद्ययंत्रों
का उल्लेख और वर्गीकरण सर्वप्रथम ‘भरतमुनि’ के ‘नाट्यशास्त्र’ में
देखने को मिलता है –
“तंत चैवावनद्धं च घन सुषिमेव च
चतुर्विध तु विज्ञेयमातोद्यॱ लक्षणान्वितम।” (नाट्यशास्त्र
,28/1)
अर्थात संगीत के
चार प्रकार होते हैं – तत, अवनद्ध , घन एवं सुषिर ।
प्राचीन
,मध्यकाल तथा वर्तमान काल के अधिकांश संगीतज्ञों एवं संगीत के ग्रंथकारों ने भरत
के चतुर्विध वर्गीकरण का अनुसरण करते हुए संगीत वाद्यों के चार प्रकार माने हैं।
हमारे लोक में संगीत और वाद्ययंत्रों की
प्रचुरता देखने को मिलती है । तेजी से बदलते परिवेश में इन वाद्ययंत्रों का
अस्तित्व खतरे में देखने को मिल रहा है। आज के समय में इन्हें सहेजने की महती
आवश्यकता है ।वैश्वीकरण के कारण धीरे-धीरे जीवन से संगीत खत्म होता जा रहा है। भोर की किरणों के साथ चिड़ियों
का कलरव एवं गान, गायों के गले में घंटियों
की टुन-टुन, नायिका के पायलों की
रुन-झुन, रहट की आवाज, घोडों के पैरों की पदचाप, इन सब का माधुर्य सब कुछ लगभग खत्म हो गया है।
मन्दिरों के घंटों की गूंज, झाल-करताल, ढोलक- ताल का संगीत -
कितना सुन्दर था जीवन। डूबती किरणों के साथ गोधूलि, झींगुर का सन्नाटा प्रिय संगीत और सांझ का स्पंदन कितना सुकून देता था मन को जाने
कहाँ छोड़कर हम भागे जा रहे हैं । जीवन का वह सौन्दर्य और मर्म लुप्त होता जा रहा है ।
लोक का परम्परागत संगीत और गीत अगर कहीं शेष है तो वह हमारे भारतीय साहित्य और लोक जीवन में । हिन्दी साहित्य के फलक पर भी लोक जीवन को उकेरने दिशा में विशेष प्रयास देखने को मिलता है । इस दृष्टि से फणीश्वर नाथ रेणु का योगदान अप्रतिम है । रेणु एक ऐसे कलाकार हैं जो अपने शब्दों के माध्यम से रंग,रूप,गंध,गीत और संगीत को जीवन्त कर देते हैं । रेणु लोक जीवन गहन मर्मज्ञ एवं ज्ञाता हैं ,लोक की तह में घुसकर उसे अपनी रचनाओं में अभिव्यक्त करते हैं । ’भीत्ति चित्र की मयूरी’ रेणु की अंतिम कहानी है, जिसमें रेणु की लोक-सम्पृक्ति और लोक - चेतना के प्रति चिन्ता देखने को मिलती है। फणीश्वर नाथ रेणु युगबोध से परिचालित और प्रेरित ऐसे कथाकार थे, जिनकी दृष्टि भारतीय समाज के यथार्थपरक संश्लिष्ट बिम्बों पर केंद्रित थी। रेणु की लोक संप्रति और लोक चेतना यह चिन्ताकुलता भी सामने ला रही कि बदल रहे देश और समाज में जहाँ पूँजीवादी मानसिकता के कारण ऐसी परिस्थितियां निर्मित हो रही थी, जिसमें भारतीय लोक संस्कृति के वास्तविक सौन्दर्य को बचाये रखने का संकट उत्पन्न हो रहा था।“
पंच-लाईट, तीसरी कसम उर्फ़ मारे गये गुल्फाम, ठेस, रसप्रिया, और आदिम रात की महक इन कहानियों के माध्यम
से रेणु ने जीवन के विविध राग-रंग एवं अनेकों चित्रों को हमारे समक्ष इस रूप में
जीवन्त किया कि वो सारे चित्र हमारे समक्ष साकार हो जाते हैं । उनकी कहानियों के
संग्रह का नाम है “ठुमरी” । इस संग्रह में “ठुमरी” शीर्षक से कोई कहानी नहीं है ।
ठुमरी मूलतः एक गायन विधा है, जिसमें मिश्रित भावों एवं रागों का निरूपण होता है ।
इस गायन विधा के अनुरूप ही इस संग्रह में विविध प्रकार के भावों की कहानियों का
संकलन किया गया है ।
ठुमरी शब्द
हिन्दी भाषा के ठुमकना से लिया गया है, जिसका अर्थ है –“इस तरह नृत्य करते हुए
चलाना कि घुंघरू झनझना उठें।” नृत्य की यह
शैली नाटकीय हाव-भाव, भावपूर्ण प्रेम और लोकगीतों से जुड़ी हुई है । इस
कहानी-संग्रह में संकलित कहानी ‘रसप्रिया’ में भावपूर्ण प्रेम एवं जीवन के राग को
प्रस्तुत करते हुए रेणु ने लोक में प्रचलित लोक गायन परम्परा को सहेजने का कार्य
किया है । लोक गायकों की एक समृद्ध परम्परा हमारे समाज में अनादि काल से रही है,
लोक जीवन जो गायक हैं उनमें गायन एवं वादन की कला सहज ही देखने को मिलती है।
रसप्रिया कहानी एक लोक-गायक की व्यथा कथा को अभिव्यक्त करते हुए लोक जीवन में
मृदंग वादक और गायक कलाप्रियता और लोकप्रियता को रेखांकित करती है । इस कहानी की
आरंभिक पंक्तियाँ हैं –
“धूल में पड़े कीमती
पत्थर को देखकर जौहरी की आँखों में एक नई झलक झिलमिला गई- अपरूप-रूप !
चरवाहा मोहना
छौंड़ा को देखते ही पंचकौड़ी मिरदंगिया के मूह से निकल पड़ा -अपरूप-रूप !
खेतों मैदानों, बाग़-बगीचों और गायों-बैलों के बीच चरवाहा मोहना की सुन्दरता।”
मोहाना के प्रति मिरदंगिया के आँखों का सजल हो जाना उस राग-बोध का द्योतक है , जो मोहना और मिरदंगिया के बीच वर्षों से था । रसप्रिया मिरदंगिया के बारे में उस क्षेत्रों के सभी लोगों को पता है , यहाँ तक मोहना को भी पता है । मोहना उससे पूछता है – “तुम्हारी उँगली रसप्रिया बजाते टेढ़ी हो गई है, है न?”
इस कहानी के माध्यम से रेणु ने लोक में प्रचलित मृदंग वादन एवं विद्यापति के पदों के गायन की परम्परा और उसके लोक में महत्व का अंकन करते हुए लुप्त होती परम्परा के प्रति गंभीर चिन्ता व्यक्त की है – “पंद्रह-बीस साल पहले तक विद्यापति नाम की थोड़ी पूछ हो जाती थी। शादी-ब्याह, यज्ञ-उपनैन, मुंडन-छेदन आदि शुभ कार्यों में विदपतिया मंडली की बुलाहट होती थी। पंचकौड़ी मिरदंगिया की मंडली ने सहरसा और पूर्णिया जिले में काफी यश कमाया है। पंचकौड़ी मिरदंगिया को कौन नहीं जानता ! सभी जानते हैं, वह अधपगला है! गाँव के बड़े-बूढ़े कहते हैं 'अरे, पॅचकौड़ी मिरदंगिया का भी एक जमाना था!”
विद्यापति के पदों की गायन
परम्परा का एक समृद्ध इतिहास रहा है, एक सहृदय रसचेता होने के कारण इन निरन्तर
लुप्त होती परम्पराओं के प्रति अपनी चिन्ता अभिव्यक्त करते हैं-
“जेठ की चढ़ती दोपहरी में
काम करनेवाले भी अब गीत नहीं गाते हैं। ...कुछ दिनों के बाद कोयल भी कूकना भूल
जाएगी क्या? ऐसी दोपहरी में चुपचाप
कैसे काम किया जाता है! पाँच साल पहले तक लोगों के दिल में हुलास बाकी था। ...
पहली वर्षा में भीगी हुई धरती के हरे-हरे पौधों से एक खास किस्म की गंध निकलती है।
तपती दोपहरी में मोम की तरह गल उठती थी रस की डाली। वे गाने लगते थे बिरहा, चाँचर, लगनी। खेतों में काम करते हुए गानेवाले गीत भी समय-असमय का
खयाल करके गाए जाते हैं। रिमझिम वर्षा में बारहमासा, चिलचिलाती धूप में बिरहा, चाँचर और लगनी-
हाँ...रे, हल जोते हलवाहा भैया रे.....,
खुरपी रे चलावे .....म-ज-दू-र !
एहि पंथे, धानी मोरा हे रूसलि.....!”
फणीश्वर नाथ रेणु अंचल के मर्मज्ञ कथाकार हैं । लोक जीवन लुप्त होते जा रहे गीत-संगीत की परम्परा को वो अपनी कहानियों के
माध्यम से सहेजने की दिशा में महत्वपूर्ण कार्य किये हैं । एक समय था जब
लोक जीवन में विद्यापति, कबीर, सूरदास और तुलसीदास की काव्यात्मक पंक्तियों का
सस्वर गायन वाद्ययंत्रों के साथ किया जाता था । धीरे-धीरे यह
परम्परा समाप्त होती जा रही है । श्रम गीतों एवं ऋतु गीतों की सुदृढ़ परम्परा हमारे लोक में
रही है, अब जीवन नीरस होता जा रहा है ,मानो किसी के पास एक शब्द भी नहीं रह गया है।
रेणु ने लोक में मिरदंगिया की विशेषता बताते हुए लिखा है कि
–
“पंचकौड़ी गुनी आदमी है । दूसरी-दूसरी
मंडली में मूलगैन और मिरदंगिया की अपनी-अपनी जगह होती । पंचकौड़ी मूलगैन भी था और मिरदंगिया भी । गले में मृदंग लटका कर बजाते हुए वह गाता था, नाचता था । नया लड़का भांवरी देकर परवेश में उतरने योग्य नाच सीख लेता
था ।
नाच और गाना सिखाने में कभी कठिनाई नहीं हुई, मृदंग के स्पष्ट ‘बोल’ पर लड़कों के पाँव स्वयं ही थिरकने लगते थे ।”
पंचकौड़ी मिरदंगिया अपनी कला में माहिर होने के साथ-साथ नृत्य कला सिखाने में भी कुशल है, इसका कारण यहाँ है कि उसके मृदंग के बोला एकदम स्पष्ट होते थे । पंचकौड़ी के मृदंग पर धिरिनागि, धिरिनागि, धिरिनागि धिनता बजाते ही सामने की झरबेरी से रसप्रिया की पदावली जोर पकड़ती है- नव वृन्दावन, नवन तरुंग गन, नव,नव विकसित फूल... पंचकौड़ी झूम कर मृदंग बजाता है मानो उसकी बरसों की साध पूरी हुई हो रसप्रिया को सुनकर। पूरी कहानी में बार-बार रसप्रिया का नाम आना ऐसा लगता है मानो उसे बार-बार गाया जा रहा हो और मृदंग बजाय जा रहा हो । मिरदंगिया एक साथ गाता,बजाता और नाचता भी यही उसे अन्य लोक-कलाकारों से अलग करती है । रेणु अपनी इस कहानी के माध्यम से पंचकौड़ी के चरित्र को प्रस्तुत करते हुए उसके लोक जीवन में प्रचलित वैद्यकी के ज्ञान को भी रेखांकित करते हैं । वो लिखते हैं- “मिरदंगिया वैद्य भी है ........मिरदंगिया अपने साथ नमक-सुलेमानी, चानमार-पाचन और कुनैन की गोली हमेशा रखता था । लड़कों को सदा गरम पानी के साथ हल्दी की बुकनी खिलाता । पीपल,काली मिर्च, अदरक वगैरह को घी में भुन कर शहद के सुबह-शाम चटाता।”
उपरोक्त पंक्तियों रेणु ने भारतीय लोक में प्रचलित उस ज्ञान को अपनी कहानी के माध्यम से संजोने की दिशा में महत्वपूर्ण कार्य किया है । आज के इस वैश्विक समय में जहाँ चिकित्सा के क्षेत्र में हमने बहुत तरक्की कर लिया है फिर भी बिना जाँच अधिकांश डाक्टर दवा देने से बचते हैं वहीँ मिरदंगिया मोहना को देखते ही जान जाता है कि उसकी तिल्ली बढ़ी है । यह ज्ञान अनुभव जन्य है ,इसके साथ-साथ रेणु ने इस कहानी में नमक-सुलेमानी, चानमार-पाचन और हल्दी की बुकनी का उल्लेख किया है । “नमक सुलेमानी एक यूनानी, हर्बल दवा है जो पेट और आंतों को मजबूत करती है। भोजन के पाचन में मदद करता है और भूख बढ़ाता है। भोजन के बाद पेट दर्द, पेट फूलना और भारीपन में उपयोगी ।”
ये भारतीय आयुष की ऐसी चीजें हैं जिनका प्रयोग
कम होता जा रहा है, रेणु की इस कहानी के माध्यम से हम इस ज्ञान को ना सिर्फ जान
सकते हैं ,वरन आने वाली पीढ़ियों को सिखाकर उनके स्वास्थ को बेहतर बनाने की दिशा
में प्रयास कर सकते हैं । हल्दी की बुकनी, पीपल,काली मिर्च, अदरक, देशी घी और शहद
हमारे सेहत के लिए कितना उपयोगी है यह हमें इस कहानी के माध्यम से ज्ञात होता है ।
इस कहानी में मिरदंगिया के व्यक्तित्व की रागात्मक वृत्ति देखते ही बनती है, राग
और निश्छल प्रेम उसके चरित्र को और भी विशिष्ट बनाती है । फणीश्वर नाथ रेणु की यह
विशेषता है कि वो अपने कथा साहित्य के माध्यम लोक जीवन के किस्से प्रस्तुत करते
हुए अनेक रहस्य अपनी कहनियों में छिपाकर रख देते हैं ,इसे रेखांकित करते हुए रेणु
साहित्य के मर्मज्ञ ‘भारत यायावर’ ने ‘रेणु एक जीवनी’ के प्रथम खण्ड
में लिखा है कि- “रेणु ने अपने साहित्य में बहुत सारे रहस्य छोड़ दिए हैं । उनके
सही अर्थ तक पहुँचने के लिए बहुत सारे सन्दर्भ भी हैं । उन्हें प्राप्त करने के
लिए जूझने की आवश्यकता है ।
रेणु की हर रचना में स्थूल विवरणों के बीच सूक्ष्म चेतना है, उसे पाना ही हमारा उद्देश्य होना चाहिए ।”
रसप्रिया कहानी
के स्थूल विवरणों के लोक जीवन की सूक्ष्म चेतना को रेणु ने बहुत करीने से पिरोकर
प्रस्तुत किया है । इस कहानी में राग और द्वेष के साथ-साथ लोक जीवन से समाप्त हो रही परम्परा के
प्रति चिन्ता भी देखने को मिलती है । यों तो इस कहानी का ताना-बाना मिरदंगिया और
रामपतिया के प्रेम पर बुना गया है ,लेकिन इसमें अंचल के भाव- भंगिमा के साथ रेणु
जीवन के विविध रंगों को सान कर रख दिया है, इसे रेखांकित करते हुए डॉ. वीणा शर्मा ने लिखा है
कि- “रेणु जिस लोक परम्परा में सान कर
अपनी कहानियों की रचना करते हैं वे अंचल की आदिम महक से सराबोर हैं। लोक में
प्रचलित गीतों, भाषागत प्रयोगों का एक अनवरत सिलसिला है। गँवई
गाँव की कहानियों में कहीं छोटी-छोटी मासूम लालसाएँ हैं। इन्हीं के गिर्द बुनी गई
कहानियों में घंटियों की तरह बजते हुए शब्द हैं। चील की
टिंहकारी-टिं...ई...टिं-हिं-क, जन्म अवधि हम रूप निहारल, कनकन ठंडा-गेरुआ पानी, मधु-श्रावणी के गीत, साँवरी सुरतिया पे चमके टिकुलिया, पाट के खेतों सहित
काली-काली जवान मुसहरनी छोकरियाँ आकाश में उड़ गई, दल बाँध कर मंडरा रही हैं, हँसती हैं तो बिजली चमक
उठती है। रखवाला सूरज दो घड़ी पहले ही डूब गया।
कहीं-कहीं किसी कहानी में
बारहमासा के बोल हैं तो कहीं प्रकृति से बातचीत- एहि प्रीति कारन सेतु बाँधन सिया
उदेस सिर राम हे-ए-ए, हथिया नक्षत्र की आगमनी
गाती हुई पुरवैया हवा, बाँस-बन की प्रेतनियाँ, छहछह, अजगुत-अजगुत, गुजुर-गुजुर, बटगमनी,टुकुर-टुकुर, सरबे सित्तलमिंटी, जलन-डाही, भुकभुकाना,
खसखसाहट, लुक्कड़, बैसकोप,
खखोरन, शीतलपाटी, बतकुट्टी,
गमकौआ जर्दा, हनहनाना, सिरसिराना,
मुँहझौंसा
आदि-आदि। रेणु का सम्बंध गाँव से था। वह गाँव की मिट्टी से जुड़े लोगों को ही अपने
रचनासंसार के केन्द्र में रखते हैं। वह पुरानी परम्पराओं को रिवाइव करते हैं। इन
परम्पराओं में गीत-संगीत बहुत गहरे बसा हुआ है जो उनकी लगभग हर कहानी में झलकता
है। मृदंग की ता धिंग-धा धिंग के अलग-अलग तालों पर वह संवाद सम्बंध जोड़ते हैं।
रेणु स्वयं कहते हैं कि प्रत्येक गांव में एक अथवा एक से अधिक मृदंग अवश्य रहता था। रेणु की कहानियों का लोक इसीलिए संगीत से गहरे बंधा हुआ है। उनके पात्र लोक रस में पगे हैं। कहीं वे बिरहा,चैती,बारहमासा ,कजरी गाते हैं और कहीं नृत्य में रमते हैं। उनका गीत-संगीत का यह रिश्ता लोक-मानस से जुड़ा है। उनका शब्द-संसार भी बिम्बात्मक और चित्रात्मक है।
रसप्रिया कहानी में संगीत परम्परा और जीवन में उसकी महता के अंकन की दृष्टि से यह कहानी अत्यंत विशिष्ट है । रसप्रिया की पूरी कथा संगीत के ताने-बाने में बुनी गई है। पंचकौड़ी मिरदंगिया गायन का रसिया गा तो नहीं पाया लेकिन मृदंग बजाते-बजाते भी गायन की प्यास नहीं गई। पंद्रह साल से गले में मृदंग लटका कर गाँव-गाँव घूमता है। दाहिने हाथ की टेढ़ी उँगली मृदंग पर बैठती ही नहीं, मृदंग क्या बजाएगा ?धा-तिंग,धा-तिंग बड़ी मुश्किल से बजाता है। इस कहानी में विद्यापति के पदों की गायन परम्परा और उसके गायक मंडली की लोकप्रियता और उसके लोप होने की कथा प्रस्तुत किया गया है और यह सब मिरदंगिया के जीवन काल में ही घटित होता है । एक लोक कलाकार के जीवन की विडम्बना को अंकित करते हुए रेणु मृदंग वाद्ययंत्र के इतिहास होते जाने की चिन्ता से भी अपने पाठकों को अवगत कराते हैं । मिरदंगिया एक लोक गायक होने के साथ ही नर्तन और वादन कला में इस तरह पारंगत है कि उससे नए लोक कलाकारों बहुत ही सहज भाव से और आसानी से गाना, बजाना सीख लेते हैं ।इस कहानी में बहुत से ऐसे तथ्यों को कहानीकार ने सहजने की दिशा में महत्वपूर्ण कार्य किया है,जो हमारे भारतीय लोक बिखरे हुए हैं । ऐसे ज्ञान को हमें अपने आधुनिक शिक्षा से जोड़ने और उसे आनेवाली पीढ़ियों के लिए सुरक्षित की महत्ती आवश्यकता है । रेणु की कहानियों में भाव भंगिमा की जितनी सूक्ष्म अनुभूति है उतनी ही अभिव्यक्ति की मुखरता भी देखने को मिलती है । रेणु के कथाकार व्यक्तित्व का मूल्यांकन करते हुए प्रसिद्ध आलोचक ने लिखा है कि- “रेणु का पाठक कहानी पढ़ता नहीं, देखता है ......एक-एक ध्वनि,एक-एक गंध,एक-एक रंग महसूस करता हुआ उसे जीता है, उसके गहरे अर्थों को जानकर चकित होता है ; जिन्दगी में जिन्हें बुरे लोग समझा था ,सब उसकी रचना-प्रक्रिया में गुजरकर हलके व्यंग्य के बावजूद ‘अच्छे आदमी’ बन जाते हैं ।”
रेणु के कहानियों की
उपरोक्त वर्णित विशेषताएं ‘रसप्रिया’ कहानी में देखने को मिलतीं हैं, रेणु
दसदुआरी मिरदंगिया को इस तरह नायकत्व प्रदान करता है कि उसके व्यक्तित्व की एक-एक
विशेषताएं सजीव हो उठातीं हैं । रसप्रिया कहानी अपने सूक्ष्म तरंगों से हमारे मन
में और जीवन में संगीत के प्रति अलभ्य आकर्षण तो पैदा करती ही है ,उसके साथ ही
भारतीय लोक परम्परा में वाद्ययंत्रों की उपस्थिति और महत्ता से भी रूबरू कराती है।
उपरोक्त विवेचन एवं विश्लेषण से यह स्पष्ट है कि रेणु की रचना-प्रक्रिया में अंचल
की धडकनें स्पंदित होती रहीं हैं । लोक में प्रचलित ऐसी परम्पराओं जो धीरे-धीरे
लुप्त हो रहीं थीं उनके प्रति रेणु में गहरी वेदना का भाव है । इस पीड़ा एवं वेदना
को हम ‘रसप्रिया’ कहानी के साथ-साथ ‘संवदिया’ और ‘ठेस’ कहानी में भी देख सकते हैं ।
‘रसप्रिया’ कहानी के माध्यम से रेणु जहाँ एक ओर मृदंग जैसे
वाद्ययंत्र के लोप पर व्यथित होते हैं तो लोक में प्रचलित वैद्यकी( दवाओं ) के
प्रति भी जागरूक करते हैं । ‘रसप्रिया’ लोक के राग-रंग,
प्रेम-द्वेष और गीत-संगीत से अटी-पड़ी कहानी है, जिसमें आज के जीवन के लिए एक
सन्देश भी है कि यदि चिल टिहकारी मारना नहीं भूली ,कोयल कूकना नहीं भूली तो हम
क्यूँ प्राकृतिक संगीत से दूर हो रहे हैं ,हमें अपने लोक जीवन में प्रचलित
बारहमासा गीतों की ओर लौटना ही चाहिए, जिससे हमारे जीवन उत्साह और उल्लास बना रहे ।
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