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पुनर्नवा का उपन्यास शिल्प : आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी

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       सामाजिक विकास और इतिहास बोध का अत्यंत घनिष्ठ संबंध है। हमारे समाज का विकास इतिहास के परिमार्जन के साथ होता रहता है। इस दृष्टि से जितना महत्व आधुनिक ज्ञान-विज्ञान के संसाधनों का है , उतना ही महत्व हमारे इतिहास का भी है। भारतीय इतिहास में बहुत-सी ऐसी ज्ञान राशि संचित है , जिन का उपयोग हम अपने वर्तमान जीवन को बेहतर बनाने में कर सकते हैं। इस दृष्टि से हमें हमारे इतिहास का ज्ञान होना चाहिए। अपने इतिहासबोध से ही हम अपने जीवन को और बेहतर बना सकते हैं। इतिहासबोध और संचयन की दृष्टि से साहि इतिहासकारों ‌द्वारा लिखे गए इतिहास के साथ-साथ साहित्य की परम्परा का भी विशेष महत्व है। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी की इतिहास दृष्टि गहन और सूक्ष्म है। इतिहास और वर्तमान की सापेक्षता   उनके रचना कर्म में सर्वत विद्यमान है। द्विवेदी जी के निबन्ध हो या उपन्यास सबका आधार लगभग इतिहास ही है। लेकिन उन्होंने इतिहास या पुराण के तथ्यों को उ‌नका में नहीं प्रस्तुत किया है , जिस सन्दर्भ में वे रहे हैं। द्विवेदी जी इतिहास दृष्टि और आलोचना दृष्टि में सर्वत्र उनकी भारतीय चेतना झलकती रहती है।...

इंतज़ार : प्रीति

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 तेरा इंतज़ार एक गोधुलि सी शाम  वो भोर की धूप सी निकली उजली चमकीली चांदनी सी केशर घुले दूध सी रंगत वाली गुलाब की पंखुड़ियों से होठ काली घटाओं से केश ऐसा लगे जैसे बादल के बिच खिला हो कोई चंद्र कमल हाथों में ताम्र घट लिए  वो उतर रही थी गंगा में  जैसे आकाश गंगा समा रहा हो साफ नीले पानी में  देखता निहारता रहा मैं  और वो लौटने भी लगी घट भर गंगा जल भरकर  भींगे नंगे पांव में पैंजनी  टुन टुन कर चढ़ रही थी गंगा घाट की सीढ़ियां  वो सुकोमल पांव ना जाने कैसे उठा रहे थे इतना बोझ सुंदर घट में पानी का और चेहरे के पानी का भी आंखो में समा गईं थीं मेरी उसका कोमल रूप श्रृंगार  बहुत भारी से हो रहे थे नयन मेरे  मैं खाली होना चाहता था मैं उसको छूना चाहता था मैं मुट्ठी में भर लेना चाहता उसका रूप आलिंगन कर भर लेना चाहता था उसका कोमल देह खुद में  पर सहसा सहम गया मैं खुद ही कैसे कसूं मैं इतना कोमल तन अपने पाषाण बाजुओं में  कहीं टूट ना जाए वो फूल मनोहर कहीं बिखर ना जाए पंखुड़ियां  मैं सोचता रहा निहारता रहा कि ना जाने कब उड़ गई  वो रूपसी सो...

इन्सानियत :प्रीति

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आज एक लम्बी कहानी छोटी करके आपके सामने लाई हूॅं।एक पुरूष हैं जो बहुत गुणी हैं(मैं नाम नही लूंगी क्योंकि किसी का भेद खोलना नही चाहती)।शहर में घर हैं उनका।शहर के बीचों बीच एक ऐसा घर जिसकी चारदिवारी पागलखाने की चारदिवारी जितनी ऊंची है। लगभग एक एकड़ का कैम्पस है।उस कैम्पस के अंदर एक घर है जो बहुत छोटा है।एक मंजिल मे चार कमरे और दूसरी मंजिल में तीन कमरे। बहुत बड़ा सा बरांडा है। बहुत पुराना सा मकान लेकिन एकदम मजबूत और पूरी तरह से मेंन्टेंड।उनके घर की उपरी मंजिल में सिर्फ किताबें हैं। तीनों कमरों में सिर्फ एक टेबल एक कुर्सी और बाकी किताबें। दुनिया जहान की किताबें।और हां बहुत सारी या यूं कहें कि अनन्त तस्वीरें।ये सारी तस्वीरें उस पुरुष ने स्वयं खींचे हैं। कुछ पेंटिंग्स भी थी कमरे में।वो सब भी इसी इंसान का बनाया हुआ है।एक बात और है कि इन्हे अपनी सारी किताबें याद हैं।किस किताब के लेखक कौन हैं और क्या लिखा है उसमें उन्हे सब याद है।लगभग हर धर्म की सारी किताबें हैं उनके घर में।कुल मिलाकर ये एक बहुत प्रतिभाशाली व्यक्तित्व हैं। बिल्कुल अकेले हैं। ध्यान अध्यात्म में भी परांगत हैं।एक महिला प्रशसंक हैं ...

आखिर क्यों : सारिका साहू

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  आखिर क्यों ? कितनी खुश होकर आज नया सपना देखा, नई राह  की मंजिल को पास आते देखा,  कदम ज्यों ही बढ़ाए आगे, टूट कर रह गई, आख़िर क्यों? मुझे पिछे धकेल दिया जाता।। अब तो कोई लिंग भेद नहीं किया जाता, नर नारी को समान अधिकार दिया जाता , यह अधिकार का ज्यों ही लाभ उठाती,  आख़िर क्यों? मुझे पिछे हटा दिया जाता।। समाज में जिम्मेदारियों में समानता होगी, हर वर्ग में पूर्ण रूपेण सदभावना होगी, लेने जो निकली अपने मौलिक अधिकार , आख़िर क्यों ? मुझे उनसे वंचित किया जाता ।। क़दम दर कदम साथ साथ चलते जाएंगे  हर बहु बेटी को  स्वावलंबी बनाएंगे  जो स्वयं  का  सामर्थ्य  दिखाने  चली आख़िर क्यों ? मेरी अस्मिता  पर प्रश्न किया जाता।। समाज में रहकर भी, सामाजिक न्याय नहीं मिलता  अधिकारों को त्याग कर भी सम्मान नहीं मिलता  संघर्ष ही करती रही, ख़ुद से यही कहती रही आख़िर क्यों ? मेरे वजूद को ऐसे मिटाया जाता।।