असाध्य वीणा के अभिव्यक्ति पक्ष पर प्रकाश डालिए .

 अभिव्यक्ति पक्षः भाषा


अज्ञेय ने मानवीय व्यक्तित्व की व्याख्या में भाषा को अनिवार्य तत्व माना है। भाषा उनके लिए माध्यम नहीं अनुभव भी है। अज्ञेय के अनुसार  सर्जनात्मकता की समस्या से सतत् जूझने वाले रचनाकार के लिए यह उचित है कि वह भाषिक सर्जन की क्षमता को गहरे ढंग से समझे। अज्ञेय की अधिकांश कविताओं मे भाषा और अनुभव के अद्वैत को व्याख्याथित करने का प्रयास देखने को मिलता है। असाध्य वीणा इसका अपवाद नहीं है। असाध्यवीणा की भाषा का वैशिष्ट्य देखते ही बनता है यहॉं बिम्बों का प्रयोग, लोक भाषा के शब्दों का प्रयोग, मौन की सार्थक अभिव्यक्ति और संस्कृत निष्ठ शब्दावली  से परिपूर्ण भाषा दृष्टिगत होती है।

भाषा के संबन्धा में अज्ञेय ने स्वयं लिखा है- मै उन व्यक्तियों में से हूॅं और ऐसे व्यक्तियों की संख्या शायद दिन-प्रतिदिन  घटती जा रहीं है, जो भाषा का सम्मान करते हैं, और अच्छी भाषा को अपने आापमें एक सिद्धि मानते है। अज्ञेय के लिए अच्छी भाषा का अर्थ अलंकृत या चमकदार भाषा नहीं है, वरन् अच्छी भाषा की अच्छाई यही है  िकवह भाषा  और अनुभव के अद्धैत का स्थापित करे और ऐसी हमें अज्ञेय की लगभग सभी कविताओं में देखने को मिल जाता है।

असाध्य वीणा कविता की भाषा मे वे सभी विशेषताएं मौजूद हैं, जो अज्ञेय के काव्य भाषा के विवेचन में देखने को मिलती है। इस कविता की भाषा में संस्कृतनिष्ठ शब्दावली के साथ-साथ देशज शब्दों का प्रयोग की प्रचुरता से देखने को मिलता है-

देशज शब्द- झुक, महुए, चुपचाप, टपकना, पट-वट, थाप, फुरकन, थिरक, बटुली, सिहरन, दुपहरी, टूटन, ठेलमठेल, थपक, चमरौधे, टुन-टुन, इत्यादि।

संस्कृतनिष्ठ शब्द- कृत कृत्य, गिरि, वृतचारी, शिखर, परित्राण अभिमंत्रित, अनिमेष, स्तब्ध, स्पर्द्धा, अविभाष्य इत्यिादि।

अज्ञेय का शब्द चयन कौशल अपने आन में विशिष्ट है, और शब्दों को विभिन्न माध्यमों से अज्ञेय व्यवस्थित करते हैं। अज्ञेय  ने इस कविता में प्रश्नवाचकों और सम्बोधनों का प्रयोग प्रचुरता से किया है-

सभा चकित थी-अरे, प्रियंवर क्या सोता है?

केशकम्बली अथवा होकर पराभूत

झुक गया वाद्य पर?

वीणा सचमुच क्या है असाध्य?;प्रश्नवाचक ?


धीरे बोलाः राजन् पर -मैं तो

कलावन्त हूॅं नहीं शिष्य साधक हूॅं-

जीवन के अनकहे सत्य का साक्षी।

वज्रकीर्ति!

 प्राचीन किरीटी तरू।

अभिमंत्रित वीणा! ;सम्बोधनद्ध   

इस कविता की भाषा और अभिव्यक्ति की भंगिमा विशिष्ट है। इसमें मौन की भंगिमा का प्रयोग देखने को मिलता है-असाध्यवीणा के संगीत से, उसके स्पन्दित सन्नाटे से -

पर उस सपन्दित सन्नाटे में

मौन प्रियंबद्ध साध रहा था वीणा- 

नहीं, स्वयं अपने को शोध रहा था सघन निविड में वह अपने को 

सौंप रहा था उसी किरीटी तरू को .........कौन बजावे 

यह वीणा जो स्वयं एक जीवन भी की साधना रही?

 


प्रियंवर किरीटी तरू के ध्यान में निमग्न हो जाता है। तरू को सम्बोधित करता है- नीरव एकालाप है। वीणा तो इस आवाहन के बहुत बाद छेड़ी जाती है, किंन्तु सच पूछा जाय तो उस संगीत का आरम्भ यहॉं से हो जाता है, और पाठक को सुनाई भी देता है।

‘‘ओ विशाल तरू।

शत-सहस्र पल्लवन पतझरों ने जिसका नित रूप संवारा 

कितनी बरसातों ने अपने उतारी  

दिन भौंरे कर गये गुजरित 

रातों केी झिल्ली ने 

अनथक मंगल-गान सुनाए......।

वीणा प्रियंवर ने गोद में रखी है किन्तु उसकी अनुभूति इससे एक दम विपरीत है। वह स्वयं इस तरू-तात की गोदी में बैठा हुआ बालक है। बालक के समान ही वह मचल उठता हैः

ओ तरू-तात! सॅंभाल मुझे 

मेरी हर किलक 

पुलक में डूब जाएः 

मै सुनुॅ 

जूनुॅं 

विस्मय से भर आकूॅं 

तेरे अनुभव का एक-एक अन्तः स्वर 

तेरे दोलन की लोरी पर झूमूॅं मैं तन्मय-

...................................

‘तू गा, तू गा, तू गा।


और मानो बाल हठ से विविश होकर ही किरीटी तरू का उठता है- 

हॉ मुझे स्मरण हैः 

बदली-कोैंध-पत्तियों पर बर्षा -बूदों की पर -पर।

धनी-रात  में महुए का चुपचाप टपकना......................।


हॉं, मुझे स्मरण है यह शब्द पांच बार इस कविता में आया है और आवृत्ति के साथ एक नई बिम्ब माला अवतरित होती है। पहले स्मरण में पक्षी-जगत के विशिष्ट बिम्बों की बहुतायत है दुसरे में जल बिम्बों की, तीसरे में ध्वनि बिम्ब अर्थात वन पशुआंे की नानाविथ आतुर तृप्त पुकारांे की चौथे में दिन के विविध प्रहरों के दृश्य बिम्ब।

;ध्वनिबिम्बद्ध

मुझे स्मरण है

हरी तलहटी में, छोेटे पेड़ों की ओर, ताल पर 

बॅंधे समय बन-पशुओं की नानाविथ आतुर तृप्त पुकारेः 

गर्जन, घुर्घर चीख, भूॅंक, हुक्का चिचियाहट। 

;दृश्यबिम्बद्ध

मुझे स्मरण है

इझक क्षितिज से

किरण भोर -पहली

 जब तकती है ओस बूद को- 

उस क्षण की सहसा चॉंकी सी सिहरन 

और दुपहरी में जब 

घास -फूस अनदेखे खिल जाते हैं 

मौमाखियां असख्य झूमती करती है गुंजार - 

उस लम्बे बिलमें क्षण का तन्द्रालस ठहराव 

और सांझ को  

जब तारों की तरल कंपकपी- 

स्पर्शहीन झरती है।

भाषा संबन्धी वैशिष्टय के साथ-साथ संगीतात्मकता लयात्मकता आदि सभी गुण असाध्यवीणा कविता में देखने को मिलते हैं। यह एक कथात्मक कविता है, जिसका मुय पात्र प्रियबंद है। यह कविता जापनी -कथा ;ओकाकुराकृत ‘दि बुक आफरीद्ध पर आधारित है। असाध्यवीणा एक भाववादी कविता है जिसकी अनुभूति एवं अभिव्यक्ति दोनों विशिष्ट है। यह अज्ञेय की श्रेष्ठ कविता है, जिसमें कवि की सर्जनात्मकता, आस्था और आस्तिकता का निखरा रूप देखने को मिलता है। 


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