भाव शून्य होने की प्रक्रिया

 


भाव शून्य होने की प्रक्रिया खत्म होती उम्मीदों से होती है, हमारे जीवन में एक ऐसा समय आता है जब हमें यह एहसास होने लगता है कि इस भौतिक जगत संबंध कितने भी प्रगाढ क्यूँ ना हों वह भौतिकता पर ही निर्भर रहता है. जीवन में हम कभी- कभी इस तरह की अपेक्षा कर लेते हैं जो इस दुनियादारी से नितान्त परे होती है.कुछ भी हो दुनिया ज्यों ज्यों आगर है. आप इस जगत को ना तो जान सकते हैं और ना ही समझ सकते हैं. खुद को जान लें यही बेहतर है. खुद के दोष को तलाश लें और उसका परिमार्जन कर लें यही श्रेयस्कर होगा. कुछ लोग धन संपदा को अपनासब कुछ मान लेते हैं और उसके भीतर ही बंधकर रह जाते हैं. हमारी दृष्टि कम से कम इतनी उदार तो होनी ही चाहिए कि हम अपनी सीमाओं को जान और समझ सकें और उनसे पार पाने की चेष्टा करें. धन संपदा और पत्ति-पत्नी और बच्चों को ही अपनी दुनिया समझने से परे जाकर वास्तविक दुनिया को समझने की दरकार है. माँ- पिता जब अपने बच्चों का लालन-पालन करते हैं तो दुनिया की सबसे बेहतरीन परवरिश करने की चेष्टा करते हैं और उन्हीं की इच्छाएँ एक समय के बाद हमें बोझ लगने लगतीं हैं. फिर हम बेहिसाब हसरतों से लालन-पालन करने वाले अपने माता- पिता की एक एक चीजों और बातों का हिसाब करने लगते हैं. एक अनगूंजी हुई चीख दबकर रह जाती है उस बेहिसाब और हिसाब की दुनिया और दुनियादारी में. हम कहाँ जा रहे हैं एक परिवार के रुप में, एक समाज के रुप में. कभी किसी सगे से शिकायत मन में आये तो एक बार उन बातों को जरुर सोचना चाहिए कि कब और किन विषम परिस्थितियों में भी माता पिता ने हमें थामे रखा. तब जब शायद हमारे साथ आज के हमारे सभी तथाकथित स्वजनों ने हाथ खड़े कर दिये थे. आज सब कुछ होने पर सारे वो रिश्ते पुनर्जीवित हो उठे और हम उनसे सहर्ष संबंध निभा रहे हैं जो वर्षों पहले मृत प्राय हो चुके थे. अब वे सुख साथी ही प्रीतिकर हैं. बाकी तो बोझ हैं हमारी संक्षिप्त दुनिया के भीतर, ऊब हैं और ना जाने....... क्या- क्या?

 

 

काश!

कोई कारीगर ऐसा होता

जो मन की मरम्मत करता

बहुत टूट चुका है....

हो ऐसा कोई कारीगर

तो बताना जरूर...

काश!

कोई रफ्फुगर होता

जो कर देता रफ्फू

मेरे फटे मन की......

इलाज तो तन का है बहुत

क्या ?

है कोई मन का इलाज करने वाला.. ..

हो तो तुम ही दोस्त.

कभी हो फुरसत तो

घड़ी उतार कर आना

मेरे कारीगर, मेरे रफ्फुगर....

 

 

 

वो खालीपन

अब तेरे ना होने के

एहसासों ही

भरा भरा सा है।

जिद भी मेरी खूब थी-

खुद को तुममें पाने की।

अब पा ही जाता हूँ-

तुझे उस खालीपन में

जो तेरी यादों और

एहसासों से भरा भरा

सा रहता है।

माना कि तुम अक्लमंद हो

पर हम तो सिर्फ जज्बातों

को दुनिया समझे हैं।

 

जरा याद कर ऐ चंचल मन

वो बचपन का जमाना

वो बासी मुह चाय रोटी खाना और

बेहया के झटहा से कुटाना

कहाँ मिलेगा वो बचपन

आज तो है 4G aur5G ka जमाना।

आजकल speed भावना और सुकून पर भारी है।

 

 

कहानियों के भीतर भी कहानियाँ

और कहानियों के पीछे भी कहानियाँ,

जो कहन है उसके पीछे भी लगन है

यूँ एकाएक नहीं बनती कहानियाँ -

पहले जुडते हैं वेदना -

संवेदना के तार

फिर जुडता है निर्मल मन

फिर वर्षोंं के निबाह से

बनतीं हैं कहानियाँ....

पहले लिखीं जातीं हैं मन में

फिर गढकर और गहकर

उतारीं जातीं हैं

कागज पर...

कहानियाँ और किस्से सिर्फ कहन नहीं

यह चलन हैं मनों के.........!

 

 

ओ ! रम्भाती गयों

ओ ! गोधुली की धूल

ओ ! चहकन चिड़ियों की

और

ढलते हुए सूर्यास्त की लाली

कहाँ गुम हो

क्या? अब शाम नहीं होती

या अब नहीं है फुरसत

उस सौन्दर्य और उसके बोध की....?

 

 

कहानियां अधूरी ही रहीं

कब पूरी हुई

मीरा और राधा

महादेवी भी

मधुर मधुर दीपक की

भांति जलती रही।

अक्सर अपने अधूरेपन में ही

मुकम्मल होती रही

कहानियां।

बहुत दूर तक जाया करतीं हैं

मुकम्मल जिन्दगी की

अधूरी कहानियां।

उम्र और जिन्दगी के हर पडाव पर सालता रहा अधुरापन।

फिसल फिसल कर पूरा होता रहा जी

 

 

थककर चूर होने पर भी

अपने बदन को सम्भालना

और फिर

एक हाथ से दूसरे हाथ के दर्द को दबाना

खुद से खुद की मरम्मत करना

तपती धूप में चमकते सिर के लिए,

उसी धूप में झूंडू बाम लाना

उम्मीदों से टूटना और टूटते ही जाना

नियत्ति हो चली हो जिनकी

उन्हें फर्क नहीं पड़ता

और वो हो जाते हैं

मशीन से, लोहा से

और फिर होते हैं

बेतहाशा मजबूत

अपने तन और मन से.

 

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