मानक हिन्दी की व्याकरणिक विशेषतायें

 

कोई भी व्याकरण भाषा की प्रकृति को पूर्णत: नियमबद्ध नहीं कर सकता। भाषा की जो प्रकृति वर्तमान में दृष्टिगोचर होती है, व्याकरखुद को वहीं तक सीमित रखता है। वह भाविष्य में उस भाषा की प्रकृति में होने वाले परिवर्तन की कोई सूचना नहीं दे सकता । अत: व्याकरण भाषा की प्रकृति का अधुरा परिचय देता है।

       भारतीय आर्यभाषाओं से विकसित हिन्दी में ४६ ध्वनियाँ हैं। इनमें ग्यारह स्वर ( अ, , , ,,,,, , , ऋ) चा ३३ व्यंजन है [क, ,,,,,,  , , , , , त थ द ध न प फ ब भ म ,,, , , , , इ)। इनके अतिरिक्त अनुस्वार और विसर्ग दो व्यंजन और हैं। हिन्दी वर्णमाला में मित्र व्यंजन क्ष (+), ज्ञ(+) एवं एक संयुक्त व्यंजन त्र (त+र) मिलते हैं। हिन्दी में मूर्धन्य घोष व्यंजन द वं ह है। अरबी, फारसी मूल से आई हुई है क़ ख़ ज, फ़ ध्वनिया एवं स्वं अंग्रेजी से आई हुई ऑ ध्वनि भी हिन्दी में मिलती है। अत: हिन्दी वर्णमाला में १२ सहायक वर्ण है न्ह,  म्ह, एवं ल्हू को भी स्वतंत्र स्वनिके रूप में परिगणित किया जाता है। दृष्टि से हिन्दी को माला में वर्णो की संख्या और भी  वढ़ जाती है।

       संज्ञा की रूप - रचना वचन एवं कारक के अनुसार होती है। वचन भी दी हैं और कारक भी रूपात्मक दृष्टि से दी हैं। इस प्रकार २ X की रूप तालिका से ये रूप बनते हैं।

संज्ञा प्रातिपादिक चार उपवर्गो में मिलते हैं।

उप १. पुन्निंग आकारान्त (लड़का उपवर्ग) अपवाद हैं - नाना, मामा, राजा, पिता, मुखिया । 

उपा-२ पुल्लिंग शेष शब्द (, माली, डाकू , कवि) ।

उप-३ स्त्रीलिंग इकारान्त , ईकारान्त एवं यकारान्त (छवि, नन्दा, बूड़िया)

उपळ-४ स्त्रीलिंग शेष शब्द (बहन, लता , हू आदि)

       इनमें रूप - रचनात्मक विभिन्न प्रत्ययों को स्क साथ प्रदर्शित करने के लिझ निम्न तालिका बनाई जा सकती है

निभावत प्रत्यय

निर्थक, बहुवचन .

मूलस्कवचन

मूल बहुवचन -अर्का-१

तिर्यक कक्चन

-रू -उपज -२ - उपा -३ -

-ऑ/

-ओं वर्ग -४ -४

- ओं

- अं

       हिन्दी में दो वचन (स्कवचन, बहुवचन) , दो लिंग (स्त्रीलिंग, पुल्लिंग) होते हैं। हिन्दी में स्वाभाविक स्त्रीलिंग एवं पुल्लिंग के अतिरिक्त व्याकरणिक लिंग - भेद भी होता है। हिन्दी आकारान्त विशेषणों (अच्छा, अच्छी) तथा क्रियाओं में भी लिंग होता है (लड़का आता है, लड़की आती है)। हिन्दी सर्वनामों में लिंग-भेद के कारण परिवर्तन होता है। संस्कृत के आठ कारक रूपों की जगह दो ही रूप हिन्दी में मिलते हैं – मूल स्वं तिर्यकतिर्यक रूप में कारक चिन्ह लगाकर कारकों के आठ अर्थ प्रकट किये जाते हैं। शून्य चिद्ध की कारक के अर्च में तया । ने चिन्ह कर्ता का अर्थ प्रकट करने के लिए भूतकालिक कृदन्त कालों के साथ लगता है। ने चिन्ह हिन्दी की अपनी विशेषता है। इसी प्रकार को चिन्ह कर्म करक को ', के, लिए, सम्प्रदान कारक , "से"  का और अपादान कारक, 'के ' की', 'का' सम्बन्ध कारक वं में तथा पर'  अधिकरण कारक के अर्थ प्रकट करते हैं। हिन्दी में कुछ सम्बन्ध सूचक अवव्य भी कारकों के अर्थ में प्रयुक्त होते हैं। यात प्रति, तई (कर्म) दवारा जरिये कारण (करण); हेतु निमित्त , वास्ते (सम्प्र॰ ) ; अपेक्षा, सामने (अपादान); मध्य , बीच, अन्दर, ऊपर, (अधिकर)।

       सर्वनाम संज्ञा के स्थान पर आता है। इसके सात भेद - पुरूषवाचक , निश्चय वाचक , अनिश्चयवाचक, प्रश्न वाचक, सम्बन्धवाचक, सहसम्बन्धवाचक, निजनाचक (आप) हैं। वचन के अनुसार पृथक् - पृथक् रूप केवउत्तम सर्व मध्यन पुरूष में तथा निश्चयवाचक सर्वनाम में मिलते है । अनिश्चयवाचक, प्रश्नवाचक, सम्बन्धवाचक तथा सहसम्बन्धवाचक सर्वनामों में वचन - भेद के अनुसार पृथक् - पृथक् रूप नहीं मिलते हैं। चन के रूप ही (कों, कौ, जो, सो) बहुवचन में भी व्यवह्र्त होते हैं। वचन - बोध क्रिया रूपों से ही किया जा सकता है।

       रूप - रचना की समानता को ध्यान में रखकर सर्वनामों में चार उपवर्ग बनते हैं:

उपवर्ग - १ पुरूषवाचक उत्तम तथा मध्यन) सर्वनाम - मैं,

उपवर्ग -२ निश्चयवाचक, प्रश्न वाचक, सम्बन्ध तथा सहसम्बन्धवाचक सर्वनाम - यह, वह , कौन/क्या, जो, सो

उपवर्ग - ३ अनिश्चयवाचक सर्वनाम - कोई

उपवर्ग - ४ आदरार्थ सर्वनाम - आप

 

इनकी रूप- तालिका अलग - अलग बनती है।

उपवर्ग -१ पुरूषवाचक - रूप तालिका

पुरूषवाचक     मूल ।        तिर्थक ।             कर्म/ समृदान ।        सम्बन्धीवाची

उत्तम पुरुष

कवचन      मैं            मुझ, मैं                     मुझे                 मेरा/री/रे

बहुवचन       हम           हम                 हमें                  हमारा/री/रे

मध्यम पुरूष

कवचन      तू            तुझ, तू              तुझे                 तेरा/री/रे

बहुवचन       तुम          तुम                 तुम्हें                तुम्हारा/री/रे

 

 

       उपवर्ग -२ निश्चयवाचक, प्रश्नवाचक, सम्बन्ध तथा सह सम्बन्धवाचक सर्वनाम की रूप – तालिका

सर्वनाम तिर्थक । कर्म/ सन्मान निश्चयवाचक निकटवर्ती

       इनके अतिरिक्त इतना , उतना, जितना, कितना, परिणामवाचक; ऐसा, वैसा, जैसा, कैसा गुणवाचक सर्विनामिक विशेषके मुख्य रूप हैं।

 

       ये समस्त सर्वनान रूअधिकांशतः प्राकृत और अपभ्रंश रूपों से विकसित हुए हैं।

      

हिन्दी की क्रिया - स्चना भाषा के विचोगात्मक (विश्लिष्टात्मक) रूप का प्रकट करती है। क्रिया के साधारके अन्त में 'ना' होता है, यथा; खाना, देखना, चलना। ना, को हटा देने से हिन्दी धातु शेष रह जाती है -खा, देख. चल। हिन्दी में कुल लाभग 500 धातुएँ हैं। ये धातुएँ कुछ अकर्मक, कुछ सकर्मक होती हैं। धातु में -आ, -वा लगाकर हिन्दी की प्रेरणार्थक धातु बनाई जाती है। हिन्दी क्रिया में तीन काल (वर्तमान, भूत, भविष्य), पाँच अर्क (निश्चय, ज्ञा, सम्भावना, संदेह, संकेत), तीन अवस्थाएँ ( सामान्य, पूर्ण, अपूर्ण) तीन वाच्च (कर्तृ , कर्म, भा) मिलते हैं। काल रचना में कृदन्त ( भूतकालिक, वर्तमानकालिक, पूर्णकालिक, संज्ञार्थक क्रिया) तथा सहायक क्रिया (होना) से विशेष सहायता ली जाती है। हिन्दी क्रिया – रचना में भूतकाल से संबंधित रूप 'ता' में तथा भविष्य काल से संबंधित रू'गा' में अंत होते हैं। हिन्दी में छ: मूल काल भूत निकलनार्थ (ला), भविष्य - निश्चयार्थ (चलेगा), वर्तमान संभावनार्च (ले), भूत संभावनाच (चलता); वर्तमान आझार्च (चले), विष्य – आज्ञार्थ (चलना) के रूप मिलते हैं। दस यौगिक काल के रूप भी मिलते हैं। वर्तमान कालिक कृदन्त + सहायक क्रिया में बने काल (१) वर्तमान अपूर्ण निश्चयार्थ- ह चलता है। (२) भूत अपूर्ण निश्चयार्थ- वह चलता था। (३) भविष्य अपूर्ण निश्चयार्थ- वह चलता होगा (४) वर्तमान अपूर्ण संभावनार्य - वह चलता है (५) भूत अपूर्ण संभावनार्च- ह चलता होता  

भूतकालिक कृदन्त + सहायक क्रिया से बने काल:

(१) र्तमान पूर्ण निश्चयार्थ - वह ला है (२) भूत पूर्ण निश्चयार्य – वह चला था (३) विष्यपूर्ण निश्चयार्थ - वह चला होगा  

(४) वर्तमानपूर्ण संभावना – ह चला हो

() भूत पूरी संभावनार्च - वह चला होता ।

 

       क्रियाओं के सूक्ष्म से सूक्ष्म अर्थ प्रकट करने के लिए दो या अधिक प्रधान या सहकारी क्रियाओं के संयोग से हिन्दी का संयुक्त क्रियाएँ बनती हैं। प्रधान क्रियाओं के साथ सहकारी क्रियाएँ – होना, आना, उठना, करना, चाहना, चुकना जाना आदि लगती हैं।

       हिन्दी में अव्वयों के चार समूह क्रियाविशेषण - (अब , जब तक); समुच्चयबोधक (और, या), सम्बन्धसूचक- (बिना, सा, तक), विस्मयादिबोधक (हाय, आह) आदि मिलते हैं।  

 

       हिन्दी वाक्य में सामान्यतः कर्ता - कर्म- क्रिया का पदक्रम रहता है। क्रिया सामान्यतः लिंग -बचन में कर्ता से और कभी- कभी कर्म से अनुशासित होती है। विशेष्य के अनुसार विशेषण का लिंग हेता है। हिन्दी में तीन प्रकार के वाक्य साधारण, मित्र, संयुक्त होते हैं। पूर्ण विराम के लिए खड़ी पाई (।) का प्रयोग होता है। शेष विराम चिन्ह अंग्रेजी के ही व्यवहृत होते हैं।

              हिन्दी देवनागरी लिपि में लिखी जाती है।

 

"रती की सुलगानी छाती के बैचैन शरारे पूछते हैं

जो लोग तुम बचा न सको, वो खून के धारे पूछते हैं

कायनात की छाती फती है, अम्बर के तारे पूछते हैं

ऐ राह बरे मुल्क -ए- कौम बता, ये किसका लहू है, कौन मरा।"

 

 

 

Comments

Popular posts from this blog

मूट कोर्ट अर्थ एवं महत्व

विधि पाठ्यक्रम में विधिक भाषा हिन्दी की आवश्यकता और महत्व

कोसी का घटवार: प्रेम और पीड़ा का संत्रास सुनील नायक, शोधार्थी, काजी नजरूल विश्वविद्यालय आसनसोल, पश्चिम बंगाल