लोक रंग के विलक्षण गीतकार : डॉ. सागर

 

भारतीय समाज ,संस्कृति और साहित्य हमेशा से लोक की व्यापक भूमि से सिंचित होता रहा है ।सिनेमा ,साहित्य और समाज का विकास आज जिस रूप में हमें देखने को मिल रहा है , उसके मूल में वह चेतना है, जिसे भारतीय परम्परा में सदियों संजो रही थी । यह परम्परा और चेतना लोक से ही अपनी रसना शक्ति ग्रहण करती रही है । लोक भाषाओँ से ही शिष्ट भाषा और मानक भाषा का विकास होता है । लोक साहित्य की सुदृढ़ परम्परा में गीत, कथा , नाट्य का अस्तित्व प्राचीन काल से है और उससे हमारी संस्कृति को संजीवनी मिलती रही है । हिन्दी में बहुत से ऐसे रचनाकार हैं,जिन्होंने अपने लोक से संवेदना और रस को ग्रहित कर अपने साहित्य को समृद्ध कर समाज को आलोकित करने का कार्य किया है । साहित्य की लगभग सभी विधाओं में लोक का आलोक देखने को मिलता है । हिन्दी के अनेक लेखक हैं जिन्होंने लोक की भाव-भूमि पर अपनी सृजनशीलता को बृहद आयाम दिया है । लोक की भूमि पर ही वर्तमान  समय के प्रसिद्द गीतकार डॉ. सागर ने अपने गीतों के माध्यम से समाज की विविध भंगिमाओं को जीवंत किया है ।


डॉ. सागर का जीवन लोक के प्रांगण में पल्लवित एवं पुष्पित हुआ, और आपने लोक से बहुत कुछ सिखा और समझा भी है । आपने ज्ीम ॅपतम (द वायर) में रियाज फैयाज को दिए अपने साक्षात्कार के दौरान स्वयं  ही स्वीकार किया है दृ लोक जीवन ही मेरे जीवन की जननी है ।1 लोक संवेदना को समग्रता में जीना और उसे अपनी रचनात्मकता में अंगीकार कर समाज के सम्मुख प्रस्तुत करने की कला में डॉ. सागर माहिर हैं । डॉ. सागर के रचनात्मक जीवन का आरम्भ उनके बचपन में ही हो गया था जब वो कक्षा दो में पढ़ते हुए कविता लिखी और उसे खूब सराहा गया । कहा गया है -होनहार बिरवान के हॉट चिकने पात । यह बात आपके व्यक्तित्व में देखी जा सकती है । लगभग बारह वर्ष की अवस्था तक आते-आते आपके क्षेत्र के यानि बलिया और उसके आस-पास के बड़े गायक उनके गीत गाने लगे थे । लोक जीवन और अपने घर परिवार सीखने का क्रम बचपन से ही आरम्भ हुआ और उसी भावभूमि पर आपके गीतों ने संस्कार पाया । आपने स्वयं ही उसी साक्षात्कार में स्वीकार किया है कि दृ मेरे अन्दर जो कुछ है ,मेरी माँ और मेरी चाची के गाये हुए जंतसार से है।  जंतसार के गीत घरेलू चक्की पर गेहूं पिसते हुए गए जाते हैं । यह उस समय की बात है ,जब घरों में ही गेंहू की पिसाई होती थी । लोक के अनुभव और अपनी सहज प्रतिभा को सागर ने अपने अभ्यास और लगन से इस तरह सवांरा कि बालीवुड की एक तलाश के पूरे होने जैसा है । अपने माटी से दूर होने की पीड़ा हर प्रवासी मजदूर की होती है ,इस पीड़ा को डॉ.सागर अपने शब्द संयोजन द्वारा जीवन्त किया ,जो खोज प्रसिद्ध निदेशक अनुभव सिन्हा वर्षों से कर रहे थे । उनहोंने अपने ट्विटर ज्ूपजजमत पर लिखा कि  रू 7-8 साल से सोच रहा था प्रवासी मजदूरों पर एक गाना बनाना है । तीन लोगों ने सपना साकार कर दिया । सागर, अनुराग और मनोज ।   इसी क्रम में मनोज बाजपेई ने ट्विट किया कि दृक्त. ैंहंत  ही इस कोशिश के अग्रणी हैं ! कमाल की समझ है शब्दों और उनके चयन की।


शब्दों का चयन और उनका संयोजन किसी भी गीत के सम्प्रेषण का आधार स्तम्भ होते हैं ,इस कला में गीतकार सागर माहिर हैं । बलिया क्षेत्र की बोली, बानी, और राग-रंग को अपने में अन्तस्थ कर उसे अभिव्यक्त आपने एक तरह के संवेदन को हमारे समक्ष रख दिया है । बम्बई में का बा गीत उस संवेदना को घनीभूत रूप में प्रस्तुत करता है ,जिसे प्रवासी मजदूर जीने को विवश हैं । आजादी के वर्षों के बाद भी हमारे गाँव में जीवन की स्थितियां कैसी हैं यह किसी से छिपा नहीं है ,गाँव की इन स्थितियों को बम्बई में का बा गीत के माध्यम से डॉ. सागर हमारे समक्ष साकार किया है ।गीत का आरम्भ होता है -


दू बिगहा में घर बा लेकिन ,सुतल बानीं टेम्पू में


जिनगी ई अंझुराइल बाटे, नून तेल आ शैम्पू में ,


मनवा हरियर लागे भैया, हाथ लगवते माटी में


जियरा आजुवो अंटकल बाटे ,गरमे चोखा बाटी में ।


......................................................................


जिनगी हम त जियल चाहीं ,खेत बगईचा-बारी में


छोड़-छाड़ हम आइल बानी हम इहवां लाचारी में ।(बम्बई में का बा)


प्रवासी होना और उस जीवन को जीना जिसके बारे में हम कभी सोचे ही ना हों । घर का खुले माहौल से दूर शहर के एक कोने में जीवन व्यतीत करने की वेदना को डॉ. सागर ने खुद महसूस किया ,ना सिर्फ महसूस किया वरन स्वयं जिया भी था । हम नागर जीवन के प्रति आकर्षित हो सकते हैं ,लेकिन जिसने गाँव की खुशबु को महसूस किया हो , सोंधी माटी की महक , चिड़ियों की चहक ,ताल-तलैये और जीवन का लोल-किलोल देखा और भोग हो उसे कतई भी शहरी आकर्षण मोहित ना कर सकेगा । इसी कारण वह कह उठता है दृ बम्बई में का बा । इस गीत में जो पीड़ा देखने को मिलती है ,वह सिर्फ मुम्बई में काम करने वाले प्रवासियों की नहीं है ,वरन उन सभी प्रवासियों की है,जो अपनी रोजी-रोटी के लिए अपने घर-परिवार,गाँव-जवार से दूर जाकर संघर्षरत हैं ।


मुम्बई में का बा गीत में प्रवासी मजदूरों दशा उस पीड़ा की अभिव्यक्ति देखने को मिलती है ,जिसे भिखारी ठाकुर के लोक नाट्यगीत बिदेशिया में वर्षों पहले देखने को मिली थी । देश स्वाधीन हो गया , इन मजदूरों की स्थिति जस की तस है , इसे रेखांकित करते हुए अंशु त्रिपाठी ने अपनी पुस्तक भोजपुरी सिनेमा का सफर में लिखा है दृ ष्जीवन के कठिन यथार्थ से टकराते हुए कई नाटक लिखे । भोजपुरी के इलाके में पालयन तो था ही । लोग रोजी-रोजगार के लिए कलकत्ता जाते थे । इस अंचल में एक कहावत मसहूर था दृ लागा झुलनी का धक्का ,बलम गए कलकत्ता । यह धक्का सिर्फ झुलनी का नहीं था - बेगार करती गरीबी ,अकुलाते पेट और जिन्दा रहने की जेद्दोजेहद भी इसमें शामिल थी । भिखारी जब कलकत्ता में थे ,तो वहाँ रह-रहे अपने गाँव के लोगों को करीब से पढ़ा-देखा ।


प्रवासियों की अंतहीन पीड़ा को करीब से देखना और उसे एक नए रूप में समाज के समक्ष रख देने की कला डॉ. सागर के गीतों में उसी रूप में देखने को मिलती ,जिस रूप में भिखारी ठाकुर रच रहे थे । शहर कलकत्ता हो या मुम्बई या और कोई दृ अपने गाँव को छोड़कर जानेवाले मजदूर उस व्यस्था के कारण मजबूर हैं ,जो गाँव में आज भी रोजी-रोजगार उपलब्ध कराने में सक्षम नहीं है । डॉ. सागर इस वेदना को बहुत ही शिद्दत से महसूस कर रहे थे और संवेदनशीलता के साथ रच भी रहे थे


बनिके हम सिकोरटी वाला, डबल डयूटिया खटत बानीं ।


ढिबरी के बाती के जइसे ,तनी-तनी हम घटत बानीं ।


घीव-दूध आ माखन मिसरी ,मिलेला हमरा गाँवे में ।


लेकिन इहवां काम चलत बा ,खाली भजिया पाव में ।


काम काज ना गांव में बाटे ,मिलत नाहीं नोकरिया बा ।


.......................................................................


अपने जिला-जवारी में हम ,रुपिया अगर कमइतीं हो ।


तूं ही बतावा औलादन के ,छोड़ी के काहें अइती हो । 


 


डॉ. सागर के गीतों की शब्दावली और उसमें निहित्त संवेदना उस गाँव जवार की संवेदना है जहाँ आजादी के सात दशकों बाद भी बहुत कुछ वैसा ही है ,जैसा पहले था । पलायन भोजपुरी क्षेत्र की एक बड़ी समस्या है , यह समस्या एक लम्बे समय से चली आ रही है । सिकोरटी वाला होना और सब कुछ छोड़ने के मर्म को इस गीत के माध्यम से प्रस्तुत कर सागर ने सिर्फ मुम्बई में रहने वाले मजदूरों व्यथा को व्यक्त करते हुए उस व्यवस्था पर भी व्यंग्य किया है । एक रैंप सॉंग लिखते हुए एक गीतकार क्या-क्या अपने जेहन में रख-सकता है यह इस गीत में देखा जा सकता है ।मजबूरी ,मजदूरी के साथ-साथ व्यस्था पर काबिज लोग किस तरह सामान्य जन-जीवन को प्रभावित करते हैं यह भी इस गीत के माध्यम से सागर ने रेखांकित किया है -


जबरा के हथवा में भैया , नियम और कानून उहाँ ।


छोटी-छोटी बतियन पर ऊ , कइ देलन स खून ऊहाँ ।


बेटा-बेटी लेके गाँवे ,जिनगी जियल मोहाल हवे


ना निम्मन इस्कूल कहीं बा ,नाहीं अस्पताल हवे ।


ए हाकिम लो ! ए साहेब लो !, हमरो कुछ सुनवाई बा?


गाँव में रोगिया मरत बांडे , नाहीं मिलत दवाई बा । 


बम्बई का बा निसंदेह भोजपुरी क्षेत्र में व्याप्त विवशता को अभिव्यक्त करने वाला विशिष्ट गीत है । इसमें व्यंग्य भी है , मजबूरी भी है, चमकृत करने की क्षमता तो है ही साथ ही साथ व्यस्था में बैठे लोगों को कटघरे में खड़ा भी किया गया है । डॉ. सागर के गीतों को जानने समझने के लिए एक सहृदय मन के साथ-साथ संवेदनशीलता भी आवश्यक है । जब तक दूसरों की वेदना के साथ हम अपना तादात्मय नहीं स्थापित करेंगे ,तब तक गीत के मर्म को नहीं समझ पाएंगे । संवेदन के धरातल डॉ. सागर ने अपनी धरती से जो कुछ भी लिया, उसे अपने गीतों के माध्यम से ना सिर्फ प्रस्तुत किया,  वरन लोगों के जेहन में उतरने का भी कार्य किया । वर्तमान समय में अर्थ गुम्फित गीत लिखना और उसे आस्वादकों तक उसी रूप में पहुचना, एक सजग और संवेदनशील रचनाकार ही कर सकता है, जो डॉ.सागर ने बखूबी किया है ।


गीतों में नये रूपकों, प्रतीकों और बिम्ब को गढ़ना और नए भाषिक प्रयोग की दृष्टि से भी सागर के गीतों में एक खास नयापन है । डगरिया मसान हो गइल, हमरा को कन्फ्यूजिया के गया , ए मनवा बहुरुपिया ,मजनू के मैले कुर्ते से इश्क की खशबू जैसे प्रयोग नए तरह के गीत शिल्प और भाषा को रचते हैं , जिसे हम निम्नलिखित पंक्तियों में देख सकते हैं -


मनवा के कोहबर में


सपना छुपाई के


बड़ा अगराईं हम


शहरिया में आई के


रउवाँ सभे से हम


जोरनी सनेहिया


संगे संगे डगरे


पिरितिया के पहिया


कइसे के बताईं एकरा बदले में


ई कइसन इनाम हो गइल ।।


कइसे आईं फेरु एह नगरिया हो


डगरिया मसान हो गइल । 


मनवा के कोहबर, पिरितिया के पहिया , सपना छुपाई के बड़ा अगराईं हम ,जैसे अनेकानेक  प्रयोग भोजपुरी संस्कृति के खाटीपन को संजोने की दिशा में अभिनव प्रयोग हैं ।प्रतीकों और बिम्बों का भोजपुरिपन आपके गीतों की अन्यतम विशेषता है । डॉ. सागर का मानना है कि हमारी वैचारिकी हमारे व्यक्तित्व और रचनाओं में आएगी । सागर के डॉ. सागर और गीतकार होने की एक लम्बी यात्रा है, जिसमें अन्तःवर्ती प्रेरणा हमेशा से बनी रही है ,जिसके ड्राइविंग फोर्स से आप अपने मुकाम पर पहुचने में सफल रहे हैं । सागर के इस गीत में हम उस संघर्ष को समझ सकते हैं जिसमें खुदा के खफा होने के बाद भी जीने ख्वाहिश मौजूद है -


ख्वाबों की दुनिया मुक्कम्मल कहाँ


जीने की ख्वाहिश में मरना यहाँ है


मंजिल यही है,यही कारवाँ है


जीने की ख्वाहिश में मरना यहाँ है ।


खुदा इस जहाँ से तो वर्षों से खफा है


गनीमत है तुमसे इन्सान रूठा


दरिया की तरह जमाने के आंसू


पलकों से तेरी तो कतरा है छूटा


सर पे उठाया है क्यूँ आसमाँ को ।


उपरोक्त गीत में जीवन जगत के संघर्ष का अंकन देखने को मिलता है । डॉ. सागर ने लिखा है कि तेरे पलकों से कतरा से छूटने तू परेशान क्यूँ है ,यहाँ तो लोगों के आंसू दरिया की तरह बह रहे हैं । जीवन-जगत के बहुरंगी यथार्थ को हम डॉ. सागर के गीतों में देख सकते हैं ,ग्राम्य समाज में महिलाओं की दशा किसी से छिपी हुई नहीं है । लोक जीवन में स्त्रियों का जीवन अत्यंत संघर्षमय और कठिन होता है ,जिसे सागर जी के इस गीत में देख सकते हैं -


हमरा के कन्फ्यूजिया के गया 


खिड़की से पटना दिखा के गया


हमरा त चैखट के भीतरी जुल्म है


साइंया घुमक्कड़ को धरती भी कम है


देख सूट-बूट जुल्मी तैयार


मोरा पिया मतलब का यार ।


मोरा पिया मतलब का यार में डॉ. सागर ने उस वेदना को मूर्त किया है जिसे सामान्य ग्राम्य नारी भोग रही है , अनवरत श्रम और संघर्ष के बाद सिर्फ सपने में ही सुख देखने के मुजबूर हैं ये स्त्रियाँ । डॉ. सागर ने लोक के प्रांगण से खूब रस खिंचा और अपने अन्दर संजोया भी ,इसी के परिणाम स्वरूप आपके गीतों ग्राम्य जीवन का चटख रंग देखने को मिलता है । लोक के रंगों को समेटते हुए बाल मन के जीवंत खेलों और उनसे जुडी यादों को भी हम सागर के रचनात्मक फलक पर देख सकते हैं । दरअसल ग्राम्य जीवन का आकर्षण ही ऐसा है जिससे मुक्त होना सहृदयों के आसान नहीं है , डॉ. सागर ने  स्वयं इस बात को खुले मन से स्वीकार किया है कि उनका अन्दर जो कुछ है ,उसमें से बहुत कुछ लोक से ग्रहित है । गाँव के बचपन की यादों को याद करते हुए आप लिखते है कि -


कहाँ गईल गंऊवा के बचपन


मनवा आजु उदास भईल बा


लौट के गाँवे आ गईलीं


जब हमसे ना बरदाश भईल बा


पिपरा के छांह तर खेललीं


खेललीं ओल्हा-पाती


ओका-बोका तीन तलोका


लइया-लाठी चनन-काठी ।


भौतिकता की आंधी में बहुत कुछ पीछे छुट रहा है , और छूटता ही जा रहा है ।इन सब के बीच बहुत से ऐसे खेल हैं ,जो सिर्फ यादों में रह गये हैं । इन सब को डॉ. सागर ने संजोकर अपने गीतों के माध्यम से बचा लिया है । ओल्हा-पाती ,ओका-बोका जैसे खेल तो मानो लोक जीवन में अब बहुत ही कम हो गये हैं ,सागर जी ने इन शब्दों को अपने गीतों में स्थान देकर उस विराट लोक परम्परा को संजोने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कार्य किया है । आज के समय में ज्यादातर गीत सुने और गुनगुनाये जाते हैं , उनके अर्थ पर लोग बहुत कम लोग ध्यान देते हैं ,यह समस्या केवल आस्वादकों के साथ नहीं ,वरन ज्यादातर गीतकार धूमधड़ाके को दृष्टिगत रखते हुए ही गीत तैयार करते हैं । डॉ. सागर ने फिल्मों में काम करते हुए भी शब्दों और अर्थ के संबंध को हमेशा ही ध्यान रखा है । डॉ. सागर के गीतों में आचार्य भामह द्वारा दी गई काव्य की परिभाषा को हम देख सकते हैं ।भामह ने अपने काव्यालंकार में काव्य के सन्दर्भ में लिखा है 


ष्शब्दार्थौ सहितौ काव्यम  (काव्यालंकार)


साहित्य में शब्द और अर्थ का सहभाव ना हो तो वह कालजयी ना हो सकेगा ,डॉ. सागर को शब्दों की अच्छी समझ है और वह परिस्थितियों और परिवेश के अनुसार ही शब्दों का चयन करते हैं । डॉ. सागर की निम्नलिखित पंक्तियों के करीब मैं खुद को देखता हूँ 


हर सुबहा की शाम यहाँ सिन्दूरी कहाँ है


मन का मृगा ढूढ रहा कस्तूरी कहाँ है ।


......................................................


ख्वाबों को सच करने के लिए ,


तितली ने सारे रंग बेच दिये ।


आज के जीवन का यही यथार्थ है ,जब तक हम इससे रूबरू ना होंगे तब तक हम उस अर्थ तक ना पहुच सकेंगे ,जिसे हमारी आँखों ने देखा है ।


डॉ. सागर के गीतों में भावों की एक गहरी धारा प्रवाहित होती रहती है , जिसमें भोजपुरी समाज के लोग ही नहीं वरन समाज के लगभग सभी वर्गों के लोग अवगाहन करते रहते हैं । भावों के साथ-साथ भाषा के स्तर पर आपने अपने गीतों में अभिनव रचनात्मकता दिखाई है । भोजपुरी और हिन्दी के शब्दों के साथ-साथ भावानुसार उर्दू ,अंग्रेजी व अन्य भाषाओँ के शब्द भी आपके गीतों में देखे जा सकते हैं । लोक को अपने गीतों की जननी मानने वाले डॉ.सागर ने लोक शब्दों का प्रयोग करते हुए नए शब्द भी गढे हैं जैसे दृ सिकोरटी वाला ,डबलडूयुटिया, कनफूजिया , नौकरिया ,इस्कूल , अस्पताल इत्यादि । इन शब्दों में अंग्रेजी के शब्दों को भोजपुरी भाषा के शब्दों की ढ़ालकर नए रूप में प्रस्तुत किया गया है ।


भोजपुरी भाषा का प्रयोग करते हुए आपने भोजपुरी भाषा की उस जीवन्तता को बनाये रखा है ,जो शब्द धीरे-धीरे भोजपुरी लोक से लुप्त हो रहें हैं दृ


जिला-जवारी ,लइका-फइका , इहाँ , बुचिया ,पुरनिया ,ताल-तैलया ,नून,चैखट ,खांची, फरुहा ,ठेठावत इत्यादि ।


देशज शब्द-युग्मों के प्रयोग से आपके गीत और भी जीवंत और सम्प्रेषणीय हो गए हैं दृ


लौना-लकड़ी दृखर्ची-बर्ची ,खुरपा-फरुहा-खुरपी-हंसुवा ,लमहर-चाकर ,काम-धाम,बेटा-बेटी ,गाँव-शहर इत्यादि ।


निःसंदेह हम कह सकते हैं कि डॉ. सागर ने अपने भोजपुरी गीतों के माध्यम से भोजपुरी की उस अर्थपूर्ण परम्परा को आगे ले जा रहे हैं ,जो परम्परा भोजपुरी विरासत रही है । आपके गीतों में वह सौन्दर्य है ,जो भोजपुरी में लिखित द्विअर्थी गीतों ने मिटाकर रख दिया था । आज भोजपुरी गीत सात-समन्दर पर सुने और गुनगुनाये जा रहे हैं ,जिसमें डॉ. सागर के गीतों को बहुत ही सराहा और स्वीकारा जा रहा है । डॉ. सागर ने अपने गीत साहित्य के माध्यम से राही मसूम रजा के उस व्यक्तव्य को सार्थक कर दिया जिसमें वे साहित्य, साहित्यकार और पाठक को रचनात्मक कला को त्रिभुज मानते हैं , उनके अनुसार - ष्मेरे विचार में साहित्य ,साहित्यकार और पाठक रचनात्मक कला का त्रिभुज है । पाठक की अनुपस्थिति में साहित्य की कल्पना नहीं की जा सकती ।साहित्य पाठक के पास पहुचकर ही साहित्य बनता है ।किसी कविता का अर्थ वह नहीं ,जो कवि के मस्तिष्क में है कविता को तो पाठक अर्थ देता है ।


वास्तविकता यह है कि डॉ. सागर के गीत पाठकों तक पहुच रहे हैं और और उनके गीत अपना मुकाम भी बना रहे हैं । डॉ. सागर जैसी विलक्षण प्रतिभा के लोग विरले ही मिलते हैं ,उनका जीवन अपने आप में प्रेरणा है । गीतकार होने के साथ-साथ आप एक नेक और विशाल ह्रदय के इन्सान भी हैं ।आपके गीतों की सबसे बड़ी विशेषता है कि आप लोक से जुड़े हुए हैं और अर्थपूर्ण गीतों का सृजन करते हैं । भाव और भाषा दोनों दृष्टियों आपने अपने गीतों अच्छे से संजोया है । सिनेमा का गीत लिखते हुए बाजार , परिस्थति और संगीतकार के ट्रैक सभी को ध्यान में रखना और उसके अनुरूप अपने भावों को अपनी कल्पना शक्ति के माध्यम से नए रूप में प्रस्तुत करना फिल्मी गीतकारों के लिए बड़ी चुनौती है, जिसका निर्वहन आपके गीतों में बखूबी देखने को मिलता है ।


डॉ. सागर सच्चे अर्थों में लोकरंग के विलक्षण गीतकार हैं । लोक के विविध रंग उनके गीतों में बिखरे पड़े हैं । प्रेम, श्रम, सौन्दर्य ,बालपन ,गरीबी ,मजबूरी और बेबसी सभी को समेटने के कारण आप एक विलक्षण रचना जगत की निर्मिति करते हैं । लोक का राग-विराग और लोक जीवन को छोड़कर जानेवाले प्रवासियों की मनोदशा का चित्रण आपके गीतों में समग्र रूप में मौजूद है । प्रवासी मजदूर चाहे मुम्बई के हों ,या भारत के किसी अन्य शहर के हों ,या विदेशों में बसे हों दृ सबकी पीड़ा से डॉ. सागर के गीत एकाकार स्थापित करने में सर्वथा समर्थ हैं ।आपकी इसी विशेषता के कारण यदि आपको लोक जीवन का विलक्षण गीतकार कहना अतिश्योक्तिपूर्ण ना होगा । यद्यपि आपने हिन्दी सिनेमा के लिए भी गीत लिखे हैं ,लेकिन लोक और ग्राम्य जीवन आपकी रचनात्मकता का उत्स है । आपके गीत अन्य लोकगीतकारों की भांति की तरह लोक बिना आपके नाम के भी गाए और सुने जाते हैं ,यह एक सच्चे लोकगीतकार की सबसे बड़ी सम्प्रति है । 

Comments

  1. ग्रामीण परिवेश की अच्छी प्रस्तुत रोजगार की खोज में कलकता बम्बई जैसे शहरों में गये बसे ग्राम्य जनो केमनो भावों का व वर्णन शब्द चयन वास्तव में सराहनीय है।

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