यथार्थ का नया दौर और चुनौतियाँ


कथा साहित्य अपने आरम्भ से मध्यगत रुप में सामाजिक यथार्थ चित्रण से जुड़ा हुआ है। प्रायः हर साहित्य में तिलस्मी, ऐय्यारी, रहस्य और चमत्कार प्रधान किस्सो से अलग होकर उपन्यास जब अपने पूर्व रुप रोमांस से भिन्न एक स्वतंत्र कला रुप के तौर पर स्थिर होता है तो उसका प्रधान उपजीव्य समाज की विधि विषमताये और समस्यायें ही बनती है। हिनदी का प्रथम मौलिक उपन्यास लाल श्रीनिवास दास का ‘परीक्षा गुरु’ (1882) सांस्कृतिक और जातिय संघर्ष की कथावस्तु को उठाता है।

उपन्यास जब हिन्दी साहित्य परिवार में नया-नया प्रवेश कर रहा था तो सतर्क गृहस्थ की भाँति वरिष्ठ लेखक और सम्पादकों की उस पर कड़ी निगाह थी। उन्नसवीं सदी के अन्तिम और बीसवीं सदी के आरम्भिक दशकों में उपन्यास की नयी विधा ने हिन्दी लेखकों को अपनी तरफ आकृष्ट किया।

आधुनिकता बोध के आधार पर प्रेमचन्दोŸार उपन्यासों का वर्ग विशेष निश्चित करना भी पूर्णतः निर्दोष नहीं हो सकता। इसका कारण यह है कि ‘आधुनिकता का बोध’ स्वयं में एक जटिल अवधारणा है। प्रगतिशील और मूल्यवादी विचारक इसे मानवता के भविष्य निर्माण के संघर्ष में बाधाक मानते ळें उनके अनुसार आस्तित्ववादी दर्शन से प्रेरित आधुनिकता बोध मनुष्य को निराश कुण्ठित एकाकी और निष्क्रिय बना देता है। आधुनिक यंत्र दानव के समक्ष अपनी हीनता और व्यर्थता के बोध से आक्रांत मनुष्य बेहतर जीवन निर्माण के लिए संघर्ष नहीं कर सकता। इसलिए विसंगति, विडम्बना, व्यर्थता, अजनबीपन, नैराश्य, कुण्ठा, संत्रास आदि की आधुनिकता बोध का पयार्य मान लेना उचित नहीं है। 

वर्तमान औद्योगिक सभ्यता के अन्तर्गत मनुष्य का पदार्थीकृत होना उसका नियति है। निराशा, ऊब, ग्लानि, व्यर्थता, बोध  आज का जीवन सत्य है। यह स्वीकार कर लेने से मनुष्य की संकल्प, शाक्ति का हृास होता है और वह नियति का दास बनकर रह जाता है। इसलिए आधुनिकता बोध के स्थान पर वे यथार्थ बोध को महत्व देते है।

मुक्तिबोध जी बलपूर्वक कहते है कि ”अन्याय के खिलाफ आवाज बुलन्द करना“ आधुनिकता भाव बोध के अन्तर्गत है। प्रेमचन्द के सामाजिक यथार्थ के जिस समस्या की उनके पूर्ववर्ती उपन्यासकारों ने आदर्श और यथार्थ को खानों में बाँटकर देखा था उसे प्रेमचन्द एक संपृक्त और संश्लिष्ट रुप में समझते है। कहानी कला का दूसरा विवेचन करते समय उनका पर्यवेक्षण है कि बुरा आदमी भी बिल्कुल बुरा नहीं होता, उसमें कही देवता अवश्य छिपा रहता है। इस मौलिक मनोवृŸिायों के समझ में से वे जीवन के प्रति एक नया दृष्टिकोण विकसित करते है। जिसे उन्होंने आदर्शोन्मुख-यथार्थवाद का नाम दिया है।

यो तो प्रेमचन्द युग में ही हिन्दी कथा, रचना के क्षेत्र में महिलाओं का प्रवेश हो चुका था, किन्तु स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद नारी जागरण और स्त्री शिक्षा के व्यापक प्रचार-प्रसार के फलस्वरुप इस क्षेत्र में महिला रचनाकारो की एक सशक्त पीढ़ी का उदय हुआ। दिनेश नंदनी, शशिप्रभा शास़्ी, कृष्णा सोबती, दीप्ती खंडेवाल, मन्नू भण्डारी, उषा प्रियम्बदा, राजी सेठ, मंजुल भगत, मृदुला गर्ग, ममता कालिया, मेहरुन्निसा परवेज, निरुपमा सोबती, आदि महिला उपन्यासकारो ने समकालिन उपन्यास लेखक के क्षेत्र में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है। इनके अतिरिक्त पिछले कुछ वर्षो में इस क्षेत्र में जिन अन्य लेखिकाअें ने ध्यान आकृष्ट किया है उनमें चित्रा चतुर्वेदी, प्रभा खेतान, मैत्रेयी पुष्पा, वीणा सिन्हा, गीताजंली श्री, मधुकांकरिया, जया जादवानी और अल्का सरावगी प्रमुख है।

होपर से लेकर शेक्सपीयर और उनसे लेकर आजतक के कथाकारी, कलााकरी तक एक चीज कार्य है- और वह है ‘सर्च फार द कम्पीट मैन’। तमाम चुनौतियों के बावजूद साहित्य की सफर न केवल जारी रही बल्कि अनेक ऐसे महोत्सवों का आयोजन हुआ जिन्होंने साहित्य के प्रति आस्था रखने वालों में एक विश्वास पैदा किया। मैत्रेयी पुष्पा के कही इसुरीफाग और त्रियाहट जैसे उपन्यास सामने आए तो नशाखोरी की दुनिया पर मधु कांकरिया का उपन्यास आया। सुषमा जगमोहन जिन्दगी ई-मेल के जरिए मध्य वर्ग के सपनों और उन्हें पूरा करने के लिए अकेली स्त्री के चरित्र को चित्रित करती है, तो उषा किरण खान का उपन्यास ‘हसीना मंजिल’ लोक संस्कृति में गुथा हुआ लेकर सामने आया। गीताजंली का रोजमर्रा की जिन्दगी में हिंसा को चोट करता उपन्यास ‘खाली जगह’ पिछले पचास साल के मुस्लिम समाज के सच्चाइयों पर नासिरा शर्मा का ‘कुइयां जान’ भी अहह उपन्यासों में शामिल है।

आज के बदले हुए माहौल में स्त्री-पुरुष सम्बन्धों में जो जटिलता है उसका मनोविश्लेषण करने में दीप्ति खंडेवाल सिद्धस्त है। आज भी पुरुष का घमण्ड नारी पर एकाधिकार चाहता है। परायी स्त्री को भोग की वस्तु बनाने के लिए पुरुषों द्वारा रचाा गया गन्दा चक्रव्यूह अत्यन्त क्षोभनीय तथा निन्दनीय है। नारी आज भी असुरक्षित अभिशप्त है। कभी-कभी तो ऐसा लगता है कि दीप्ती जी विवाह संस्था पर ही अविश्वास करने लगी है। तीसरा के सम्पूर्ण में उन्होंने लिखा है ”भावना की तरल भाषा में प्रेम धरती पर स्वर्ग उतार सकता है किन्तु यथार्थ के ठोस शब्दों में ‘प्रेम’ अन कहे नरको की सृष्टि करता है........... और नारी और पुरुष तन-मन के ‘सम्पूर्ण’ एवं स्वीकार के रस सिक्त क्षणों के बीच 99 प्रतिशत फैले होते है- अन्तहीन मरुस्थल, भटकती आँखे, अतृतप्त होठ, प्यासे प्राण।” अच्छा होता यदि खेडेवाल जी इस भटकाव से ऊपर उठकर सामाजिक जीवन के व्यापक और जटिल समस्याओं से भी अपने को जोड़ पाती।

आज की व्यवसायिक उपभोगवादी संस्कृति में नारी के शोषण की नयी-नयी स्थितियां उभरने लगी है। हाँ एक ऐसी लेखिका जो सौभाग्य से हमारे बीच है, चित्रा मुद्गल जी जिनका नाम होठो पर आते ही रोम-रोम उनका गुलाम हो जाता है। इन्होने जैसे को तैसे प्रस्तुत कर सच को आइना दिखाया है वह समाज के यथार्थ का नंगा नृत्य है। इन्होंने विज्ञापन जगत में होने वाले शोषण को सार्थक औपन्यासिक परिणत देकर एक सफल उपन्यास लेखिका के रुप में अपने को स्थापित कर लिया है।

चित्रा जी का ‘एक जमीन अपनी’ उपन्यास अन्धेरो को चीरता हुआ एक किरण लेकर आता है, जो परदे के पीछे घटित घटनाओं को उजागर करता है। इनकी ‘आठवाँ’ उपन्यास बम्बई के मजदूर संघटनों के जीवन संघर्ष को केन्द्र में रखकर लिखा गया है।

राजी सेठ ने तत्सम लिखकर हिन्दी उपन्यास के क्षेत्र में अपनी अमिट छाप छोड़ी है। वैसे तो तत्सम एक प्रेमकथा है पर इसी बिन्दु पर लेखिका ने भारतीय और पाश्चात्य जीवन-वृŸिायों की तुलना भी की है।

उपन्यास में अनुषागिंक रुप से सही वर्तमान विश्वविद्यालय व्यवस्था के खोखलेपन की भी बेनकाब किया गया है। पुष्पलाल सिंह के शब्दों में विवेच्य उपन्यास व्यक्ति स्वातन्त्रय नारी स्वातन्त्रय की दृष्टि को केन्द्र में रखकर एक अत्यन्त प्रबुद्ध सुशिक्षिता नारी के पुर्नविवाह के प्रश्न को आधुनिक जीवन स्थितियों के परिप्रेक्ष्य में रखकर देखने का एक सही प्रत्यन्न है।

नारी शोषण का मूल कारण नारी देह है या फिर कुछ और? बार-बार लेखिकाओं द्वारा यह दोहराया जाना कि नारी शोषण तेजी से हो रहा है- गली, नुक्कड़, चैराहा, घर, बाजार हर जगह नारी उत्पीड़न का सबब बन कर रह गयी या रह जाती है- क्या स्त्री के पास आज भी खोने के लिए सिर्फ माँस का लोथा ही है? क्यूँ हम अपने मन को देह रुपी कुण्ठा से मुक्त नहीं कर पा रहे है। नारी जीवन को उकेरने में मंजुल भगत भी अद्वितीय है। इन्होंने अपनी रचना का केन्द्र बिन्दु ‘नारी मन रखा है।

संघर्ष हमारे सम्मान का होना चाहिए, हमारे वजूद, व्यक्तित्व और उपस्थिति का होना चाहिए, जो शायद नहीं हैं।

मृदुला गर्ग ने अपनी पहचान अभिजात वर्गीय नारी के स्वातन्त्रय प्रेम विवाह, वैवाहिक जीवन की एकरसता, उब, ताजगी की तलाश में पर पुरुष की ओर झुकाव तथा प्रेम की अनुभूति के सूक्ष्म विश्लेषण के माध्यम से मानव जीवन की सार्थकता की तलाश द्वारा बनायी गयी थी, उसके हिस्से की धूप से लेकर ‘चितकोबरा’ तक यह तलाश जारी थी। पुरुष किसी वर्ग का हो स्त्री के प्रति उसकी पाशविक प्रवृति एक ही तरह की होती है। इस पुरुष प्रधान व्यवस्था से मुक्ति का उपाय क्या है? कथा लेखिका की नारियाँ पुरुष से सम्पूर्ण मुक्ति नहीं चाहती। वे सम्मान के साथ अपनी पहचान कायम रखती हुए प्रेम, सुरक्षा औश्र संतान की कामना करती है। कोई स्त्री बंध्या नहीं होना चाहती। इसके लिए पुरुष अनिवार्य है।

आप कहेगें कि मर्द अपने को क्यों नहीं मिटाता? औरा से ही क्यू इसकी आशा करता है? मर्द में वह सामाथ्र्य ही नहीं है। वह अपने को मिटायेगा तो शून्य हो जाएगा। वह किसी खोह में जा बैठेगा और सर्वाक्ता में मिल जाने का स्वप्न देखेगा। वह तेज प्रधान जीव है, और अहंकार में यह समझकर  िकवह ज्ञान का पुतला है, सीधा ईश्वर में लीन होने की कल्पना किया करता है।

स्त्री पृथ्वी के प्रति धैर्यवान है, शान्ति सम्पन्न है, सहिष्णु है, पुरुष में नारी के गुण आ जाते है तो वह महात्मा बन जाता है, नारी में पुरुष के गुण आ जाते है तो वह कुल्टा बन जाती है। पुरुष आकर्षित होता है, स्त्री की ओर जो सर्वाश में स्त्री हो, सारी उम्मीदे नारी जाति से ही क्यूँ? चाहे गोदान में मि॰ मेहता हो या कोई भी अन्य पुरुष, क्या वह स्त्रियों द्वारा संजोये हुए इच्छाओं पर खरा उतर सकते है, अगर नही ंतो फिर हम ही क्यूँ? ”क्या हमारे अन्दर कोई इच्छाएं या जीवन जीने की शैली नहीं  है क्या? हमे सृष्टि या ईश्वर से कोई अपेक्षा नहीं। हमे सहनशीलता का आभूषण पहनाकर तिल-तिल मरने के लिए विवश किया जाता है- कभी माँ बनकर, बहन, भाभी पत्नी के रुप में रिश्तो के शिकंजो में कसकर एक स्त्री के खिरते वजूद के टुकड़ो से बनता आया है। एक सपनो का साकार महल रौदें हुए तन से कौन्दे हुए मन का विलक्षण साक्षात्कार शायद मेरी यह बात तमाम विचार धाराओं से पृथक या गलत लगे, मगर मैने यही देखा, यही सुना और यही पाया है।

मृृणाल पाण्डेय 2000 ई॰ ”रास्तो पर भटकते हुए“ चर्चित उपन्यास है। इसमें वर्तमान व्यवस्था के घिनौने चेहरे को बेनकाब कर दिया गया है। आज जीवन का कोई भी ऐसा क्षेत्र नहीं जहाँ भ्रष्टाचार न हो। चिकित्सा के क्षेत्र में घोर व्यवसायिकता व्याप्त है। गरीबों को प्रलोभन दे-देकर धोखे से उनका अंग तक निकालकर बेच दिया जाता है। राजनीति अपराधियों की क्रीड़ाभूमि बनती जा रही है। पुलिस एवं सामान्य प्रशासन के क्षेत्र में तो भ्रष्टाचार ही कानून बन गया है। न्यायपालिका पर भी दबाव डाला जाता है, जो प्रायः प्रभावी होता है। पत्रकारिता भी व्यवसाय बन गयी है, अ बवह जनता की आवाज नहीं व्यवस्था की वाणी बनती जा रही है।

हिन्दी कहानी के समकालीन परिदृश्य पर विचार करते समय सबसे पहले विजय मोहन सिंह का कथा स्मरणीय है जो उन्होंने बाज से कुछ सालों पहले कहा था- ”बीस साल पहले जो हम कहानियाँ लिखते थे, उस समय ऐसी कहानियाँ बहुत कम लिखी जा रही थी, जिनका तत्कालिक सूचनाओं मीडिया और विज्ञज्ञपन इन सबका जो विस्फोट हुआ है, उसने हमारे पूरे भावबोध का संवेदना का, चेतना का, हमारी समझ को काफी कुछ घ्वस्त किया है।“ इसी के साथ ही पिछले कुछ वर्षो में सामने आ रही हिन्दी कहानी के सम्बन्ध में वह एक अन्य बात की ओर भी इशारा करते है- ”मै दिक्शन को बहुत महत्वपूर्ण मानता हूँ। जिसने अपना कोई बड़ा डिक्शन नहीं दिया वह बड़ा कवि या कथाकार नहीं हो सकता। फिलहाल मुझे लगता है कि आज का कथाकार अपना कोई डिक्शन या शिल्प देने में समर्थ नहीं हुआ है।

स्वयं प्रकाश ने जहां ‘बलि’ ‘गौरी का गुस्सा’ ‘कहाँ जाओंगे बाबा’ ‘नीलकांत का सफर’ पिताजी का समय तथा क्या तुमने कभी कोई सरदार भिखारी देख है जैसी बार-बार पढ़ी जाने वाली हिन्दी कहानियां साहित्य को दी। वहां उदय प्रकाश ने टेपचू, तिरिछ, छप्पन, तोले का करधन, पीली छतरी वाली लड़की, थर्ड डिग्री और अन्त मंे प्रार्थना तथा वारेन हेस्टिंग्स का साँड और दिल्ली का दिवार जैसी स्थायी महत्व की कहानियां हिन्दी पाठको को दी है।

ब्हुत बार लगता है कि हमारे शैशव की शरारतो का मरना हमारे भविष्य के सपनो का मरना है। ऐसे में त्रिपुरारी शर्मा की जूते गौरीनाथ की ‘महागिद्ध’ और अंकित की ‘आखिरी बार’ जैसी कहानियां कुछ-कुछ आरूवस्त करती है लेकिन मोहनदास नैमिशराय ने शोषण और उत्पीड़न से मुक्ति का जो रास्ता अपना गाँव बसाकर जो खोजा है, ऐसा गाँव जो केवल दलितो का गाँव हो, जहां दलितो की अपनी पुलिस हो, जहां दलितो का अपना राज्य हो, वह मेरी दृष्टि में उचित नहीं है। इधर दलित विमर्श को लेकर जितना कुछ लिखा जा रहा है उसके संबंध में भगवान सिंह ने सही एक टिप्पणी की है वह लिखते है- जो कुछ जैसा है वैसा ही लिख देना साहित्य को पागल खाना बनाना जैसा होगा। हिन्दी कहानी को विजयदान देवा से बहुत कुछ सीखने की जरुरत है फिर चाहे वह दलित विमर्श हो या स्त्री विमर्श अथवा कथा विमर्श। हम देखते है कि कथादेश, कथाक्रम, कथन हंस वर्तमान साहित्य तद्रभव नया ज्ञानोदय, तथा वागर्थ आदि पत्रिकाओं में कहानियां तो बेशुमार छप रही है, फिर भी कुछ ऐसे कहानीकार है जिनकी कहानियों को हम बार-बार पढ़ना चाहते है। कहानी आज भावोŸोजक नहीं विचारोŸोजक विधा है और इस विचारोŸोजक विधा के आगे आज के पूजीवाँद ने न केवल हिन्दी कहानी के आगे अपितु दुनिया की तमाम भाषाओं की कहानियों के आगे अवरोध खेउ़े कर दिये है।

इसके सम्बन्ध में बिन्दु भास्कर ने एक दिचस्प बात कही है कि आज के पूँजीवादी भूमण्डलीकरण ने कहानी के आगे यह चुनौति रख दी है कि वह या तो बाजारु होकर बाजार ससमझौता कर ले या बाजार से बाहर हो जाए। अब कहानी लिखना उन्ही से लड़ना है। यहां यह ध्यान रखना निहासत जरुरी है कि इस लड़ाई में कही कहानी मंे ही लहुलुहान होकर बदशक्ल हो जाय और हम कहानी न कहकर लह्न कहने लगे।

इस देश में आज भी ऐसे कहानीकार मौजूद है, जो अपनी-अपनी कलमो से आसमान को छूँ लेने में लगे है।

वैसे तो प्रेमचन्द्र युग में भी उषा देवी, मित्रा, कमला चैधरी, सत्यवती मलिक, सुभद्रा कुमारी चैहान, श्रीमती चन्द्र किरण सौनरिक्शा, श्रीमती होमवती देवी आदि महिला लेखिकाएँ तत्कालीन सामाजिक सन्दर्भो को केन्द्र में रखकर लेखन क्षेत्र में सक्रिय थी और इनके बाद रजनी वन्निकर कचंनलता, शान्ती मेहरोत्रा, सोमावीरा, श्रीमती राजेश्वरी देवी आदि लेखिकाओं ने परम्परा को आगे बढ़ाया था, किन्तु स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद तो महिला लेखिकाअें का एक वर्ग ही उठ खड़ा हुआ है।

चित्रा मृदुगल उन महिला कहानीकारों में अग्रणी है। जिन्होंने स्त्री, पुरुष सम्बन्धों के दायरे से बाहर निकलकर महानगरो में संघर्षरत नौकरीपेशा नारियों एवं झोपड़पट्टियों में घिसटते हुए निम्नवर्गीय लोगों के जीवन में भी झाँक कर देखा है। क्या आपकी कहानियों को नयी कहानी अकहानी जनवादी कहानी आदि के साँचे में ढाला जा सकता है? इस प्रश्न के उŸार में आपने रामकली सर्राफ को लिखा था कि आपकी कहानियाँ मनुष्यता और जिन्दगी के बीच की कहानियां है।

आज के दौर की कका कहानियों में विखरी हुई जिन्दगी की तस्वीरे देखी जा सकती है। इन कहानियों में भिखारी है, युवा भिखारने है, सफेदपोश चेहरे है, संवेदनशील ठेकेदार है, वेश्याये है, पत्नियों के अदला-बदली करने वाले क्लब है, पुलिस के सिपाही है, मोटर ड्राइवर है, सर्वहारा किस्म के पत्रकार है, मेहनत मजदूरी करके घर चलाने वाली स़्ित्रयां है, तस्करी और लड़कियों से धन्धा कराने वाली औरते है तथा अपने आस्तित्व और अस्मिता की लड़ाई लड़ती स्त्रियाँ है। चित्रा जी ने यह लक्षित किया है कि इनत माम लोगों विशेषकर स्त्रियों के शोषण के मूल में व्यवस्था की विसंगतियों के साथ ही हमारी सामाजिक दायित्व हीनता भी एक कारण है।

यह सब होने पर भी चित्रा जी की कहानियों के सम्बन्ध में मधरेश की यह टिप्पणी ध्यान देने वाली है- क्लब दोस्तो की सोसायटी, नाश और वेग की या फिर एक सुनिश्चित दूरी से देखी गई निम्नवर्ग की जिन्दगी से सम्बन्धित कहानियां एक निश्चित ढर्रे को तो वेशक तोड़ती है, लेकिन उनकी संवेदना प्रायः ही पत्रकारिता की सतह और काम चलाऊ तफसीलों में ढल जाती है।

हम जानते है कि हर इन्सान एक साथ दो जिन्दगियाँ जीता है, पहली व्यवहारिक जो वह आर्थिक मानव की तरह जीता है और जो हर मोड़ पर हर बदलाव के वावजूद हादसे और दुख-सुख को झेलती हुई बरसो उसी लीक पर चलती जाती है। जब अन्दरुनी जिन्दगी नंगे चेहरे लिए प्रकट होने लगती है, तो उसकी प्रकटता की भाषा का अच्छा खासा खुलापन और कही-कही नंगई लिए रहती है। आँवा में जहाँ-जहाँ सेक्स का चित्रण हुआ है, पूरी बिरुपता और कुरुपता के साथ हुआ है। चुकि यह चित्रण लम्बे समय तक स्त्रियों के लिए सत्यं, शिवम् सुन्दरम् के सिद्धान्त के अन्तर्गत साहित्य में वर्जित रहा है। इसलिए अब जब यह जोखिम उठाई जाती है तो बहुत बार अतिरिक्त आकाक्रम भाव आ जाता है। आना स्वाभाविक है और उसे तभी अंकुश में रखा जा सकता है, जब चिन्तन या विचार की भाषा का प्रयोग किया जाए। यह काम उपन्यासों में हो पता है, यह दूसरी बात है कि हमारी हिन्दी मानस विचार की भाषा से ही ज्यादा त्रस्त होता है और वापसी आक्रमण के लिए तत्पर भी।

यू तो हर रचनाकार के पास तीन तरह की भाषा होती है, अनुभूति की, चिन्तन की, और विचारधारा की भाषा। तद्भव तत्सम मिश्रित बोलचाल की भाषा सहज है जो अनेक मौलिक दिलचस्प और प्रभावी मुहावरो का आविष्कार करती है। वैयक्तिक और जातीय अनुभवों से अर्जित की गयी व्यंग दृष्टि से अपने व औरो के निजी जिन्दगी को नहीं राजनीति और आन्दोलना को भी तौलता है। उपन्यास का फलक बड़ा तब होता है जब वह हमारी चेतना व भावबोध में नये आयाम जोड़े बहुत से पात्रों एवं प्रसंगो को समेटने का आग्रह उपन्यास में संरचनात्मक स्तर पर विखराव पैदा करता है। समूचे समकालिन हिन्दी उपन्यास में भी अन्र्तवस्तु के विस्तार का वह एक प्रीति और उल्लेखनीय उदाहरण है।

हिन्दी कहानी को लेकर गम्भीर चर्चो की शुरुआत छठें दशक के उŸारार्ध से हुई थी, सातवें और आठवें दशक में हिन्दी कहानी इस कदर चर्चा के केन्द्र में रही कि इसे साहित्य की केन्द्रिय विधा घोषित किये जाने का आग्रह किया जाने लगा। अभी तक साहित्य समीक्षा के सभी मान निष्कर्ष और वाद-विवाद कविता को ही केन्द्र मानकर किये जाते थे। यह स्वाभाविक भी था क्योंकि हिन्दी में काव्येतर विधाओं की कुछ-कुछ पहचान चैथे दशक के अन्त में आकर ही उभरने लगी थी।

समकालीन उपन्यास, कथा, कहानी, मानव जीवन से जुड़ प्रश्नों, जटिलताओं, राजनीतिक, सामाजिक, पारिवारिक आदि के मध्य उभरने वाले संबंधों स्वार्थो और यथार्थ का परिचय कराता है और अपनी कलात्मक विवेक से उसे हमारी संवेदना का अंग बना देता है। तो मै मानती  हूँ कि वह हमारी मानसिकता और सोच को सचेतन और सक्रिय रखता है।


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