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भाषा और लिपि

भाषा के विभिन्न अवयवों में एक महत्वपूर्ण अवयव लिपि भी है। हम भाषा का अध्ययन अन्यान्य ढंग से तो करते हैं ,लेकिन भाषाओं और लिपियों के व्यापक संदर्भ को हम समझ नहीं पाते ।यह हमारी विडंबना ही कही जाएगी कि हम भाषा और लिपि के संबंधों को ठीक ढंग से व्याख्यायित नहीं कर पा रहे हैं ।भाषा  मूलतः वाचिक परंपरा में विकसित होती है और लिपि के माध्यम से उसे हम अपने आने वाली पीढ़ियों तक पहुंचाते हैं। इस दृष्टि से देखें तो लिपि  भाषा के संवहन का सशक्त माध्यम है। लिपियों द्वारा भाषाओं के भेद को व्यापक स्तर पर पाटा जा सकता है। भाषाओं में जो भेद आज देखने को मिलता है, वह उनकी लिपियों में भेद  के कारण होता है। ऐसी स्थिति में आगर अनुवाद के साथ-साथ लिप्यांतरण पर भी ध्यान दें, तो बहुत हद तक भाव संप्रेषण में सुगमता होगी । और भाषाई  एवं सांस्कृतिक खाई को कम किया जा सकेगा। भविष्य में लिप्यंतरण को महत्व देकर हम भाषा संबंधी बहुत सी परेशानियों से निजात पाते हुए, भाषा को एक नए रूप में ढालने में समर्थ होंगे। भाषा अपने व्यवहार  में इकहरी है, लेकिन इसके बहुत व्यापक संदर्भ है जैसे संस्कृति ,अर्थ ,राजनीति और समाज एवं उसकी पर

मैं वह धनु हूँ-अज्ञेय

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मैं वह धनु हूँ,  जिसे साधने में प्रत्यंचा टूट गई है। कथाकार ,कवि एवं गम्भीर चिन्तक अज्ञेय मेरे भाव जगत के बहुत निकट हैं। कारण तो मेरे अन्तर्यामी ही जानते होंगे। फिर भी बहुत कुछ हमारे जीवन का हमारे प्रारब्ध और ना जाने कितने जन्मों का संचित कर्म होता है, शायद मेरी इस बात से कम लोग ही इतेफाक रखते हों ,लेकिन मैं व्यक्तिगत रुप से यही मानता हूँ। हम अपने जीवन काल में बहुत से लोगों से मिलते जुलते हैं,लेकिन कुछ लोगों हम पहली दूसरी मुलाकात में ही जान जाते हैं कि इस व्यक्ति के साथ हमारी अच्छी निभेगी। ऐसी ही हमारी अज्ञेय जी के रचना संसार के साथ निभ रहा है। ना जाने क्यूँ अज्ञेय मुझे कुछ ज्यादा ही खींचते हैं अपनी ओर ।  स्खलित हुआ है बाण , यद्यपि ध्वनि, दिगदिगन्त में फूट गयी है-- मैं वह धनु हूँ की ये पंक्ति हमें जीवन में सब कुछ समय पर छोड देने की सूझ देता है। प्रत्यंचा का टूटना और बाण का स्खलित होना और फिर ध्वनि का  दिगदिगन्त में गूंजायमान होना अपने आप में अलग ध्वन्यार्थ प्रस्तुत करता है । जिसे कवि आगे की पंक्तियों में हमारे सम्मुख रखता है - प्रलय-स्वर है वह, या है बस मेरी लज्जाजनक पराजय, या कि सफलता

लोक रंग के विलक्षण गीतकार : डॉ. सागर

  भारतीय समाज ,संस्कृति और साहित्य हमेशा से लोक की व्यापक भूमि से सिंचित होता रहा है ।सिनेमा ,साहित्य और समाज का विकास आज जिस रूप में हमें देखने को मिल रहा है , उसके मूल में वह चेतना है, जिसे भारतीय परम्परा में सदियों संजो रही थी । यह परम्परा और चेतना लोक से ही अपनी रसना शक्ति ग्रहण करती रही है । लोक भाषाओँ से ही शिष्ट भाषा और मानक भाषा का विकास होता है । लोक साहित्य की सुदृढ़ परम्परा में गीत, कथा , नाट्य का अस्तित्व प्राचीन काल से है और उससे हमारी संस्कृति को संजीवनी मिलती रही है । हिन्दी में बहुत से ऐसे रचनाकार हैं,जिन्होंने अपने लोक से संवेदना और रस को ग्रहित कर अपने साहित्य को समृद्ध कर समाज को आलोकित करने का कार्य किया है । साहित्य की लगभग सभी विधाओं में लोक का आलोक देखने को मिलता है । हिन्दी के अनेक लेखक हैं जिन्होंने लोक की भाव-भूमि पर अपनी सृजनशीलता को बृहद आयाम दिया है । लोक की भूमि पर ही वर्तमान  समय के प्रसिद्द गीतकार डॉ. सागर ने अपने गीतों के माध्यम से समाज की विविध भंगिमाओं को जीवंत किया है । डॉ. सागर का जीवन लोक के प्रांगण में पल्लवित एवं पुष्पित हुआ, और आपने लोक से बहुत क

जन मन के सरोकारों की भाषा का अभिनव प्रयोग :रागदरबारी

 हिन्दी उपन्यास साहित्य में हमारे समाज, जीवन और जीवन स्थितियों का व्यापक चित्र देखने को मिलता है। मानव जीवन निरंतर ¬प्रतिपल बदलता रहता है, इसके कारण उसकी क्रियाएँ-प्रतिक्रियाएँ भी बदलती रहती है। इस प्रकार कह सकते हैं कि  मानव जीवन एक प्रयोगशाला है, जिसमें अनेक प्रकार की भौतिक एवं रासायनिक प्रक्रियाएँ होती रहती हैं, जिसका प्रभाव हिंदी उपन्यासों पर देखने को मिलता है। उपन्यासों का विषयवस्तु हमारा सामाजिक जीवन होता है, और सामाजिक जीवन में परिवर्तन के परिणामस्वरूप उपन्यासों के विषयवस्तु, शिल्प, भाषा और संरचना में अंतर देखने को मिलता है। औपन्यासिक भाषा के स्तर पर प्रेमचन्द की सामान्य जन की भाषा को सहज कथा शिल्प में प्रस्तुत करने की जो परम्परा आरम्भ हुई उसे आगे बढ़ाने का कार्य बाद के कथाकारों ने बखूबी किया। कथा साहित्य की भाषा का स्वरूप साहित्यिक भाषा से भिन्न होता है। कथा की भाषा में काव्य, नाटक, निबन्ध और साहित्य की अन्य विधाओं की भाषा का सामंजस्य भी देखने को मिलता है। हिन्दी उपन्यास साहित्य के इतिहास पर दृष्टिपात करें तो हिन्दी उपन्यास साहित्य का इतिहास बहुआयामी देखने को मिलता है। सामाजिक,

मुक्तिबोध : बहुत दिनों से

     मुक्तिबोध हिन्दी साहित्य बहुपठित एवं बहुचर्चित हैं ,आपने अपनी कविता के माध्यम से जीवन जगत की वास्तविकता को समाज के समक्ष प्रस्तुत करने कार्य किया है . मुक्तिबोध एक नये  के प्रकार संवेदन के कवि के रूप में जाने जाते हैं . विरोध से विद्रोह तक का स्वर हम मुक्तिबोध की कविताओं में देख सकते हैं . बहुत दिनों से कविता के माध्यम से एक नए तरह को प्रस्तुत किया है . भाव ,भाषा और भंगिमा सभी दृष्टियों से यह कविता विशिष्ट है . मैं बहुत दिनों से बहुत दिनों से  बहुत-बहुत-सी बातें तुमसे चाह रहा था कहना  और कि साथ-साथ यों साथ-साथ  फिर बहना बहना बहना  मेघों की आवाजों से  कुहरे की भाषाओं से  रंगों के उद्भासों से ज्यों नभ का कोना-कोना  है बोल रहा धरती से  जी खोल रहा धरती से  त्यों चाह रहा कहना  उपमा संकेतों से  रूपक से, मौन प्रतीकों से  ............ मैं बहुत दिनों से बहुत-बहुत-सी बातें  तुमसे चाह रहा था कहना  जैसे मैदानों को आसमान , कुहरे की ,मेघों की भाषा त्याग  विचारा आसमान कुछ  रूप बदलकर रंग बदलकर कहे .

भारतीय नागरिक के रूप में हमारा दायित्व

  स्वाधीनता के लगभग पचहतर वर्ष होने को हैं ,इतने वर्षों के बाद भी आजादी के मायने और अपेक्षाओं को हम समाज के अंतिम व्यक्ति तक पहुचाने में असमर्थ हैं । शिक्षा ,स्वास्थ ,सुरक्षा और न्याय जैसी व्यवस्था सबको कितनी सर्वसुलभ है, यह प्रश्नों के घेरे में है ।इस स्थिति के लिए हम प्रायः शासन सत्ता और व्यवस्थाओं को दोष देकर अपने दायित्व की इतिश्री कर लेते हैं । किसी भी राष्ट्र के निरंतर उत्थान में वहां के नागरिकों का राष्ट्रिय चरित्र होना एक मूलभूत आवश्यकता है ।आज हमारे देश में राष्ट्रिय और सामाजिक चरित्र का ना होना एक बड़ा कारण है , जिसके कारण समाज का अंतिम व्यक्ति मौलिक सुविधाओं से दूर है । क्या ,हम केवल व्यवस्थापिका और उससे जुड़े लोगों को दोष देकर मुक्त हो सकते हैं ? क्या हम कार्यपालिका और न्यायपालिका की कार्यप्रणाली को प्रश्नांकित करके मुक्त हो जायेंगे ?- नहीं । समस्या हमारे राष्ट्रिय चरित्र की है । जिसके कारण भ्रष्टाचार फल-फूल रहा है । अपवादों को छोड़ दें तो लगभग हर व्यक्ति उस हद तक भ्रष्ट है , जिस हद तक वह भ्रष्ट हो सकता है । क्या नागरिक ? क्या नेता ?क्या ब्यूरोक्रेट या व्यस्था से जुड़े अन्य लोग

कथा अनुवाद

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  साहित्य का हमारे समाज और संस्कृति से गहरा जुड़ाव होता है। कथा साहित्य में समाज और संस्कृति का प्रतिबिम्बन हमारे साहित्य में देखने को मिलता है। कथा साहित्य में समाज का व्यापक चित्र. प्रस्तुत करते हुए कथाकार समाज के विविध रीति-रिवाजों और परम्पराओं का भी अंकन सहज ही हो जाता है। कथा-साहित्य का अनुवाद करते हुए अनुवादक को स्रोत भाषा और लक्ष्य दोनों के समाज , संस्कृति और जनता की चित्तवृतियों का विशेष ध्यान रखना होता है। किसी भी रचनाकार के साहित्यिक परम्परा को भलीभांति जाने समझे बिना हम उसकी रचनाओं के मर्म को नही समझ सकते और अगर हम रचना के मर्म को नहीं समझ सकेंगे तो उसका अनुवाद प्रभावी नहीं होगा। कथा साहित्य में व्यापक जीवन की अभिव्यक्ति होती है। इसीलिए कथा साहित्य का अनुवाद अधिक चुनौतीपूर्ण होता है। समाज , संस्कृति , परिवेश और सामाजिक क्रियाओं- प्रतिक्रियाओं के सूक्ष्म अन्वेषण की आवश्याकता कथा-अनुवाद में होती हैं अनुवादक का उत्तरदायित्व साहित्यकार से अधिक चुनौतीपूर्ण और व्यापक होता है। अनुवाद के लिए भाषाओं का सूक्ष्म अध्ययन तो अपेक्षित है ही साथ ही साथ रचनाकार के रूचि-अभिरूचि का भी ध्यान र