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अज्ञेय की काव्यगत विशेषताएँ

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सन् 1932 में ब्रिटेन में माइकेल राबर्टस ने न्यू सिगनेचर्स नामक एक काव्य संग्रह प्रकाशित किया था। इसमें आडेन, एम्पसन, जान लेहमन, स्पेन्डर आदि की रचनांए संग्रहीत थीं। इन कवियों ने परम्परागत काव्य पद्धतियों को अधूरा समझकर नई दिशाओं की खोज की; पुराने के प्रति असन्तोष तथा नए के अन्वेषण में सभी संलग्न थे। अज्ञेय द्वारा प्रकाशित तार सप्तक 1943  की भूमिका में न्यू सिग्नेचर्स की प्रतिध्वनि सुनाई पड़ती है। 1947 में अज्ञेय द्वारा प्रकाशित ‘प्रतीक’ पत्र इस काव्यान्दोलन को पुष्ट करता है। https://youtu.be/u-AAd-8Ud1M प्रयोगवाद शब्द का  प्रयोग सर्वप्रथम आचार्य नन्द दुलारे बाजपेयी ने अपने निबन्ध प्रयोगवादी रचनाएं में किया। इस निबन्ध में मुख्यतः तार सप्तक की समीक्षा की गई है, जिसमें उन्होने लिखा है कि पिछले कुछ समय से हिन्दी काव्य क्षेत्र में कुछ रचनाएं हो रही है, जिन्हें किसी सुलभ शब्द के अभाव में प्रयोगवादी रचना कहा जा सकता है। दूसरा सप्तक की भूमिका में अज्ञेय ने बाजपेयी का उत्तर देते हुए तार सप्तक की रचनाओं को प्रयोगवादी कहना स्वीकार नहीं किया है। प्रयोग का कोईवाद नहीं हैं। अतः हमें प्रयोगवादी कहना उ

उत्तर आधुनिकता क्या है ?

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उत्तर आधुनिकता आधुनिकता की तरह पाश्चत्य चिन्तन परम्परा की देन है ,जैसे - जैसे हमारे सामाजिक जीवन में परिवर्तन होते हैं, वैसे- वैसे हमारा चिन्तन भी बदलता जाता है. आज का हमारा जीवन बाजार पर आधारित हो चला है . उत्तर आधुनिकता उन्हीं में से एक अत्यंत जटिल प्रत्यय है। समाधी दर्शन के रूप में उसका कोई निश्चित निर्मित नहीं हो पाया है। कुछ लोगों द्वारा मार्क्सवादी दर्शन(हालैटिक्स) द्विधम सामाजिक परिवर्तनों राजनीतिक एवं सांस्कृतिक संक्रमणों आदि के रूप में देखा जा रहा है। कभी-कभी उसे आधुनिकतावाद कारण अथवा विकिरण भी समझ गया है बौद्धिक मौका जे इसे एक जटिल अवधारणा विचार बना दिया है। उत्तर आधुनिकतावादी दृष्टि आधुनिकतावादी धारणा के गर्भ से उत्पन्न क्रमण है। अतः आवश्यक है कि इस प्रत्यय को स्पांकित करने से पूर्व पश्चिम के वैचारिक परिदृश्य को दृष्टिपथ में रखा जाए और इस क्षेत्र को विधारणाओं को समुद्र कर कुछ पर पहुँचा जाये . उत्तर आधुनिकता उन्हीं में से एक अत्यंत जटिल प्रत्यय है। समाधी दर्शन के रूप में उसका कोई निश्चित निर्मित नहीं हो पाया है। कुछ लोगों द्वारा मार्क्सवादी दर्शन(हालैटिक्स) द्विधम सामाजिक परि

निराला के 'काव्य' में प्रगतिशील चेतना & मुक्त छंद

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निराला के 'काव्य' में प्रगतिशील चेतना  निराला  छायावादी कवि के साथ-साथ प्रगतिशील चेतना के कवि भी रहे हैं।उनकी कविताओं यह प्रगतिशील दृष्टि स्पष्ट दिखाई देती है।  छायावाद कालीन कविताओं से ही उनकी  प्रगति चेतना  आकर लेने लगती है ।  निराला की  सम्पूर्ण प्रगतिशील रचनाओं पर दृष्कटिपात करें तो स्पष्ट लगता है कि उनकी कविताओं में कहीं तो समाजिक ,आर्थिक बोध अंकित है और कहीं शोषित, भिक्षुओं और असहायों का करुणाजनक चित्र है। ऐसी कविताओं में "वह तोड़ती पत्थर" "भिक्षुक" "विधवा", "सेवा प्रारम्भ", "कुत्ता भौंकने लगा" आदि को लिया जा सकता है। 'निराला' ने अपनी प्रगतिशील चेतना के बल पर पारम्परिक रूढ़ियों और पुरातनपंथियों का विरोध भी किया है। "मित्र के प्रति" और "सरोज स्मृति मे प्रगतिशील चेतना को देखा जा सकता है। "दान" कविता  में 'निराला' ने धर्म में व्याप्त ढोंग पर तीखे प्रहार करते हुए अपनी प्रगतिशील चेतना को वाणी दी है। 'निराला' की कतिपय कविताएँ ऐसी भी हैं जिनमें यथार्थपरक दृष्टि खुलकर सामने आयी है।

हिन्दी वर्णमाला

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1. स्वर 2.व्यंजन  3.संयुक्ताक्षर       भारतीय परम्परा में ध्वनि की अक्षर यानि नष्ट न होने वाली कहा गया है . ध्वनि का जन्म फेफड़ों से उठने वाली हवा ,मुह और नाक के अवयवों के मिले-जुले प्रयास से होता है .इस प्रक्रिया में श्वास नली से निकलती हुई हवा मुह के अलग-अलग हिस्सों से टकराकर अनेक प्रकार की ध्वनियों वाली हो जाती है . हिन्दी भाषा में इन ध्वनियों और उनकी उच्चारण प्रक्रिया का बहुत ही गहन विश्लेषण किया गया है . इस आधार पर हिन्दी ध्वनियों को तीन भागों में बता गया है - 1. स्वर 2.व्यंजन  3.संयुक्ताक्षर  1. स्वर - स्वर वे ध्वनियाँ हैं ,जिनका उच्चारण सहज और स्वतंत्र रूप से कर सकते हैं . स्वर मूल ध्वनियाँ हैं जो अन्य वर्णों के उच्चारण को संभव बनती हैं . भाषा विज्ञानं के अनुसार जिन वर्णों का उच्चारण स्वतंत्र रूप से होता है और जो अन्य वर्णों के उच्चारण में सहायक हो, वे स्वर कहलाते हैं . अन्य शब्दों में कहा जा सकता है कि जिन वर्णों के उच्चारण में अन्य वर्णों की सहायता अपेक्षित नहीं होती, उन्हें स्वर कहा जाता है .      हिन्दी भाषा के स्वरों की एक खासियत है कि इनका उच्चारण में  किसी भाषा के लहजे या

अलंकार और उसके भेद

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काव्य की शोभा बढाने वाले तत्वों को अलंकार कहते हैं. अलंकार के मूलतः दो भेद किये गए हैं- 1. शब्दालंकार 2. अर्थालंकार जब काव्य में शोभा की अभिवृद्धि शब्दों के माध्यम से होती है, वहाँ शब्दालंकार होता है. शब्दालंकार के तीन भेद हैं - 1. अनुप्रास अलंकार 2. यमक अलंकार 3. श्लेष अलंकार 1. अनुप्रास अलंकार- जहाँ पर एक ही वर्ण की आवृत्ति एक से अधिक बार हो, अर्थात एक ही वर्ण बार- बार आये वहाँ अनुप्रास अलंकार होता है.  उदाहरण- चारु चंद की चंचल किरणें  खेल रहीं हैं जल थल में. उपरोक्त पंक्तियों मे च और ल वर्ण एक से अधिक बार आये है ं अत: यहाँ अनुप्रास अलंकार है. 2. यमक अलंकार- जिन पंक्तियों में एक ही शब्द एक से अधिक बार आये और उसका अर्थ भी अलग- अलग हो वहाँ यमक अलंकार होता है. उदाहरण- कनक कनक ते सौ गुनी मादकता अधिकार  या खाये बौराय जग, वा पाये बौराय. उपरोक्त पंक्तियों में कनक शब्द का पहला अर्थ धतुरा और दूसरा अर्थ सोना है, अत: यहाँ यमक अलंकार है. 3. श्लेष अलंकार- श्लेष का अर्थ है एक चिपके होना, जहाँ पर शब्द का प्रयोग एक ही बार हो, लेकिन उसके अर्थ एक से अधिक हों वहाँ श्लेष अलंकार होता है. उदाह

निराला के काव्य में व्यंग्य

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 'निराला' काव्य में छायावादी चेतना की शुभता और सूक्ष्मता से हटकर प्रगतिशील चेतना का यथार्थवादी रंग भी उपलब्ध है। इसी रंग में वे कभी व्यंग्य से और कभी विनोद से भी काम लेते रहे हैं। उनके व्यंग्य भाव में सामाजिक विषमता के प्रति विद्रोह भी प्रतिध्वनित है और मानव जाति के प्रति व्यापक सहानुभूति भी। "कुकुरमुत्ता" और "नए पत्ते" व्यंग्य और विनोद की प्रवृत्तियों को उजागर करती है। यों यह प्रवृत्ति उनके काव्य में आकस्मिक नहीं है, इसका आभास हमें “अनामिका” और "परिमल की कविताओं से होने लगता है। "अनामिका" की "उक्ति", "दान" और "वनवेला" कविताएँ इसका प्रमाण हैं। उनके परवर्ती काव्य में व्यंग्य का स्वर तोखा और मर्मभेदी है। उनके व्यंग्य का आधार सामाजिक वैषम्य, निर्धनों का शोषण एवं उत्पीड़न तो है ही, साथ ही राजनीतिज्ञों और साहित्यकारों तक को उन्होंने अपने व्यंग्य का निशाना बनाया है। "मानव जहाँ बैल, घोड़ा, कैसा तन मन का जोड़ा" जैसी पंक्तियों में न केवल वैषम्य पर बल है, अपितु भौतिकता से उपजी विकृतियों की ओर स्पष्ट संकेत भी है। “

सोहन लाल द्विवेदी: बाल कवितायेँ

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खटपट, खटपट, खटपट, खटपट, क्या करते हो बच्चो, नटखट? आओ, इधर दौड़ कर झटपट, तुमको कथा सुनाऊँ चटपट! नदी नर्मदा के निर्मल तट, जहाँ जंगलों का है जमघट, वहीं एक था बड़ा सरोवर, जिसकी शोभा बड़ी मनोहर! इसी सरोवर में निशिवासर, हाथी करते खेल परस्पर। एक बार सूखा सर वह जब, तब की कथा सुनो बच्चो अब। पड़े बड़े दुख में हाथी सब, कहीं नहीं जल दिखलाया जब- सारे हाथी होकर अनमन, चले ढूँढ़ने जल को बन बन। मेहनत कभी न होती निष्फल, उनको मिला सरोवर निर्मल। शीतल जल पीकर जी भरकर, लौटे सब अपने अपने घर। हाथी वहीं रोज जाते सब, खेल खेल कर घर आते सब। किन्तु, सुनो बच्चो चित देकर, जहाँ मिला यह नया सरोवर। वहीं बहुत खरगोशों के घर, बने हुए थे सुन्दर सुन्दर। हाथी के पाँवों से दब कर, वे घर टूट बन गए खँडहर! खरगोशों के दिल गए दहल, कितने ही खरगोश गए मर, वे सब थे अनजान बेखबर! सब ने मिलकर धीरज धारा, सबने एक विचार विचारा। जिससे टले आपदा सारी, ऐसी सब ने युक्ति विचारी। उनमें था खरगोश सयाना, जिसने देखा बहुत जमाना। बात सभी को उसकी भायी, उसने कहा, करो यह भाई- बने एक खरगोश दूत अब, काम करे बनकर सपूत सब। जाकर कहे हाथियों से यह, उसके सभी साथियो