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त्यागपत्र : एक मनोवैज्ञानिक उपन्यास ( जैनेन्द्र)

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     साहित्य , भाषा और समाज का अत्यन्त घनिष्ट संबंध रहा है समाज के चितवृत्ति के परिवर्तन का प्रभाव साहित्य और उसकी भाषा पर भी पड़ता है। यह प्रभाव साहित्यिक विधाओं का रूप परिवर्तन भी तय करता है। हमारी वैदिक - पौराणिक परम्परा में जहां संवादों , महाकाव्यों का महत्व रहा है। वहीं आज साहित्य का रूप बहुत बदल चुका है। आख्यायिका परम्परा का साहित्य आज निबन्ध , कहानी , कविता , उपन्यास आदि जैसी अनेक विधाओं में परिवर्तित हो चुका है यह परिवर्तन सामाजिक चितवृत्ति में होने वाले परिवर्तन के कारण ही होता रहा है। समाज की भावदषा एवं मनोदशा में परिवर्तन के साथ-साथ भाषा का रूप भी परिवर्तित होता रहता है।               साहित्य , भाषा और समाज के इन्हीं संबंधों के परिणाम स्वरूप भाषा भी अपनी यात्रा तय करती है अपने आरम्भिक रूप से लेकर अब तक हिन्दी भाषा , के रूप में अनेक परिवर्तन हुए हैं। यह परिवर्तन काव्य भाषा एवं गद्य भाषा के रूप में प्रतिष्ठा के साथ-साथ सूक्ष्म भावात्मक अभिव्यक्ति की भाषा के रूप में भी दृष्टिगत होती है। गद्य भाषा के रूप में सर्वाधिक वैविध्यपूर्ण रूप औपन्यासिक भाषा का है। औपन्यासिक भाषा में काव

सामाजिक भाषा के विविध सन्दर्भों की अभिव्यक्ति : नाच्यौ बहुत गोपाल

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 हिन्दी साहित्य के आधुनिक काल में उपन्यास साहित्य को एक विशेष उपलब्धि के रूप में व्यापक रूप से स्वीकार किया गया है।  कथा सम्राट के रूप में प्रेमचंद ने जिस परंपरा का आरंभ किया उसे परवर्ती कथाकारों ने आगे ले जाने का कार्य किया। प्रेमचंद समाजवादी कथाकार के रूप में जाने जाते हैं, उनकी परंपरा में एक सशक्त हस्ताक्षर के रूप में अमृतलाल नागर का महत्व सर्वस्वीकृत है। अमृतलाल नागर ने प्रेमचंद की परंपरा को  आगे बढ़ाने का कार्य किया। अमृतलाल नागर हिन्दी के  ऐसे कथाकार हैं ,जिन्होंने अपने समाज का बहुत ही गहन अध्ययन और साक्षात्कार किया और उसे अपने कथा साहित्य के माध्यम से समाज के सम्मुख प्रस्तुत किया। नागर जी द्वारा रचित नाच्यौ बहुत गोपाल उपन्यास अपने आप में विशिष्ट है। अपने शिल्प और विषय वस्तु के आधार पर इस उपन्यास को हिन्दी का विशिष्ट उपन्यास कहा जा सकता है।  नाच्यौ बहुत गोपाल में सामाजिक संदर्भों का व्यापक संस्पर्श देखने को मिलता है। नागर जी के लगभग सभी उपन्यासों में नये ढंग का भाषिक कलेवर देखने को मिलता है। नाच्यौ बहुत गोपाल में भी अवधी मिश्रित खड़ी बोली के साथ-साथ अन्य भारतीय एवं विदेशी भाषाओं के

आधा गाँव की भाषा एवं संवेदना

आधा गाँव की कथा को अपने पूरे मित्र को समर्पित करना अपने आप में अधिक व्यंजनापूर्ण है । इस उपन्यास की कथा को कहने के लिए उपन्यासकार ने एक नये तरह की भाषा को हमारे समक्ष प्रस्तुत किया है , इसके साथ-साथ कथा शिल्प के स्तर पर नयापन लाने का कार्य किया है । कथा भाषा और कथा शिल्प को किसी निश्चित ढाँचे में बांधकर नहीं देखा जा सकता है ।कथा भाषा और सामाजिक सरोकारों को रेखांकित करते हुए प्रो. केशरी कुमार ने लिखा है कि - "भाषा यथार्थ का सबसे महत्वपूर्ण रचनात्मक पहलू है ।भाषा नहीं तो यथार्थ नहीं ,भाषा के द्वारा ही हम यथार्थ को जानते मानते पहचानते हैं ।भाषा यथार्थ को एक नाम देती है और इस नाम से ही वह पहचाना जाता है । जिसके पास वस्तु है ,पर नाम नहीं है । भाषा की उपेक्षा यथार्थ की उपेक्षा है ।यथार्थ समाज-जीवन का द्वार है, तो भाषा उससे भीतर बाहर करने का रास्ता है । एक के बिना दूसरे का अर्थ नहीं ।"  कथा भाषा और सामाजिक यथार्थ का अन्योन्याश्रित संबंध है । कथा भाषा की दृष्टि अंचल के यथार्थ को अभिव्यक्त करने वाले उपन्यासों में नए प्रयोग देखने को मिलते हैं ।आधा गाँव में भी नए भाषिक एवं सांस्कृतिक प्

राग दरबारी की कथा भाषा और व्यंग्य ’

  व्यंग्यात्मक भाषा की सृजनात्मक प्रस्तुतिः ‘राग दरबारी’ हिन्दी उपन्यास साहित्य में हमारे समाज, जीवन और जीवन स्थितियों का व्यापक चित्र देखने को मिलता है। मानव जीवन निरंतर ¬प्रतिपल बदलता रहता है, इसके कारण उसकी क्रियाएँ-प्रतिक्रियाएँ भी बदलती रहती है। इस प्रकार कह सकते हैं कि  मानव जीवन एक प्रयोगशाला है, जिसमें अनेक प्रकार की भौतिक एवं रासायनिक प्रक्रियाएँ होती रहती हैं, जिसका प्रभाव हिंदी उपन्यासों पर देखने को मिलता है। उपन्यासों का विषयवस्तु हमारा सामाजिक जीवन होता है, और सामाजिक जीवन में परिवर्तन के परिणामस्वरूप उपन्यासों के विषयवस्तु, शिल्प, भाषा और संरचना में अंतर देखने को मिलता है। औपन्यासिक भाषा के स्तर पर प्रेमचन्द की सामान्य जन की भाषा को सहज कथा शिल्प में प्रस्तुत करने की जो परम्परा आरम्भ हुई उसे आगे बढ़ाने का कार्य बाद के कथाकारों ने बखूबी किया। कथा साहित्य की भाषा का स्वरूप साहित्यिक भाषा से भिन्न होता है। कथा की भाषा में काव्य, नाटक, निबन्ध और साहित्य की अन्य विधाओं की भाषा का सामंजस्य भी देखने को मिलता है। हिन्दी उपन्यास साहित्य के इतिहास पर दृष्टिपात करें तो हिन्दी उपन्यास